शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

जौनसार के दो गांवों के बीच होता है अद्भुत 'गागली युद्ध'

       त्तराखंड के गढ़वाल मंडल का एक क्षेत्र है जौनसार जहां जौनसारी भाषा बोली जाती है। यह पूरा क्षेत्र भी उत्तराखंड के तमाम अन्य क्षेत्रों की तरह अपनी अनूठी परंपराओं के लिये विख्यात है। मसलन जब देश भर में दशहरा पूरे धूमधाम से मनाया जाता है तब यहां पाइंता पर्व मनाया जाता है और इस दौरान जौनसार बावर के दो गांवों उत्पाल्टा और कुरोली के बीच युद्ध होता है जिसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। अरबी के पत्तों और डंठलों से होने वाले इस अनोखे युद्ध को देखने के लिये दूरदराज के गांवों के लोग भी आते हैं तथा शुरूआत से लेकर अंत तक इसमें संघर्ष के साथ मनोरंजन का पुट भरा रहता है।

गागली युद्ध का यह वीडियो श्री जितेंद्र लखेड़ा ने उपलब्ध कराया है

        दशहरे के दिन पूरे भारत में रावण दहन किया जाता है लेकिन यहां ऐसी कोई परंपरा नहीं है। पिछले 200 से भी अधिक वर्षों से इस अवसर पर उत्पाल्टा व कुरोली गांवों के बीच दशहरे के दिन गागली युद्ध होता है। ढोल—नगाड़ों की थाप, रणसिंघा की रणभेरी समान ध्वनि के बीच दोनों गांवों के लोग देवधार के जंगल में पहुंचते हैं जहां उनके बीच अरबी के डंठलों और पत्तों से युद्ध होता है। जौनसारी भाषा में अरबी को गागली कहते हैं और इसलिए इसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। युद्ध के लिये एक महीने पहले से ही तैयारी कर ली जाती है। अरबी के डंठलों को काटकर सुखाया जाता है। युद्ध के दिन दोनों पक्ष अपने शौर्य का भरपूर प्रदर्शन करते हैं। हंसी ठिठोली भी चलती है। लगभग एक घंटे के युद्ध के बाद दोनों पक्ष आपस में गले मिलते हैं। एक दूसरे को पाइंता पर्व की बधाई देते हैं और फिर उत्पाल्टा गांव के सार्वजनिक स्थल पर तांदी, हारूल, रासो जैसे नृत्यों से समां बांधा जाता है। इन नृत्यों में दोनों गांव के बच्चों से लेकर महिलाएं और पुरूष सभी हिस्सा लेते हैं। इसके साथ ही लोग अपने स्थानीय देवताओं महासू, चालदा, शिलगुर, विजट, परशुराम आदि के मंदिरों में पूजा करते हैं। उत्पाल्टा और कुरोली के अलावा अन्य गांवों के लोग भी इस दिन पाइंता पर्व मनाते हैं और अपने इन इष्टदेवों के मंदिरों में जाकर परिवार की खुशहाली के लिये कामना करते हैं। 

पश्चाताप के लिये होता है 'गागली युद्ध'


      गागली युद्ध से एक कहानी जुड़ी है। स्थानीय किवदंतियों के अनुसार रानी और मुन्नी नाम की दो बहनें थी। दोनों ही एक साथ कुएं या तालाब में पानी भरने के लिये जाती थी। एक दिन रानी की पानी भरते समय कुएं में गिरने से मौत हो गयी। मुन्नी तुरंत ही घर पहुंची और उसने गांव वालों को सारी घटना विस्तार से बता दी। गांव वालों ने मुन्नी पर ही आरोप लगा दिया कि उसने रानी को धक्का देकर कुंए में फेंका। मुन्नी की किसी से नहीं सुनी। उसे दोषी मान लिया गया। वह पहले ही अपनी सहेली की मौत से सदमे में थी और गांव वालों के आरोपों से दुखी होकर उसने भी कुएं में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। ग्रामीणों को बाद में अपनी गलती का अहसास हुआ। अब पछतावा करने के अलावा कुछ नहीं बचा था। उन्हें रानी और मुन्नी के श्राप का डर सताने लगा। ऐसे में वे महासू देवता की शरण में गये। देवता ने उन्हें दशहरे के दिन दोनों बहनों की मूर्तियां बनाकर कुएं में विसर्जित करने की सलाह दी। तब से ही पश्चाताप के रूप में गागली युद्ध होता है। इससे दो दिन पहले रानी और मुन्नी की मूर्तियां तैयार करके उनकी पूजा होती है और पाइंता यानि दशहरे के दिन उन्हें कुएं में विसर्जित कर दिया जाता है। 
       उत्तराखंड का हर क्षेत्र ऐसी ही दिलचस्प कहानियों और प​रपंराओं से समृद्ध है। 'घसेरी' के पाठकों से गुजारिश है कि ऐसी परंपराओं को आम लोगों तक पहुंचाने के लिये अपना सहयोग करें। आप घसेरी के लिये इन विषयों पर लिख सकते हैं। यदि गागली युद्ध के बारे में अधिक जानकारी या चित्र हों तो उन्हें भी भेज सकते हैं। पहाड़ से जुड़ा ऐसे किसी विषय पर लिखकर आप मुझे चित्र सहित dmpant@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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