सुबह लेकर अखबार में पढ़ा की उत्तराखंड की झंगोरा की खीर राष्ट्रपति भवन के मेन्यू में शामिल कर ली गयी है। खुशी मिली और साथ में मुंह पानी भी आ गया। कुछ लोगों के लिये यह शब्द नया हो सकता है लेकिन मुझे नहीं लगता कि जो व्यक्ति कुछ दिन भी पहाड़ में रहा हो वह झंगोरा से अपरिचित हो। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी यह नारा अक्सर सुनने को मिल जाता था, '' मंडुवा . झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे।''
पौष्टिकता से भरपूर होता है झंगोरा |
उत्तराखंड में झंगोरा की खेती सदियों से की जा रही है और एक समय इसका उपयोग चावल के स्थान पर भात की तरह पकाकर खाने के लिये किया जाता था। चावल की बढ़ती पैठ के कारण दशकों पहले ही पहाड़ों में इसे दूसरे दर्जे के भोजन की सूची में धकेल दिया था। यह अलग बात है कि चावल की तुलना में झंगोरा अधिक पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक है और इसकी खेती के लिये उतनी मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है जितनी की धान उगाने के लिये। उत्तराखंड में जिन खेतों की मिट्टी मुलायम और उपजाऊ होती है वहां धान बोया जाता है और जो खेत थोड़ा पथरीला हो वहां झंगोरा की खेती की जाती है। इसके धान के खेत के किनारे भी रोपा जाता है। एक समय आया जबकि उत्तराखंड के किसानों का इससे मोहभंग हो गया था लेकिन अब वे धीरे धीरे इसके गुणों से परिचित हो रहे हैं। इसलिए पहाड़ी खेतों के फिर से झंगोरा की तरह लहलहाने की उम्मीद की जा सकती है। यदि आप इस लेख को पढ़ रहे हों तो लोगों को झंगोरा उत्पादन के लिये प्रेरित कर सकते हैं। कई खेतों में झंगोरा के साथ कौणी भी बो दी जाती है। कौणी का दाना पीला होता है और मरीजों के लिये इसकी खिचड़ी काफी उपयोगी होती है।
झंगोरा खरीफ ऋतु की फसल है क्योंकि पानी के लिये यह बरसात पर निर्भर रहती है। पहाड़ों में झंगोरा की खेती करने के लिये खेत को हल से जोता जाता है और इसमें झंगोरा छिड़क दिया जाता है। बरसात में इसकी निराई, गुड़ाई, रोपाई की जाती है। इधर बारिश हुई और गांवों के लोग खेतों में झंगोरा को व्यवस्थित तरीके से लगाने के लिये चले जाते हैं। वैसे इसकी बुवाई मार्च से मई तक कर दी जाती है और बरसात इसको नया जीवन देती है। सितंबर . अक्तूबर में कटाई का काम चलता है। इसकी लंबी बालियां मनमोहक होती हैं, जिन्हें मांडकर या कूटकर झंगोरा का एक एक दाना अलग कर दिया जाता है। तब यह भूरे रंग का होता है। इसके भूरे रंग के छिलके को निकालने के लिये ओखली (उरख्यालु) में कूटा जाता था जिसके अंदर का दाना सफेद होता है। इसी दाने का उपयोग खीर, खिचड़ी या चावल की तरह पकाने के लिये किया जाता है। पहाड़ी घरों में आज भी झंगोरा से छंछ्या बनाया जाता है जो वहां के लोगों में काफी लोकप्रिय है।
झंगोरा खरीफ ऋतु की फसल है क्योंकि पानी के लिये यह बरसात पर निर्भर रहती है। पहाड़ों में झंगोरा की खेती करने के लिये खेत को हल से जोता जाता है और इसमें झंगोरा छिड़क दिया जाता है। बरसात में इसकी निराई, गुड़ाई, रोपाई की जाती है। इधर बारिश हुई और गांवों के लोग खेतों में झंगोरा को व्यवस्थित तरीके से लगाने के लिये चले जाते हैं। वैसे इसकी बुवाई मार्च से मई तक कर दी जाती है और बरसात इसको नया जीवन देती है। सितंबर . अक्तूबर में कटाई का काम चलता है। इसकी लंबी बालियां मनमोहक होती हैं, जिन्हें मांडकर या कूटकर झंगोरा का एक एक दाना अलग कर दिया जाता है। तब यह भूरे रंग का होता है। इसके भूरे रंग के छिलके को निकालने के लिये ओखली (उरख्यालु) में कूटा जाता था जिसके अंदर का दाना सफेद होता है। इसी दाने का उपयोग खीर, खिचड़ी या चावल की तरह पकाने के लिये किया जाता है। पहाड़ी घरों में आज भी झंगोरा से छंछ्या बनाया जाता है जो वहां के लोगों में काफी लोकप्रिय है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास पर नैनीताल जाते थे तो झंगोरा की खीर उनका पसंदीदा व्यंजन होता था। ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स और उनकी पत्नी कैमिला पार्कर जब नवंबर 2013 में भारत दौरे पर आये तो वे उत्तराखंड भी गये थे। वहां उन्हें झंगोरा की खीर परोसी गयी थी जिसकी उन्होंने काफी तारीफ की थी। यहां तक उन्होंने इसे बनाने की विधि भी पूछी थी। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को इस साल मई में उत्तराखंड प्रवास के दौरान राजभवन में झंगोरा की खीर परोसी गयी थी। यहीं से इस पहाड़ी व्यंजन का राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने का रास्ता साफ हुआ था। गढ़वाल मंडल विकास निगम पहले ही इसे अपने मेन्यू में शामिल कर चुका है।
माना जाता है कि झंगोरा मध्य एशिया से भारत में पहुंचा और उत्तराखंड की जलवायु अनुकूल होने के कारण वहां इसने अपनी जड़ें मजबूत कर ली। भारत के कुछ प्राचीन ग्रंथों में भी इसका वर्णन मिलता है। चीन, अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में भी इसकी खेती की जाती है। झंगोरा का वैज्ञानिक नाम इक्निकलोवा फ्रूमेन्टेसी है। हिन्दी में इसे सावक या श्याम का चावल कहते हैं। राष्ट्रीय पोषण संस्थान केे अनुसार झंगोरा में कच्चे फाइबर की मात्रा 9.8 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 65.5 ग्राम, प्रोटीन 6.2 ग्राम, वसा 2.2 ग्राम, खनिज 4.4 ग्राम, कैल्शियम 20 मिलीग्राम, लौह तत्व पांच मिलीग्राम और फास्फोरस 280 ग्राम पाया जाता है।
यह सभी जानते हैं कि खनिज और फास्फोरस शरीर के लिये बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। झंगोरा में चावल की तुलना में वसा, खनिज और लौह तत्व अधिक पाये जाते हैं। इसमें मौजूद कैल्शियम दातों और हड्डियों को मजबूत बनाता है। झंगोरा में फाइबर की मात्रा अधिक होने से यह मधुमेह के रोगियों के लिये उपयोगी भोजन है। झंगोरा खाने से शरीर में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। यही वजह है कि इस साल के शुरू में उत्तराखंड सरकार ने अस्पतालों में मरीजों को मिलने वाले भोजन में झंगोरा की खीर को शामिल करने का सराहनीय प्रयास किया। उम्मीद है कि इससे लोग भी झंगोरा की पौष्टिकता को समझेंगे और चावल की जगह इसको खाने में नहीं हिचकिचाएंगे। असलियत तो यह है कि जो चावल की जगह झंगोरा खा रहा है वह तन और मन से अधिक समृद्ध है।
झंगोरा से बनने वाले भोज्य पदार्थ
उत्तराखंड में नवरात्रों या व्रत आदि के समय में भी झंगोरा का उपयोग किया जाता है लेकिन आम दिनों में इसे चावल की तरह पकाया जाता है या फिर इसकी खीर, खिचड़ी, छंछ्या या छछिंडु बनाया जाता है। झंगोरा की खीर भी चावल की खीर की तरह की बनायी जाती है। यदि आप 300 ग्राम के करीब झंगोरा लेते हैं तो उसमें 150 ग्राम चीनी और लगभग डेढ़ लीटर दूध मिलाया जाता है। झंगोरा को पहले 15 से 20 मिनट तक पानी में भिगो कर रख दो और इस बीच दूध को उबाल दो। उबले हुए दूध में झंगोरा मिला दो और अच्छी तरह से पकने तक इसमें करछी चलाते रहो। इसके बाद चीनी मिलाओ। स्वाद बढ़ाना है तो काजू, किसमिस, बादाम, चिरौंजी जैसे ड्राई फ्रूट भी मिला सकते हो। अब इसे आप गरमागर्म परोसो या ठंडा होकर खाओ, स्वाद लाजवाब होता है।
जिस तरह से चावल को पकाते हैं झंगोरा को उस तरह से इसका भात पकाकर दाल के साथ खाया जाता है। इसके अलावा इसकी खिंचड़ी भी पकायी जाती है। छंछ्या के लिये छांछ में झंगोरा मिलाकर उसे पकाया जाता है। इसे नमकीन और मीठा दोनों तरह से बना सकते हैं। इसके अलावा अब झंगोरा की रोटी और उपमा भी बनाया जाने लगा है। आपका धर्मेन्द्र पंत (इनपुट ... निर्मला घिल्डियाल)
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जिस तरह से चावल को पकाते हैं झंगोरा को उस तरह से इसका भात पकाकर दाल के साथ खाया जाता है। इसके अलावा इसकी खिंचड़ी भी पकायी जाती है। छंछ्या के लिये छांछ में झंगोरा मिलाकर उसे पकाया जाता है। इसे नमकीन और मीठा दोनों तरह से बना सकते हैं। इसके अलावा अब झंगोरा की रोटी और उपमा भी बनाया जाने लगा है। आपका धर्मेन्द्र पंत (इनपुट ... निर्मला घिल्डियाल)
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झंगोरा ,पहाड़ों में चावल का पर्याय है पर पहाड़ों से नीचे उतर इसे फलाहार माना जाता है और नवरात्रों में खाया जाता है ,इसे सांवा कहते हैं
जवाब देंहटाएंझंगोरा राष्ट्रपति भवन के मेनू में शामिल हो गया यह पढ़कर अच्छा लगा लेकिन ये देखकर बहुत दुख हो रहा है कि यह पारंपरिक गढ़वाल पकवाल गढ़वाल के मेनु से गायब हो गया है। न बाढ़ी दिख्येंदू न झंगुरवू अब त छांछ का दर्शन भी नी हूंदा। दूध अर घ्यू कु त बूनू ही क्य च सब देश परदेश चली ग्याई। खेती बाड़ी त सुगर और गूंड़ी की भेंट चैढ ग्या अर साग बुज्झी कनु वलू नि राई। क्य होल पहाड़ू कू। दिल्ली, देहरादून, हरिद्वार अब बस गमलों में ही रह ग्याईं।
जवाब देंहटाएंइसे मोटा अनाज माना जाता था लेकिन होता बारीक है..
जवाब देंहटाएंझंगोरा का छांछ्या और गंजडु की याद बहुत आती हैं और झंगोरा और कौणी की रोटी का तो जवाब नहीं ... कितनी मीठी होती है जो एक बार खायेगा खाता ही रहेगा ..इसे भी मेनू में शामिल करना चाहिए था
जवाब देंहटाएंमन की बात लिखते हो भैया ...पढ़कर ऐसा लगता है अभी जाकर खा आएं
झंगोरा का छांछ्या और गंजडु की याद बहुत आती हैं और झंगोरा और कौणी की रोटी का तो जवाब नहीं ... कितनी मीठी होती है जो एक बार खायेगा खाता ही रहेगा ..इसे भी मेनू में शामिल करना चाहिए था
जवाब देंहटाएंमन की बात लिखते हो भैया ...पढ़कर ऐसा लगता है अभी जाकर खा आएं
हां दीदी मैंने रोटी का जिक्र किया है लेकिन उसके बारे में विस्तार से नहीं लिख पाया। आगे प्रयास करूंगा।
हटाएंबाजरा इसी को बोलते है क्या sir?
जवाब देंहटाएंनहीं आनंद जी। बाजरा अलग तरह का अनाज होता है।
हटाएंउत्तराखंड के भोजन के व्यंजन को अच्छे से संजोया है । क्या आप इसे पढ़ना पसंद करोगे उत्तराखंड के भोजन के व्यंजन
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