शनिवार, 18 जुलाई 2015

पहाड़ियों के प्रकृति प्रेम को दर्शाता है हरेला

    हाड़ प्रकृति के सबसे करीब हैं और पहाड़ी इस प्रकृति के वासी हैं। उत्तराखंड में कई तरह की पूजा होती हैं और इनमें से अधिकतर का संबंध प्रकृति से होता है। पेड़, पहाड़, पंदेरा (जलस्रोत) का पूजन लगभग हर प्रकार की पूजा में होता है। यहां प्रकृति पूजन से जुड़े कुछ त्योहार भी हैं और इनमें हरेला भी शामिल है जो मुख्य रूप से कुमांऊ क्षेत्र में मनाया जाता है। यह सामाजिक समरसता और नयी ऋतुओं के स्वागत का त्यौहार भी है जो साल में तीन बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और साल में आखिरी बार दशहरे के समय यानि नवरात्रों में, लेकिन इस बीच श्रावण मास में मनाया जाने वाले हरेला को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि हरियाली का आगमन इसी समय होता है। ग्रीष्म, वर्षा और शीत ऋतु की शुरूआत चैत्र, श्रावण मास और फिर दशहरे से होती है। कुमांऊ की संस्कृति पर गहरी पैठ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार शंकर सिंह के अनुसार, ''श्रावण मास का त्यौहार ही असली हरेला है। यह हरियाली के आगमन का पर्व है और हरियाली सावन में आती है। हमारे पुरखों को लगा होगा कि जो प्रकृति हमें इतना कुछ देती है, सुख समृद्धि बनाये रखने के लिये उसकी पूजा जरूरी है। आज के भौतिकवादी युग में जबकि मानव प्रकृति पर हावी होने की कोशिश में लगा है तब हरेला जैसे पर्वों का महत्व अधिक बढ़ जाता है। हरेला हमें यह सिखाता है कि प्रकृति सर्वश्रेष्ठ है।'' 
     श्रावण यानि सौण को भगवान शिव का महीना माना जाता है और इसलिए इस समय के हरेला का महत्व सबसे अधिक है। भगवान शिव कैलाश पर्वत पर रहते हैं जो हिमालय का हिस्सा है। हरिद्धार को उनकी ससुराल माना जाता है। भगवान शिव के लिये श्रावण मास के हर सोमवार को व्रत भी रखा जाता है और शिवजी के मंदिर में पूजा अर्चना होती है। यह भी माना जाता है कि श्रावण मास की संक्रांति को भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था और इस खुशी में हरेला पर्व मनाया जाने लगा था। 
  श्रावण मास का खास त्यौहार हरेला
          हरेला में एक दिन का नहीं बल्कि नौ . दस दिन तक चलने वाला त्यौहार है। चैत्र में इसकी शुरूआत संक्राति से होती है और  है। श्रावण में संक्राति के दिन हरेला होता है और इससे नौ दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। आश्विन मास में नवरात्र के समय में जबकि आम भारतीय परिवार भी अपने घरों में हरियाली उगाता है। इसे नयी ऋतु के अलावा नयी फसल की शुरूआत का का पर्व भी माना जाता है। अच्छी फसल के लिये एक तरह से प्रकृति के प्रतीक भगवान शिव की पूजा की जाती है। कई जगह इस दिन वृक्षारोपण भी किया जाता है। यह बच्चों, युवाओं के लिये बड़ों से आशीर्वाद लेने का पर्व भी है। हरेला पर गाये जाने वाले गीत में आशीर्वाद ही निहित होता है। अब इस गीत को ही देख लीजिए।
    जी रया, जागि रया
    धरती जस आगव, आकाश जस चाकव है जया
    सूर जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
    दूब जस फलिये,
    सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये।
      इसका मतलब है ... जीते रहो, जागरूक बनो। आकाश जैसी ऊंचाई, धरती जैसा विस्तार मिले, सूर्य जैसी शक्ति और सियार जैसी बुद्धि प्राप्त करो। दूब की तरह पनपकर अपनी कीर्ति फैलाओ। उम्र इतनी अधिक लंबी हो कि चावल भी सिलबट्टे पर पीस कर खाने पड़ें और बाहर जाने के लिये लाठी का सहारा लेना पड़े, मतलब दीर्घायु बनो। 

क्यों नाम पड़ा हरेला?

      रेला मतलब हरियाली। इस पर्व से नौ दिन पहले 'सतनज' यानि सात अनाज को मिलाकर घर में हरियाली उगायी जाती है। पांच अनाजों का भी उपयोग किया जा सकता है। रिंगाल की टोकरी या मिट्टी के बर्तन में मिट्टी डालकर उसमें गेंहू, जौ, उड़द, भट्ट, सरसौं, मक्का, गहथ तिल आ​दि के बीज डाले जाते हैं। इसे हर दिन सींचा जाता है और सांकेतिक तौर पर इसकी गुड़ाई की जाती है। दसवें दिन परिवार का मुखिया या ब्राहमण मंत्रोच्चार के साथ हरेला काटता है। इसे पतीसणा कहते हैं। घर की सबसे बुजुर्ग महिला परिजनों को तिलक, चंदन के साथ हरेला लगाती है। इसे पैरों, घुटने, कंधों और सिर में रखा जाता है। इसे कानों में भी लगाया जाता है। इसके बाद ही अमूमन महिलाएं '' जी रया, जागि रया ....'' का आशीर्वाद देती हैं। हरेला को अपने परिवार तक ही सीमित नहीं रखा जाता है बल्कि इसे अड़ोस पड़ोस में भी बांटा जाता है। हरेला सामूहिक रूप से गांवों के मंदिरों में भी उगाया जाता है जहां पर पूजा का काम पुजारी करता है। परिवार को कोई सदस्य यदि घर से बाहर हो तो उसके लिये लिफाफे में रखकर हरेला भेजा जाता है। इस बार श्रावण मास का हरेला कल यानि 17 जुलाई को था।  हरेला के दिन कई तरह के पकवान भी पकाये जाते हैं जिसमें उड़द की पकोड़ियां यानि भूड़ा, स्वाले आदि प्रमुख हैं।


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