और इस साल मैंने भी अपनी भाभीजी पर टीका लगाकर यह परंपरा निभायी। |
वरिष्ठ मीडियाकर्मी सुश्री क्षिप्रा पांडे शर्मा ने होली के एक दिन बाद अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट डाली, ''कुँमाऊं का त्यौहार, होली का टीका, जिसमेंं साली-जीजा का, देवर-भाभी का टीका करते हैं। मुबारक हो मेरे देवरों को। साली-जीजा टचवुड।'' मैंने पहली बार इस तरह के त्योहार या परंपरा के बारे में सुना था इसलिए जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक थी। इसलिए सबसे पहले सुश्री क्षिप्रा से ही इस पर विस्तार से बताने का आग्रह किया और फिर कुमांऊ के अपने मित्रों और कुमांउनी संस्कृति की गहरी जानकारी रखने वाले विशेषज्ञों से भी बात की। निष्कर्ष यह निकला कि कुमांऊ के कुछ क्षेत्रों में इस तरह की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। देश के कई क्षेत्रों में होली के एक दिन बाद भैया दूज का त्योहार का मनाया जाता है। बृज में भी परंपरा सदियों से चली आ रही है। कुमांऊ की होली में बृज का ही पुट है और यह माना जा सकता है कि वहीं से कुमांऊ में होली के एक दिन बाद टीका लगाने की परंपरा भी शुरू हुई होगी। यह अलग बात है कि यहां कुछ जगहों पर इस स्वरूप बदल गया। देश में कुछ स्थानों पर भैया दूज साल में दो बार मनायी जाती है। पहली होली के तुरंत बाद और दूसरी दीवाली के बाद जो अधिक प्रचलित है।
सुश्री क्षिप्रा पांडे शर्मा के अनुसार होली पर यह सारे गिले शिकवे दूर करने का स्वाभाविक तरीका है। उनके शब्दों में, ''ददा, प्रामाणिकता के साथ तो नहींं कह सकती, पर होली की समाप्ति नोंक -झोंक वाले रिश्ते की प्रगाढ़ता परिलक्षित करता है। सारे गिले-शिकवे दूर। मेरी बहन हर साल अपने जीजा जी को टीका करने जरूर आती है और मेरे चाचा लोग मम्मी को। ..... मैंने अपनी मम्मी से पूछा था और उन्होंने बताया कि जिन लोगों के साथ होली खेली जाती है उनसे ही टीका किया जाता है।''
होली में अक्सर देवर—भाभी, जीजा—साली के बीच रंग गुलाल का खेल चलता है। इसमें किसी के रूठने की संभावना भी बनी रहती है और संभवत: इसलिए होली के एक दिन बाद टीका लगाने की परंपरा शुरू हो गयी। कुमांऊ में होली को लेकर एक गीत भी गाया जाता है, ''देवर संग भाभी खेले, जीजा के संग साली। कांव कांव कौआ बोले, होली है भई होली।। ''
कुमांउनी संस्कृति का गूढ़ ज्ञान रखने वाले श्री उदय टमटा ने कहा कि पहले होली के एक दिन बाद टीका के अलावा बलि प्रथा का भी प्रचलन था। मैंने विशेष तौर पर उनसे टीका लगाने के संबंध में बात की तो उन्होंने बताया, ''यह आपसी मेल मिलाप और संबंधों को सौहार्द बनाये रखने की ही एक पुरानी परंपरा है। बहुत पहले जानवरों की बलि भी दी जाती थी लेकिन अब परंपरा समाप्त हो चुकी है। अब आपस में टीका लगाते हैं और यह हर घर में होता है। ''
कुमांउनी संस्कृति के जानकार तथा वरिष्ठ पत्रकार श्री विवेक जोशी और श्री शंकर सिंह ने बताया कि यह सिर्फ जीजा—साली या देवर—भाभी तक सीमित नहीं है बल्कि परिवार और अड़ोस पड़ोस में सभी का टीका किया जाता है।
मैं गढ़वाल में पला बढ़ा हूं और मैंने यह ऐसी कोई परंपरा अपने क्षेत्र में नहीं देखी। यहां तक कि हमारे यहां रक्षाबंधन का त्योहार बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन भैया दूज नहीं। फिर भी मैंने वरिष्ठ साहित्यकार, इतिहासकार और लेखक श्री भीष्म कुकरेती से इस बारे में जानकारी चाही तो उन्होंने बताया कि गढ़वाल क्षेत्र में होली के दिन ही टीका लगाने का प्रचलन है। उसके बाद किसी तरह का टीका नहीं लगाया जाता है।
वैसे यह अच्छी परंपरा है और इस तरह की सौहार्द और एकजुटता का संदेश देने वाली परंपराओं को आगे बढ़ाने और उन्हें संरक्षण देने की जरूरत है। इसके साथ ही मेरा आग्रह है कि अगर आप इस परंपरा के बारे में अधिक जानकारी रखते हैं तो कृपया जरूर साझा करें। आपका धर्मेन्द्र पंत
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