मंगलवार, 22 मई 2018

उत्तराखंड के जंगलों में आग : कारण और बचाव


    गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की खबरें भी आने लगी हैं। श्रीनगर के आसपास के जंगल पिछले कुछ दिनों से आग से धधक रहे हैं। ठोस सरकारी नीति के अभाव में यह लगभग हर साल का किस्सा बन गया है। उत्तराखंड के जंगलों में 1992, 1997, 2004, 2012 और 2016 में लगी आग को भला कौन भुला सकता है। वर्ष 2016 में लगी आग भीषण थी। तब आग ने इतना विकराल रूप ले लिया है कि पहली बार आग बुझाने के लिए वायु सेना, थल सेना और एनडीआरएफ़ तक को लगाना पड़ा था।
      जंगल में लगी आग से पूरा पारिस्थतिकीय तंत्र गड़बड़ा जाता है लेकिन फिर भी हर साल या तो आग लग जाती है या उसे लगा दिया जाता है। सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि उत्तराखंड के जंगलों में हर साल गर्मियों में आग क्यों लगती है। 
      उत्तराखंड में चीड़ के जंगल बहुतायत में हैं जो कि आग लगने का मुख्य कारण हैं। चीड़ की सूखी पत्तियां यानि पिरूळ न सिर्फ आग तेजी से पकड़ता है बल्कि उसे फैलाने में भी अहम भूमिका निभाता है। मार्च से जून तक चीड़ की ये नुकीली पत्तियां नीचे गिर जाती हैं। भारतीय वन संस्थान के अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्र में फैले चीड़ के जंगल से एक साल में लगभग छह टन पिरूळ ​गिरता है। सड़कों में गिरा पिरूळ और उससे बना बुरादा असल में बारूद के ढेर जैसा होता है। गलती से भी इसमें तीली या जली बीड़ी पड़ जाए तो फिर आग पकड़ने में देर नहीं लगती है। 




        त्तराखंड में कभी बांज, देवदार, काफळ, बुरांश आदि के अधिक पेड़ थे। बांज, बुरांश की पत्तियां पशुओं के चारे के काम भी आती हैं और इनकी जड़ों में पानी रोकने की भी क्षमता होती है जबकि चीड़ के पेड़ की प्रकृति इसके ठीक विपरीत है। देवदार, बांज, बुरांश ​आदि को इमारती लकड़ी के लिये काटा गया और अंग्रेजों ने लीसा के लोभ में चीड़ के पेड़ों को बढ़ावा दिया। अब आलम यह है कि उत्तराखंड में जहां भी नजर दौड़ाओ चीड़ के पेड़ नजर आते हैं जो न जंगल के लिये लाभकारी हैं और ना ही आम आदमी के लिये। चीड़ के पेड़ और सख्त वन्य कानूनों ने स्थानीय निवासियों की वनों से दूरी भी बढ़ा दी। जिन वनों को वे अपना समझते थे वे उनके लिये पराये हो गये। 
       पिरूळ अपने नीचे किसी अन्य वनस्पति को नहीं पनपने देता है इसलिए पशुओं के लिये भी जंगल बेमतलब के हो गये। स्थानीय निवासी भी पिरूळ को पसंद नहीं करते और कई बार वे इसमें आग लगा देते हैं। जंगलों में आग लगने की अधिकतर घटनाएं इंसानों की वजह से होती हैं जैसे आगजनी, कैम्पफ़ायर, बिना बुझी सिगरेट या बीड़ी फेंकना, जलता हुआ कचरा छोड़ना आदि। 
       इस आग से बचा जा सकता है कि लेकिन अब भी उत्तराखंड में इसके लिये कोई मास्टर प्लान नहीं है। सबसे पहले तो चीड़ के जंगलों को बढ़ने से रोकना होगा तथा स्थानीय निवासियों को बांज, बुरांश आदि के पेड़ लगाने के लिये उत्साहित करना होगा। जैसा हमने पहले आपको बताया कि पिरूळ आग लगने और उसे फैलाने का मुख्य कारक है। उत्तराखंड में अगर आग के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2014 में 384.5 हेक्टेयर व 2015 में 930.55 हेक्टेयर क्षेत्र में आग लगी थी जो कि वर्ष 2016 में 4,423.35 हेक्टेयर तक पहुंच गयी। इस आग से करोड़ों रूपये का नुकसान हुआ। बेहतर यही है कि बाद में नुकसान उठाने के बजाय सरकार इस रूपये का पहले सदुपयोग करे। पिरूळ से खाद बनाने व्यवस्था की जा रही है लेकिन इसे व्यापक स्तर पर चलाया जाना चाहिए। पिरूळ इकट्ठा करके उससे खाद तैयार करने में स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा। आग बुझाने के लिये केवल दमकलकर्मियों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। स्थानीय लोग अपनी तरफ से प्रयास करते हैं लेकिन सरकार को उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इसको रोजगार का रूप दिया जा सकता है। यही नहीं लीसा माफिया के खिलाफ भी सरकार को सख्त कदम उठाने होंगे जो अपनी चोरी छिपाने के लिये जंगलों में आग लगा देते हैं।
धर्मेन्द्र पंत 

बुधवार, 9 मई 2018

हाँ,हाँ वी खाडू छौं मी

       गर्मियां शुरू हो गयी हैं। यह वह समय है ​जबकि दिल्ली, देहरादून या अन्य शहरों में बस चुके उत्तराखंडी कुछ दिनों के लिये अपने गांवों की सुध लेते हैं। कुछ दिनों के लिये ही सही गांव थोड़ा आबाद लगते हैं। इनमें से अधिकतर पूजा पाठ के लिये गांव आते हैं। साल भर में कई सिरयौण यानि मन्नतें की होती हैं। हम पहाड़ी इनको पूरा करने का इसे सही समय मानते हैं क्योंकि स्कूलों की छुट्टियां होती हैं। कुछ लोगों की सिरयौण में भेड़—बकरे की बलि भी शामिल होती है। शिक्षा के प्रसार और जागरूकता बढ़ने के बाद इसमें कमी आयी है लेकिन अब भी बलि प्रथा चलन में है। श्री केशव डुबर्याळ "मैती" की यह कविता बलि प्रथा पर तीखा कटाक्ष है। उम्मीद है कि आप सभी इस कविता का मर्म समझेंगे।


हाँ,हाँ वी खाडू छौं मी

केशव डुबर्याळ "मैती"


जै थै तू अपणा द्यब्ता थैं ढूंढ़णु छै,
सुण ले मनखी मेरी दुनिया उजाड़ी,
तेरु भल्लू हूंद त खूब करी,
पर एक बार ज्यूंदाळ् डाळदी बगति,
अपणा मुख जने भी हेरी। 

द्यब्ता ही खुश कनि तिन त मेरी ही बलि किले,
पर कीला फरें पाल्युं रौं,नि सकदु कुछ कैरी,
हे कच्ब्वाली का कचोर करदरा,
ल्वेबली का लब्लाट करदरा,
सुण ले मनखी,
गिचन नि बोल सकदु,
तेरी आत्मा झकजोर सकदु। 

अगर तू मनखी होलु,
तोड़ ये अन्धविश्वास,
छोड़ मेरी ज्युडी,
हम दगडी भी,
बिश्वास की डोर बांधी दे,
बिश्वास की डोर बांधी दे। 

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

स्वास्थ्य के लिये सर्वोत्तम है पंदेरा का पानी

      
        पंदेरा....यानि का पानी का प्राकृतिक स्रोत। उत्तराखंड में हर गांव ऐसे स्थान पर बसा है जहां पर पानी का प्राकृतिक स्रोत यानि पंदेरा हो। यह अलग बात है कि समय के साथ कई स्थानों पर पानी के ये प्राकृतिक स्रोत सूख गये हैं या उनमें बहुत कम पानी आने लगा है। इसका एक कारण वनों का कटाव भी है। पंदेरा, पंद्यर, पनेरा, पंदेरू या पंद्यारू कभी गांव की महिलाओं का मिलन स्थल हुआ करता था। घर की घटनाओं और मन की बात का गवाह होता था पंदेरा। गर्मियों में ठंडा शीतल जल और सर्दियों में गुनगुना पानी देता है पंदेरा। आपने गढ़वाल की आवाज महान गायक नरेंद्र सिंह नेगी का गीत सुना होगा, ''छुयुं मा मिसे गिन पंदेरों में पंदेरी .....''। सरकारों ने पिछले कई वर्षों से गांव गांव में पानी पहुंचाने की भी कोशिश की।  घरों के आसपास नल लगे लेकिन पंदेरा की फिर भी बादशाहत बनी रही। पलायन ने जरूर उसे अपनी सखी सहेलियों से बहुत दूर कर दिया। जिस पंदेरा में कभी भीड़ लगी रहती थी, जहां लोग अपनी बारी का इंतजार करते थे आज वहां सन्नाटा छाया रहता है। 
      पंदेरा हमारे पहाड़ी गांवों को जीवनदायिनी जल ही नहीं देता है बल्कि जब स्वास्थ्यप्रद पेयजल की बात आती तो पहाड़ी पंदेरा या पहाड़ के प्राकृतिक स्रोतों का पानी सर्वश्रेष्ठ विकल्प माना जाता है। दुनिया के अधिकतर लोगों को यह पानी नसीब नहीं होता लेकिन कि हम पहाड़ी उसी पानी को दुत्कार रहे हैं। सामने झरना बह रहा है लेकिन हमें बोतलबंद पानी पीने का शौक चर्राया है। पहाड़ों में बोतलबंद पानी .... यह सुनकर ही अजीब लगता है। मेरी तो आपको यही राय है कि बोतलबंद पानी फेंकिये और पंदेरा का पानी पीजिए। यह आपके तन और मन में नयी ऊर्जा भरेगा जो बोतलबंद पानी कभी नहीं कर सकता।




    पंदेरा के पानी के कई प्राकृतिक लाभ हैं। इसे 'लिविंग वाटर' यानि 'क्रियाशील जल' कहा जाता है। क्रियाशील इसलिए क्योंकि यह मानव शरीर के लिये जरूरी महत्वपूर्ण ऊर्जा से भरा होता है। इसलिए जब आप पंदेरा का पानी पीते हो तो यह आपके शरीर में ऊर्जा भरता है। बहने वाला पानी क्रियाशील जल होता है लेकिन जो तुरंत स्रोत से निकला हो वह पानी गुणों से भरपूर माना जाता है जो कई  वर्षों से भूमिगत जल के रूप में जमा रहता है। इसमें खनिज लवण पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। यह बेहद स्वच्छ, स्वास्थ्यवर्धक और प्रदूषकों से मुक्त होता है। पंदेरा के पानी का स्वाद अद्भुत होता है जिसका किसी अन्य तरह के पानी से तुलना ही नहीं की जा सकती है। विश्व की अधिकतर नदियां पहाड़ों से निकलती हैं लेकिन आगे बढ़ने के साथ इनमें कई प्रदूषक तत्व मिल जाते हैं। प्राकृतिक जल स्रोत से निकला पानी बोतल में बंद मिनरल वाटर और नल के पानी से कई गुणा उपयोगी होता है। 
     पंदेरा में पानी में प्राकृतिक खनिजों का बहुत अच्छा संयोजन होता है जैसे मैग्निसियम, कैल्सियम, पोटेशियम और सोडियम जो आपके स्वास्थ्य के लिये बेहद जरूरी होते हैं। कई कंपनियां इसका फायदा उठाकर प्राकृतिक स्रोतों का पानी बेच रही हैं लेकिन कई दिनों तक बोतल में बंद रखने के लिये उसमें कुछ रसायन मिलाये जाते हैं जिससे इसके कई मूल गुण समाप्त हो जाते हैं। 
    पंदेरा का पानी पीने से आप तरोताजा महसूस करते हैं, लेकिन इसके कई अन्य फायदे भी हैं। कई अध्ययनों से पता चला है कि पहाड़ी प्राकृतिक जल स्रोतों का पानी किसी व्यक्ति के वजन को उसके शरीर के अनुसार बनाये रखने में अहम भूमिका निभाता है। अगर आपको अपना वजन बढ़ाना है या घटाना है तो फिर प्राकृतिक जल स्रोतों का शुद्ध पानी पीजिये और कुछ दिनों में आपको फर्क नजर आने लगेगा। पंदेरा का पानी पीने से आपकी त्वचा भी चमकदार बनती है। मैं जब पहाड़ में अपने गांव जाता हूं तो अद्भुत तरीके से मेरी पाचन शक्ति बढ़ जाती है और भूख लगती है। असल में यह वहां के पानी का कमाल है। अध्ययनों से पता चला है कि प्राकृतिक  स्रोतों का पानी आपकी पाचन शक्ति और मेटाबोलिज्म यानि उपापचय को बढ़ाता है। यह पोषक तत्वों को पचाने में मदद करता है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि प्राकृतिक स्रोतों का पानी जोड़ों और मांसपेशियों के दर्द को कम करने में मददगार होता है। यह रक्तसंचार को सुधारने में योगदान देता है। पंदेरा का पानी शरीर में मौजूद विषैले तत्वों बाहर निकालने यानि डिटॉक्सीफिकेशन में प्राकृतिक रूप से मदद करता है।
     अब आपको पता चल गया होगा कि गुणों की खान है पंदेरा का पानी। पहाड़ियों के स्वस्थ रहने का राज है पंदेरा का पानी। इसलिए पहाड़ में केवल पंदेरा या प्राकृतिक जल स्रोतों का ही पानी पीना। 
    तो कैसे लगी आपको पंदेरा के पानी की यह कहानी अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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बुधवार, 28 मार्च 2018

उत्तराखंड की शादियों का अहम अंग है 'बान'


     क्या आपने कभी सोचा है कि उत्तराखंड की शादियों में 'बान' क्यों दिये जाते हैं? यह हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति ​का हिस्सा है जो वर्षों से उत्तराखंड की शादियों का अहम अंग बना हुआ। इसके बिना शादी की रस्म पूरी होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। बान या बाना यानि हल्दी हाथ की रस्म लड़की के साथ लड़के को भी निभानी पड़ती है।  उत्तराखंड में परंपरागत ढोल दमौ और मसकबीन की धुन के बीच बान दिये जाते हैं और  स्नान कराया जाता है।
         बान क्यों दिये जाते हैं? इसका सामाजिक, सांस्कृतिक, पारंप​रिक पहलू हो सकता है लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक सत्य भी छिपा हुआ है। इस पर हम आगे बात करेंगे। पहले आपका परिचय बान से करवा देता हूं। 'बान' बारात जाने से पहले की रस्म है जो दूल्हा और दुल्हन दोनों के घरों में लगभग एक समय में निभायी जाती है। इसमें हल्दी, सुमैया, कच्चुर, चंदन आदि को कूटकर मिश्रण बनाया जाता है। इसे फिर सात पुड़ियों में रखा जाता है जिनमें दूब को डुबाकर उसे दूल्हा या दुल्हन के पांव से लेकर सिर तक यानि पांव, घुटना, हाथ, कंधा और सिर को स्पर्श करके अपने सिर पर रखना होता है। ऐसा पांच या सात बार करना होता है। घर के सदस्य, रिश्तेदार आदि 'बान' देते हैं।


      आचार्य चंद्रप्रकाश थपलियाल ने बान के बारे में बताया, “ बाना (बान) में मुख्य रूप से कच्ची हल्दी, दही, सरसों का तेल, जिराळु, सुमैया, चंदन, दूब का उपयोग किया जाता है। जिस तरह से सात फेरे और सात बचन होते हैं उसी तरह से बाना भी सात ही दिये जाते हैं। यह अलग बात है कि आजकल केवल फोटो खिंचवाने के लिये बाना दिये जा रहे हैं और इसलिए एक, तीन या पांच बार ही बाना देने का रिवाज शुरू हो गया है।’’
       'बान' अमूमन ओखली के पास दिये जाते हैं। दूल्हा या दुल्हन को चौकी (चौक या चौकली) पर बिठाया जाता है। पांच कन्यायें ओखली में सभी चीजों को कूटती हैं। इसके बाद दूल्हा या दुल्हन उसे तांबे की थाली या परात में रखी पुड़ियों में रखते हैं। सबसे पहले पंडित जी बान देते हैं। उसके बाद पांचों कन्यायें तथा बाद में मां—पिताजी, घर के अन्य सदस्य, रिश्तेदार और गांव वाले।  बान देते समय गांव की कुछ महिलाएं मंगल गान भी करती हैं। गढ़वाल और कुमांऊ में अलग अलग मंगल गान का प्रचलन है। जैसे 'दे द्यावा ब्रह्मा जी हल्दी को बान' या 'उमटण दइए मइए मैल छूटाइय'। जब दुल्हन को बान दिये जाते हैं तो माहौल थोड़ा गमगीन होता है। स्वाभाविक है बेटी की बिदाई का गम सभी को सालता है। इस बीच हालांकि जीजा—साली, देवर—भाभी आदि के बीच खूब हंसी ठिठोली भी चलती है। एक दूसरे पर हल्दी लगाकर मजाक किया जाता है।
       अब वही सवाल कि आखिर बान क्यों दिये जाते हैं? माना जाता है कि बान नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने, ग्रह और नजर दोष के निवारण के लिये दिये जाते हैं। हल्दी शुभ होती है और हल्दी से शुभकार्य की शुरुआत करना अच्छा माना जाता है।
        हल्दी हाथ यानि बान का वैज्ञानिक पहलू भी है। आयुर्वेद में हल्दी को औषधि का दर्जा दिया गया है। इस कारण हल्दी हमारी त्वचा के लिए एक तरह से प्राकृतिक का वरदान के समान है। हल्दी के लगाने से त्वचा संबंधी अनेक बीमारियां से छुटकारा पाया जाता है।
       हल्दी का लेप शरीर की कोशिकीय संरचना को इस तरह से फैलाता है, कि इसके हर दरार और छिद्र में ऊर्जा भर सके। हल्दी इस काम में भौतिक रूप से मदद करती है। हल्दी प्राकृतिक एंटी-बायटिक होती है। हल्दी का स्नान दूल्हा और दुल्हन को तमाम रोगों से बचाने में सहायक होता है। इससे त्वचा में भी निखार आता है।
       शादी के समय घर में कई तरह के मेहमान आते हैं जिससे नकारात्मक ऊर्जा फैलने की आशंका रहती है। इसका दूल्हा या दुल्हन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। हल्दी के बारे में कहा जाता है कि वह घर में और दूल्हे या दुल्हन के अंदर नकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करने से रोकती है। हल्दी नकारात्मक ऊर्जा नष्ट करके सकारात्मक ऊर्जा का सृजन करने में सहायक होती है।
       यह थी बान की कहानी। आपको कैसी लगी जरूर बताईये और 'घसेरी' के वीडियो चैनल को भी जरूर सब्सक्राइब करिये। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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मंगलवार, 20 मार्च 2018

यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि इसमें जल्दी आ

चित्र साभार : राजीव विश्वकर्मा 
       उत्तराखंड वर्तमान समय में पलायन की सबसे भीषण मार झेल रहा है लेकिन इसकी शुरुआत कई दशक पहले हो गयी थी जब पहाड़ के युवा ने आजीविका की खातिर मैदानों की तरफ कदम बढ़ाये थे। इसके बाद शहरों का आकर्षण बढ़ता गया तथा उत्तराखंड के युवा देहरादून, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई आदि शहरों में नौकरी करने लगे। सेना में नौकरी तब भी और आज भी एक आकर्षण था। सेना से सेवानिवृत होने के बाद मैदानी भागों विशेषकर देहरादून, कोटद्वार, बरेली आदि शहरों में बसने की प्रवृति भी बढ़ी। पहले केवल युवा नौकरी के लिये पलायन करते थे लेकिन बाद में उनके साथ परिवार के अन्य सदस्य भी शहरों की तरफ कूच करने लग गये। परिणाम गांव खाली होने लगे और आज स्थिति​ यह बन चुकी है कि उत्तराखंड के कई गांव महज कागजों में सिमट गये हैं। 
         उत्तराखंड का गठन नौ नवंबर 2000 को हुआ। उम्मीद थी कि पहाड़ की जवानी और पानी थामने के जिस वादे के साथ उत्तराखंड बना था वह पूरा होगा लेकिन हुआ इसका उलटा। इसके बाद पलायन तेजी से बढ़ा। कहते हैं कि 'जहां न जाए रवि, वहां पहुंचे कवि'। गढ़वाली और हिन्दी के कवि श्री जितेंद्र मोहन पंत ने अपनी युवावस्था में ही उत्तराखंड से हो रहे पलायन को भांप लिया था। पलायन पर उन्होंने 1980 में यह कविता लिखी थी जो आज भी प्रासंगिक है। उम्मीद है कि 'घसेरी' के पाठक इसका मर्म समझेंगे। 

                 यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि इसमें जल्दी आ 

            (उत्तराखंड से हो रहे पलायन पर अस्सी के दशक में लिखी गयी लंबी कविता)


                                             .... जितेंद्र मोहन पंत 

      (1)
रे पंछी तू किधर तड़पता इस उपवन के। 
तू तो तड़पाता है सबको, दरश न देके।।
अन्य सभी प्राणी उपवन में हैं तेरे संग के।
तू कहां भिन्न है सबसे, किस रंग में रंग के।। 
रे पंछी .......

आ जल्दी से दे दर्श इन्हें ना किसी से डर के। 
तू नहीं मिला तो ये भी रह जाएंगे मरके।। 
जगा मोह को मन में लाकर मोहक बनके। 
मन में बसे हैं तेरे तो आ मनवर मन के।। 
रे पंछी .......

ना विदेश को पग धर, आ घर को मुड़के।
बैठ घोंसले में आकर तीव्र गति से उड़ के।। 
मिल इन सबसे, सभी राह कंटक दमन के। 
हो हर्षित, ला खुशियों के दिन इस चमन के।। 
रे पंछी.........

कहां किनारे पड़ा हुआ है किस सिन्ध के। 
स्वच्छंद विचरण करता था अब कहां है बंधके।। 
किस पिंजड़ें में पड़ा हुआ है, स्वच्छंद वन के।
रे पंछी तू किधर तड़पता इस उपवन के।। 
   (2)
तेरा उपवन सूख गया है, इसे सींच दे। 
सूखे तरुओं में नीर बहा, नव—प्राण खींच दे।। 
बिन तेरे, ना रही तरू तृणों में हरियाली। 
इन्हें हरित कर आ दौड़कर वन के माली।। 
इन तरुओं को और जीर्ण हड्डी न बना दे।
गिने चुने ना बना इन्हें, तू बना घना दे।। 
सूखी तृणों को अब न बना, बना हरी घास दे।
दूर भगा पतझड़ को, अब ला मधुमास दे।। 
इनमें हरियाली कर निर्मित नव पत्रों को। 
कलियों को दे जन्म, बना इनसे कुसुमों को।। 

       (3)
ना अधिक सताओ अब ना सहन करूंगा पीरा।
दर्शन दो भगवान मुझे, मैं दासी मीरा।। 
बन कृष्ण इस घर में फिर से रास रचा दो।
ये त्यागत संसार, अमृत दे इन्हें बचा दो।। 
मुझे शरण दो, शरणज शिवि तुम बन जाओ। 
जगा मोह को मन में एक मोहक बन जाओ।। 
अब तो मैंने मन हृदय में रखा था धीरा। 
तुम बिन सभी भये हैं दुर्बल शरीरा।। 

   (4)
एक उपवन में हम सबका है एक बसेरा।
इस से हुआ शुरू है हम सबका ही सवेरा।। 
जननी, जन्मभूमि आदि से दूर क्यों भागा।
इन सबका मिलता था प्यार, क्यों इसको त्यागा।। 
यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि, इसमें जल्दी आ।
मात—तात, भाई—बहन, सभी के संग आ।। 
मोह उत्पन्न कर फिर से, अब बन इन सबका।
दे इन्हें प्यार, ले इनसे प्यार जैसे पहले का।।



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