उत्तराखंड वर्तमान समय में पलायन की सबसे भीषण मार झेल रहा है लेकिन इसकी शुरुआत कई दशक पहले हो गयी थी जब पहाड़ के युवा ने आजीविका की खातिर मैदानों की तरफ कदम बढ़ाये थे। इसके बाद शहरों का आकर्षण बढ़ता गया तथा उत्तराखंड के युवा देहरादून, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई आदि शहरों में नौकरी करने लगे। सेना में नौकरी तब भी और आज भी एक आकर्षण था। सेना से सेवानिवृत होने के बाद मैदानी भागों विशेषकर देहरादून, कोटद्वार, बरेली आदि शहरों में बसने की प्रवृति भी बढ़ी। पहले केवल युवा नौकरी के लिये पलायन करते थे लेकिन बाद में उनके साथ परिवार के अन्य सदस्य भी शहरों की तरफ कूच करने लग गये। परिणाम गांव खाली होने लगे और आज स्थिति यह बन चुकी है कि उत्तराखंड के कई गांव महज कागजों में सिमट गये हैं।
उत्तराखंड का गठन नौ नवंबर 2000 को हुआ। उम्मीद थी कि पहाड़ की जवानी और पानी थामने के जिस वादे के साथ उत्तराखंड बना था वह पूरा होगा लेकिन हुआ इसका उलटा। इसके बाद पलायन तेजी से बढ़ा। कहते हैं कि 'जहां न जाए रवि, वहां पहुंचे कवि'। गढ़वाली और हिन्दी के कवि श्री जितेंद्र मोहन पंत ने अपनी युवावस्था में ही उत्तराखंड से हो रहे पलायन को भांप लिया था। पलायन पर उन्होंने 1980 में यह कविता लिखी थी जो आज भी प्रासंगिक है। उम्मीद है कि 'घसेरी' के पाठक इसका मर्म समझेंगे।
यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि इसमें जल्दी आ
(उत्तराखंड से हो रहे पलायन पर अस्सी के दशक में लिखी गयी लंबी कविता)
.... जितेंद्र मोहन पंत
(1)
रे पंछी तू किधर तड़पता इस उपवन के।
तू तो तड़पाता है सबको, दरश न देके।।
अन्य सभी प्राणी उपवन में हैं तेरे संग के।
तू कहां भिन्न है सबसे, किस रंग में रंग के।।
रे पंछी .......
आ जल्दी से दे दर्श इन्हें ना किसी से डर के।
तू नहीं मिला तो ये भी रह जाएंगे मरके।।
जगा मोह को मन में लाकर मोहक बनके।
मन में बसे हैं तेरे तो आ मनवर मन के।।
रे पंछी .......
ना विदेश को पग धर, आ घर को मुड़के।
बैठ घोंसले में आकर तीव्र गति से उड़ के।।
मिल इन सबसे, सभी राह कंटक दमन के।
हो हर्षित, ला खुशियों के दिन इस चमन के।।
रे पंछी.........
कहां किनारे पड़ा हुआ है किस सिन्ध के।
स्वच्छंद विचरण करता था अब कहां है बंधके।।
किस पिंजड़ें में पड़ा हुआ है, स्वच्छंद वन के।
रे पंछी तू किधर तड़पता इस उपवन के।।
(2)
तेरा उपवन सूख गया है, इसे सींच दे।
सूखे तरुओं में नीर बहा, नव—प्राण खींच दे।।
बिन तेरे, ना रही तरू तृणों में हरियाली।
इन्हें हरित कर आ दौड़कर वन के माली।।
इन तरुओं को और जीर्ण हड्डी न बना दे।
गिने चुने ना बना इन्हें, तू बना घना दे।।
सूखी तृणों को अब न बना, बना हरी घास दे।
दूर भगा पतझड़ को, अब ला मधुमास दे।।
इनमें हरियाली कर निर्मित नव पत्रों को।
कलियों को दे जन्म, बना इनसे कुसुमों को।।
(3)
ना अधिक सताओ अब ना सहन करूंगा पीरा।
दर्शन दो भगवान मुझे, मैं दासी मीरा।।
बन कृष्ण इस घर में फिर से रास रचा दो।
ये त्यागत संसार, अमृत दे इन्हें बचा दो।।
मुझे शरण दो, शरणज शिवि तुम बन जाओ।
जगा मोह को मन में एक मोहक बन जाओ।।
अब तो मैंने मन हृदय में रखा था धीरा।
तुम बिन सभी भये हैं दुर्बल शरीरा।।
(4)
एक उपवन में हम सबका है एक बसेरा।
इस से हुआ शुरू है हम सबका ही सवेरा।।
जननी, जन्मभूमि आदि से दूर क्यों भागा।
इन सबका मिलता था प्यार, क्यों इसको त्यागा।।
यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि, इसमें जल्दी आ।
मात—तात, भाई—बहन, सभी के संग आ।।
मोह उत्पन्न कर फिर से, अब बन इन सबका।
दे इन्हें प्यार, ले इनसे प्यार जैसे पहले का।।
श्री जितेंद्र मोहन पंत की कविताओं के लिये कृपया इस लिंक कविता कोश पर क्लिक करें।
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