गर्मियां शुरू हो गयी हैं। यह वह समय है जबकि दिल्ली, देहरादून या अन्य शहरों में बस चुके उत्तराखंडी कुछ दिनों के लिये अपने गांवों की सुध लेते हैं। कुछ दिनों के लिये ही सही गांव थोड़ा आबाद लगते हैं। इनमें से अधिकतर पूजा पाठ के लिये गांव आते हैं। साल भर में कई सिरयौण यानि मन्नतें की होती हैं। हम पहाड़ी इनको पूरा करने का इसे सही समय मानते हैं क्योंकि स्कूलों की छुट्टियां होती हैं। कुछ लोगों की सिरयौण में भेड़—बकरे की बलि भी शामिल होती है। शिक्षा के प्रसार और जागरूकता बढ़ने के बाद इसमें कमी आयी है लेकिन अब भी बलि प्रथा चलन में है। श्री केशव डुबर्याळ "मैती" की यह कविता बलि प्रथा पर तीखा कटाक्ष है। उम्मीद है कि आप सभी इस कविता का मर्म समझेंगे।
हाँ,हाँ वी खाडू छौं मी
केशव डुबर्याळ "मैती"
जै थै तू अपणा द्यब्ता थैं ढूंढ़णु छै,
सुण ले मनखी मेरी दुनिया उजाड़ी,
तेरु भल्लू हूंद त खूब करी,
पर एक बार ज्यूंदाळ् डाळदी बगति,
अपणा मुख जने भी हेरी।
द्यब्ता ही खुश कनि तिन त मेरी ही बलि किले,
पर कीला फरें पाल्युं रौं,नि सकदु कुछ कैरी,
हे कच्ब्वाली का कचोर करदरा,
ल्वेबली का लब्लाट करदरा,
सुण ले मनखी,
गिचन नि बोल सकदु,
तेरी आत्मा झकजोर सकदु।
अगर तू मनखी होलु,
तोड़ ये अन्धविश्वास,
छोड़ मेरी ज्युडी,
हम दगडी भी,
बिश्वास की डोर बांधी दे,
बिश्वास की डोर बांधी दे।
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