गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

​मिलिये बूंखाल में बलि प्रथा बंद करवाने वाले पीताम्बर सिंह रावत से

       पौड़ी गढ़वाल के थैलीसैंण विकासखण्ड के राठ क्षेत्र का ऐतिहासिक बूंखाल कालिंका मेला एक समय पशु बलि प्रथा के लिये विख्यात था। मेले के दिन यहां पशुओं के खून नदियां बह जाती थी। अशिक्षा और अंधविश्वास के कारण वर्षों से यह प्रथा चली आ रही थी। आखिर में एक शख्स ने इस कुप्रथा को रोकने का बीड़ा उठाया। उनके प्रयासों से प्रशासन ने भी सक्रियता दिखायी। इसी का परिणाम है कि पिछले कुछ वर्षों से बूंखाल मेला बिना पशु बलि के शांति के साथ संपन्न होता है। गढ़वाल में पशु बलि प्रथा के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले इस शख्स का नाम है पीताम्बर सिंह रावत जो डुंगरीखाल गांव के रहने वाले हैं। दो साल पहले मैंने अपने ब्लॉग पर पशु बलि प्रथा के खिलाफ ''देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना'' शीर्षक से एक आलेख लिखा था जिसमें श्री पीताम्बर सिंह रावत के पत्र का भी जिक्र किया था जो उन्होंने जिलाधिकारी को लिखा था। अब श्री रावत ने बलि प्रथा को रोकने के लिये किये गये अपने प्रयासों और इस दौरान की चुनौतियों के बारे में 'घसेरी' को अपनी कहानी विस्तार से बतायी है। 

पीताम्बर सिंह रावत की बलि प्रथा के खिलाफ लड़ी गयी जंग की कहानी, उन्हीं की जुबानी


श्री पीताम्बर सिंह रावत, अपने नाती और नातिन के साथ। 
       न 1999 तक मेरी भी बलि प्रथा में काफी रुचि रहती थी और दो बार मैंने भी बूंखाल में बागी (भैंसा) और खाडु (मेंढ़ा) की बलि दी थी। इसी दौरान मैंने अपने भाइयों को बागी को मारते हुए देखा। बागी तड़प रहा था और मेरे दोनों भाई बारी बारी से उसकी गर्दन काट रहे थे। उस समय मैं काफी व्यथित हो गया। मैं अंदर से काफी पीड़ा महसूस कर रहा था। बस मैंने तुरंत ही बूंखाल मै बलि प्रथा रोकने का संकल्प ले लिया। यह काम कतई आसान नहीं था यह मैं अच्छी तरह से जानता था, क्योंकि बूंखाल में चोपड़ा गाँव के चक्करचोटया, गोदा गाँव के गोदियाल पुजारी और मलंड गाँव की भूमि इन तीनों गाँव के लोगों का कहना था कि जो भी बूंखाल में बलि प्रथा रोकने की कोशिश करेगा उसी समय उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। । यहां तक कि प्रशासन भी वहां कुछ नहीं कर पाता था। कालीमठ के गब्बर सिंह राणा को उन्होंने जान से मारने की धमकी थी। लगभग सारे सामाजिक कार्यकर्ता नाकाम रहे। उसके बाद मुंबई की डांडी कांठी संस्था से जुड़े लोगों ने भी प्रयास किये लेकिन वे भी कामयाब नहीं हो पाये। 
     मैंने भी संकल्प ले रखा था। मैं अकेले ही अपना संकल्प पूरा करने में लग गया। एकबारगी मैंने सोचा कि मैं अकेला हूं और अकेले इतना बड़ा काम करना मुश्किल है। इतना मैं समझ चुका था कि लोगों को समझाने और उनके साथ बहस करने से कोई फायदा नहीं हैं।  इसलिए पहले मैंने पहले खुद भगवान की शरण ली। मैं भगवान को ही अपना साथी मानने लग गया। चार साल बीत गए लेकिन इन चार वर्षों में मुझे अन्दर ही अन्दर रास्ता दिखायी दिया। फिर मैंने आठ मार्च 2005 को शिवरात्रि  के दिन महाराष्ट्र के चारोटी से पहली पैदल यात्रा शुरू  कर दी। यह यात्रा 16 मार्च 2005 मध्यप्रदेश के झाबुआ में सम्पन्न हुई। इस यात्रा में मुझे काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा लेकिन इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। मेरा हौसला दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। सन 2006 में मैंने श्राद्धीय नवरात्रि को आठ दिन की यात्रा की। यह यात्रा मेरी गुजरात के अंबा जी की थी इस यात्रा में मुझे कोई खास परेशानी नहीं हुई। सन 2007 में मैंने राजस्थान की यात्रा की। तीन दिन की इस यात्रा में मेरे साथ 36 घंटे तक पांच कुत्तों ने साथ दिया। इसके एक दिन के बाद हरिद्वार से बूंखाल तक की यात्रा मैंने 51 घन्टे में पूरी की। उसके बाद अपने गांव से माता जी की डोली लेकर बूंखाल गया। तब मेरे भाईयों के साथ—साथ सारे गाँव वालों ने मेरा साथ दिया। दो महीने के बाद मेला था और उस समय गांव में हमारे सगे संबंधियों ने बागी की बलि दी। मेरे भाईयों ने भी इस बलि का समर्थन किया। 
 बुखांल देवी मंदिर में बलि प्रथा रोकने के लिये
श्री पीताम्बर सिंह रावत का जिलाधिकारी को लिखा पत्र।
     न 2008 को श्राद्ध के समय मैं बूंखाल गया। मैंने सब्बल, कुदाल और तगारा लिया तथा तीन दिन में बलि कुंड को पत्थरों से बंद कर दिया। मजेदार बात यह है कि उन तीन दिनों में किसी को पता नही चल पाया कि बलि कुंड बंद हो गया चौथे दिन नवरात्र का पहला दिन था उस दिन मैंने खुद ही खुलासा कर दिया कि मैंने बलि कुंड बंद कर दिया है। इससे मेला समिति में खलबली मच गयी। उस समय उन लोगों के साथ मेरी काफी बहस हुई। जब मैंने उनसे कहा कि जब मैने बलि कुंड बंद करने में तीन दिन लगाये तो आप लोगों की चमत्कारी शक्तियां कहां गई थी? उन्होंने मुझे क्यों नहीं रोका? मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे साथ में कोई शक्ति थी जिसने तुम लोगों को अन्धा कर दिया था। जब मैंने यह बात कही तो माहौल कुछ शांत हुआ लेकिन नौवें दिन तक उन पर फिर से अंधविश्वासी शक्तियां हावी हो गयी और उन्होंने बलि कुंड को फिर से खाली कर दिया। मै भी यही चाहता था कि बलि कुंड को वही लोग खोलें। मैंने बचपन से ही वहां के बारे में कई कहानियां सुनी थी। एक कथा के अनुसार कुंड के अन्दर गोरखाओं ने काली मां को गाड़ के रखा है। (एक अन्य कहानी इस तरह से है कि पहले यहां स्थि​त मूर्ति तमाम तरह की बीमारियों और आपदाओं के बारे में ग्रामीणों को पूर्व में ही आगाह कर देती थी। जब 1791 में गोरखा आक्रमण के समय देवी ने आवाज देकर ग्रामीणों को आगाह किया। इसकी भनक गोरखाओं को लग गयी और उन्होंने देवी की मूर्ति का सिर काटकर उसके धड़ को उल्टा करके दफना दिया तथा देवी माँ का सिर वे अपने साथ ले गये, जिसकी पूजा आज भी पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल में होती है।)
    इसके एक साल बाद यानि सन 2009 में श्राद्ध के समय मैं केदारनाथ धाम गया। वहां मैंने बाबा केदारनाथ से आशीर्वाद लिया कि मैं बलि प्रथा रोकने के अपने प्रयासों में सफल रहूं। केदारनाथ से ही मैं सीधे श्रीनगर पहुंचा जहां मैंने एक गैंती ली और पैदल रास्ते चलकर खिर्सू, चौबट्टा होते हुए चोपड़ा गाँव पहुँचा। रात के करीब दस से ग्यारह बजे का समय था। मैं गोदा गांव से होकर गुजरा तो सभी सो चुके थे। मैं वहां से बूंखाल गया और मैंने बलि कुंड के अन्दर जाकर बलि बेदी को निकाला और फिर रात में ही उसे गंगा में विसर्जित कर दिया। बूंखाल मैं मैंने जो भी कार्य किये वो सब अमावस के दिन व रात को किए। इन सब कार्यों को करने के लिए मुझे कितने मुश्किलों का सामना करना पड़ा इसका अन्दाजा आप खुद लगा सकते हो। इसी दौरान मैंने विषम सामाजिक परिस्थितियों में अपनी बेटी की शादी भी की थी।

    पीताम्बर सिंह रावत 
    पता: गांव व पोस्ट डुंगरी खाल, 
    पट्टी बाली कंडारस्यूं  
    जिला पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड। 

        उत्तराखंड के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में योगदान देने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों से लोगों का परिचय कराने का यह 'घसेरी' का छोटा सा प्रयास है। ऐसे लोग जो निस्वार्थ भाव से अपना काम करते हैं और जिसका श्रेय उन्हें कभी नहीं मिल पाता। इसमें घसेरी के सभी पाठकों का सहयोग अपेक्षित है। आपका धर्मेन्द्र पंत 

Follow me @ Twitter @DMPant
© ghaseri.blogspot.in 

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

उत्तराखंड के आभूषण : गुलबंद से लेकर तगड़ी तक

उत्तराखंड की महिलाओं के कुछ विशेष आभूषण होते हैं जिनमें मांगटीका, गुलबंद, नथ या नथुली आदि प्रमुख हैं। 


      भारतीय महिलाओं का आकर्षण है आभूषण और यहां हर प्रांत और स्थान के अनुसार आभूषण भी बदल जाते हैं। मैं यहां पर उत्तराखंड की बात करूंगा जहां हर अंग के लिये कुछ खास आभूषण होते हैं। भारत के हर प्रांत की तरह उत्तराखंड में भी सोने और चांदी के ही आभूषण प्रचलित हैं। प्राचीन समय से चले आ रहे कई आभूषण अब कम प्रचलन में हैं तो कुछ जेवर ऐसे भी हैं जो फिर से पहाड़ी महिलाओं में अपनी जगह बना रहे हैं। 
    उत्तराखंड के आभूषणों पर चर्चा करने से पहले एक सवाल मन में उठा कि महिलाएं ही अधिक आभूषण क्यों पहनती हैं? इस बारे में कुमांऊ क्षेत्र के विद्वान डॉ. शेर सिंह पांगती ने अपनी किताब 'वास्तुकला के विविध आयाम' में लिखा है, ''आभूषणों का प्रारंभिक उपयोग मूल्यवान वस्तुओं जैसे सोना-चांदी के विभिन्न प्रकार के रत्नों को पारिवारिक आय की जमा पूंजी के रूप में सुरक्षित रखने के लिए शरीर में धारण करने से हुआ, ताकि इनके खो जाने अथवा चोरी हो जाने की संभावना न रहे। पहले घरों को सुरक्षित रखने के लिए ताले उपलब्ध नहीं थे और न बैंक व लॉकर की व्यवस्था थी। ऐसे में आभूषणों को शरीर पर धारण करके ही सुरक्षित रख पाना संभव था। परिवार की स्त्रियां घर से बाहर कम निकलती थी, इसलिए उनको उसका जिम्मा सौंपा गया। धीरे-धीरे अपनी संपत्ति व वैभव को समाज के समक्ष प्रदर्शन करने की परंपरा के चलते मूल्यवान धातुओं को सुंदर रूप देकर आभूषण के रूप में धारण करने का चलन हुआ।''
      उत्तराखंड में भी अधिकतर आभूषण महिलाओं से ही जुड़े हैं। उत्तराखंड के पुरूषों में एक समय कुंडल पहनने का प्रचलन था जिन्हें मुरकी या बुजनि कहा जाता है। अब भी कई क्षेत्रों में पुरूषों को मुरकी पहने हुए देखा जा सकता है। 'घसेरी' में यहां पर मुख्य रूप से महिलाओं से जुड़े आभूषणों का जिक्र किया गया है। 

सिर पर पहने जाने वाले आभूषण


शीशफूल : शीशफूल को महिलाएं जूड़े में पहनती हैं। 
मांगटीका : मांगटीका अपने नाम के अनुसार मांग में पहना जाता है। इसे अमूमन किसी त्योहार, देवकार्य, शादी या फिर किसी अन्य शुभकार्य के अवसर पर पहना जाता है।  इस तरह का एक अन्य जेवर होता है जिसे वाड़ी कहते हैं। 

नाक में पहने जाने वाले आभूषण 


नथ या नथुली : उत्तराखंड की महिलाओं को विशिष्ट पहचान दिलाती है नाक में पहने जाने वाली कुंदन जड़ी बड़ी नथ। इसके बिना उनका श्रृंगार अधूरा माना जाता है। इसे विशेष तरह की कारीगरी से तैयार किया जाता है। गढ़वाल में टिहरी नथ और छोटी नथ का प्रचलन है। इसे विवाहित महिलाएं पहनती हैं। 
बुलाक : उत्तराखंड विशेषकर गढ़वाल की महिलाएं नाक के बीच एक गहना पहनती हैं जिसे बुलाक कहते हैं। इसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार छोटा या लंबा बनवाया जाता है। कुछ बुलाक इतनी लंबी होती हैं कि वह ठुड्डी से भी नीचे तक पहुंच जाती हैं। इसे बेसर भी कहा जाता है। 
फु​ल्लि : नाक में पहने जाने वाली लौंग। यह असल में नथ का विकल्प है। नथ को हमेशा नहीं पहना जा सकता है इसलिए महिलाएं इसे उतारकर लौंग या फुल्लि पहनती हैं। यह काफी छोटे आकार की होती है और इसलिए इसे किसी भी समय आसानी से पहना जा सकता है।

कानों में पहने जाने वाले आभूषण 


मुर्खली : चांदी की बालियां जिन्हें महिलाएं कानों के ऊपरी हिस्से में पहनती हैं।      
बाली : सोने के बने कुंडल। 
कर्णफूल या झुमकी : झुमकी पहाड़ी महिलाओं का भी पारंपरिक आभूषण है। कर्णफूल भी इसी का एक रूप है। लंबी झूमकी जिसके बीच में नग लगे होते हैं। 

गले में पहने जाने वाले आभूषण 


गुलबंद या गुलोबंद : गुलुबंद, गुलबंद या गुलोबंद एक आकर्षक जेवर है जिसे सोने की डिजाइनदार टिकियों को पतले गद्देदार पट्टे पर सिलकर तैयार किया जाता है। गुलुबंद गढ़वाली, कुमांउनी, भोटिया और जौनसार की विवाहित महिलाओं का प्रमुख आभूषण रहा है। मंगनी यानि मांगड़ या सगाई के समय पहले गुलबंद पहनाने का ही प्रचलन था। (विस्तार से आगे दिया गया है)
हंसुळी या हांसुळी : चांदी का बना जेवर जो काफी वजनी होता है। इसे प्राचीन समय में अधिक पहना जाता है। महिलाओं के अलावा छोटे बच्चों को भी हंसुळी पहनायी जाती है लेकिन उसका वजन कम होता है। महिलाएं जिस हंसुळी को पहनती हैं उसका वजन तीन तोला तक होता है। 
चरेऊ : यह एक तरह से मंगलसूत्र का ही विकल्प है जिसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। सुहागिन महिला अपने गले में काले मनकों की माला पहनती हैं। इन्हीं मालाओं के बीच में सामर्थ्य के अनुसार चांदी या सोना लगाकर मंगलसूत्र तैयार किया जाता है। इसे  चरेनु भी कहा जाता है। 
तिमाण्यां : सोने के तीन मनकों से बना गले का आभूषण। 
 गले के अन्य आभूषणों कंठी, तिलहरी, चंद्रहार, हार, लाकेट आदि शामिल हैं।

हाथ में पहने जाने वाले आभूषण 


पौंची या पौंजी : इन्हें कलाईयों में पहना जाता है। कंगन के आकार के होते हैं जिनमें सोने या चांदी के दाने लगे होते हैं। इन्हें भी गुलबंद की तरह कपड़े की पट्टी पर जड़कर तैयार किया जाता है। 
मुंदड़ी : मु​द्रिका या अंगूठी। मुंदरि या गुंठी भी कहा जाता है। 
धागुली या धागुले : छोटे बच्चों के हाथों में पहनाये जाने वाले चांदी के कड़े। यह सादे और डिजाइनर दोनों तरह के होते हैं। 
इनके अलावा स्यूंण, स्यूंणा या सांगल कंधे पर लगाया जाता है जो कि सेफ्टी पिन की तरह होता है। बाजू पर भी एक आभूषण पहनने का प्रचलन रहा है जिसे गोंखले कहा जाता है। 

कमर पर पहने जाने वाले आभूषण 


तगड़ी : चांदी से बना आभूषण जिसे बेल्ट की तरह कमर पर पहना जाता है। पुराने जमाने में महिलाएं हमेशा इसे पहनकर रखती थी क्योंकि कहा जाता था कि लगातार काम करते रहने के बावजूद इससे कमरदर्द नहीं होता है। इसे करधनी, कमरबंद भी कहा जाता है। करधनी यानि सोने चाँदी आदि का बना हुआ कमर में पहनने का आभूषण जिसमें कई लड़ियाँ या पूरी पट्टी होती है।

पांवों में पहने जाने वाले आभूषण 


झिंगोरी, झांजर, इमर्ति, पौटा, पायल, पाजेब और धागुले : पायल चांदी की बनी होती हैं। उत्तराखंड में क्षेत्र के अनुसार इनका आकार प्रकार और नाम बदल जाते हैं। गढ़वाल में महिलाएं चूड़ीनुमा पायल पहनती हैं जिन्हें धगुला या धागुले कहते हैं। पौटा जैसे गहने अब प्रचलन में नहीं हैं। 
बिछुए : पैरों की उंगलियों में पहना जाता है। ये चांदी के बने होते हैं और इन्हें सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। 

         अब बात करते हैं गुलबंद की जिसके बारे में मैंने पिछले दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी। इस पर कई ​तरह की टिप्पणियां मिली। पत्रकार श्रीमती प्रज्ञा बड़थ्वाल ध्यानी ने लिखा, ''यह अब भी फैशन में है। मेरे पास नथ, गुलुबंद, पौंची ओर हंसुली है। तिमांण्या बनवाना है। '' श्री नेगीदा लखोरिया ने गुलबंद के बारे में विस्तार से बताने का अच्छा प्रयास किया। उन्होंने लिखा, ''गुलबन्द से पूर्व क्या आभूषण पहनाया जाता रहा होगा? स्वर्ण गुलबन्द से पूर्व मंगणि के समय मांगी गई कन्या के मस्तक पर भावी स्वसुर द्वारा तिलक करके चांदी का हांसुळ पहनाया जाता था। वही आभूषण मुख्य परम्परागत आभूषण था। समयांतर में मखमली पट्टे पर सात या नौ पट्टिकाओं वाला गलूबन्द हांसलि के स्थान पर पहनाया जाने लगा। यह आभूषण केवल एक आभूषण मात्र था चूंकि इसमे लगा स्वर्ण शरीर से स्पर्श नहीं करता था तो इस आभूषण का लाभकारी प्रभाव भी कुछ नहीं था क्योंकि आभूषणों का निरन्तर त्वचा से स्पर्श करते रहना एक्यूप्रेशर तो करता ही है साथ साथ स्पर्श घर्षण से स्वर्ण या रजत की आवश्ययक मात्रा भी शरीर में पहुंचती रहती है।"
       गढ़वाली के वरिष्ठ कवि श्री दीनदयाल सुंद्रियाल ने टिप्पणी की, ''पुराने ज़माने में गरीबी अधिक थी तो हरेक मंगनी करने के लिए हँसुली या गुलुबंद का इंतज़ाम नही कर पाता तो किसी रिश्तेदार या गॉव की बहू बेटी का गहना लेजाकर भी मंगनी हो जाती थी। कहते है पूरे गांव के लड़कों की मंगनी एक हँसुली से भी हो जाती थी। आपसी सद्भाव का एक बड़ा उदाहरण।''
    सच में यह प्यार और सद्भाव ही पहाड़ के लोगों को दूसरों से अलग करता है। उम्मीद है आपको उत्तराखंड के आभूषण पसंद आए होंगे। कैसा लगा जरूर बताना। 
आपका धर्मेन्द्र पंत 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

Follow me @ Twitter @DMPant
© ghaseri.blogspot.in 

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

खिचड़ी के बहाने गिंजड़ी की याद

    खिचड़ी भी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन सकती है यह लोकतांत्रिक देश भारत में ही संभव है। लेकिन भला हो खिचड़ी का जिसके बहाने मुझे गिंजड़ी की याद आ गयी। गिंजड़ी ही नहीं बाड़ी, पल्यो, छछिन्डु सब जेहन में घूम गये। बचपन में कभी न कभी इनका स्वाद जरूर लिया है। खिचड़ी को पौष्टिकता से भरपूर गिंजड़ी बनाना तो कोई हम पहाड़ियों से सीखे। हमें 'बाड़ी खैंडणा' भी आता है और 'पल्यो सपोड़ना' भी। हमारी नयी पीढ़ी जरूर इनसे अनभिज्ञ है इसलिए आज मैं उनका अपनी 'घसेरी' के जरिये '​गिंजड़ी' और ' बाड़ि या बाड़ी' से परिचय करवा रहा हूं। 
      भारत में खिचड़ी क्षेत्र के हिसाब से अलग अलग तरीके से बनायी जाती है और इसलिए गिंजड़ी भी खि​चड़ी का ही एक रूप है। गढ़वाल में गिंजड़ी को गिंजड़ु, गिंजड़ू, गिंजड़ो आदि नामों से भी जाना जाता है। यह सदियों से पहाड़ के व्यंजनों में शामिल है। बेहद पौष्टिक है और खिचड़ी के भी गुण इसमें समाये होते हैं। गिंजड़ी मैंने बचपन में खायी थी। मां बनाती थी क्योंकि दादी ने अपने बच्चों को गिंजड़ी काफी खिलायी थी और मैंने पिताजी को कई बार मां से कहते सुना कि 'आज गिंजड़ी या फिर बाड़ी खाने का मन कर रहा है।' कई बार हमें न चाहते हुए गिंजड़ी या बाड़ी खानी पड़ी लेकिन ऐसे मौके बहुत कम आये। अब जरूर मन करता है कि काश वे मौके बार बार आते। 


     बहरहाल अब बात इस पर करते हैं कि गिंजड़ी कैसे बनायी जाती है। इसको बनाना भी खिचड़ी की तरह आसान है। बस अंतर यह है कि खिचड़ी के लिये चावल की जरूरत होती है और गिंजड़ी झंगोरा (झंगोरा के बारे में पढ़ने के लिये क्लिक करें — झंगोरा : बनाओ खीर या सपोड़ो छांछ्या) से बनायी जाती है। गिंजड़ी को झंगोरा के साथ काले भट और इसी तरह की अन्य पहाड़ी दालों को मिलाकर बनाया जाता है। खिचड़ी सूखी भी हो सकती है लेकिन गिंजड़ी सूखी हो तो फिर मजा नहीं। मैंने चाचाजी श्री हरिराम पंत से जब गिंजड़ी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि बजरू (बाजरा) की ब​हुत अच्छी गिंजड़ी बनती है। सुना है कि एक बार सरकार ने पहाड़ों में अन्न के नाम पर बाजरा का खूब वितरण किया था और शायद तभी से वहां के लोगों ने इससे गिंजड़ी बनाना सीखा होगा। बाजरा को उरख्यालु (ओखली) में कूट कर उसका बाहर का छिलका बा​हर निकाल दिया जाता है और ​अंदर वाले दानों के साथ दालें मिलाकर गिंजड़ी तैयार कर दी जाती है। वैसे चावल और विभिन्न तरह की दालों को एक साथ मिलाकर बने पकवान को भी गिंजड़ी या गिंजोड़ो कहा जाता है। 

बाड़ी खैंडणू


      ये तो रही बात गिंजड़ी की लेकिन मैंने पहले कहा था कि आपका आज 'बाड़ी' से भी परिचय कराऊंगा तो अब बात की जाए इस विशेष पहाड़ी व्यंजन की। बाड़ी मंडुआ के आटे (चूनो या चूनू) से तैयार किया जाता है और इसे खास तौर पर मसफ्वड़ी (काली दाल पीस बनाया जाने वाला व्यंजन) के साथ खाया जाता है। बाड़ी बनाने के लिये पहले पानी उबाला जाता है। इसके ऊपर शुरू में थोड़ा सा चूनो डाल दिया जाता है जिसे 'छापड़' कहते हैं। जब पानी खौलने लग जाए तो उसमें मंडुआ का आटा डाला जाता है। ​फिर इसे लगातार 'दबळु' (लकड़ी का बना एक विशेष तरह का गोलाकार वस्तु) से घुमाया जाता है। इसी को गढ़वाल में 'बाड़ी खैंडणू' यानि बाड़ी घोटना कहा जाता है। चाचाजी ने बताया कि दादी कहती थी कि बाड़ी तब तक घोटना चाहिए जब तक उसमें गैस के बुलबुले नहीं फूट जाएं। छोटी चाचीजी श्रीमती मनोरमा पंत को बाड़ी खाने का बहुत शौक है और वह दिल्ली में रहकर भी बाड़ी बनाती है और दबळु की जगह पर बेलन का उपयोग करती हैं। कुछ लोग मीठा बाड़ी भी बनाते हैं। अंतर इतना है कि इसे गुड़ के खौलते पानी में मंडुवे का आटा डालकर तैयार किया जाता है। इसे मंडुवे के आटे का हलवा भी कहा जाता है।
     ये तो थी गिंजड़ी और बाड़ी की बात। कैसा लगा आपको इसका स्वाद। बताना जरूर। गिंजड़ी और बा​ड़ी खाने के लिये तो 'घसेरी' आपका मेहमान बनने के लिये भी तैयार है। 'घसेरी' से अपना प्यार बनाये रखिये। आपका धर्मेन्द्र पंत  

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant
    

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

गढ़वाली शादियों में गीत—गाली

पहाड़ी शादियों में मुख्य तौर पर बारात पहुंचने, धूलि अर्घ, गोत्राचार और बेदि के समय मांगल गीत के साथ गाली गीत भी गाये जाते हैं।  
     पिछले दिनों  मैंने फेसबुक पर गाली को लेकर एक पोस्ट लिखी थी। गाली क्यों दी जाती है कई टिप्पणियां मिली थी। इनमें से एक टिप्पणी मेरे मित्र प्रकाश पांथरी की थी। उन्होंने लिखा था, ''यह निर्भर करता है कि गाली को किस तरह से लिया जाए .... शादियों में भी हमने वधु पक्ष की तरफ से वर पक्ष का गालियों से स्वागत करते हुए देखा है। यह परंपरा है हमारे यहां। धर्मी (धर्मेन्द्र) समझ गया न मैं क्या बात कर रहा हूं।'' 
     प्रकाश की इस टिप्पणी ने वास्तव में पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी। यह सत्तर और अस्सी के दशक की बात है जब लड़की की शादी में गांव की उसकी सहेलियां वर पक्ष के लोगों को गाली (गढ़वाली में गाळि) देती थी। ऐसी गाली जिसको सुनकर वर पक्ष के लोगों के चेहरों पर गुस्सा नहीं बल्कि मुस्कान तैर जाती। प्यार और छेड़खानी से भरी चुटीली गालियां जो गीत के रूप में दी जाती हैं। स्वर एक लय में बहता है, जिसमें शरारत और हास्य छिपा होता है। गढ़वाली से लेकर हिन्दी में गालियां देने का प्रचलन रहा है, लेकिन अधिकतर गालियां स्थानीय भाषा में ही होती हैं। दूल्हे से लेकर, दूल्हे के पिता, वर पक्ष के पंडित, दूल्हे के साथियों हर किसी के लिये शादी की विभिन्न परंपराओं के अनुसार दी जानी वाली गालियां। क्रोध में दी गयी गालियों में प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाया जाता है लेकिन शादी में दी जाने वाली गालियां उमंग और अनुराग में दी जाती हैं तथा यह आपकी आपसी घनिष्ठता और प्रेम की प्रतीक होती हैं। दूल्हा और दुल्हन पक्ष एक दूसरे से अमूमन अजनबी होते थे और एक समय इस अजनबीपन को दूर करने में अहम भूमिका निभाती थी गालियां। उत्तराखंड ही नहीं पूरे भारतवर्ष में बैशाखी और विजयादशमी के दिन बहुत शादियां होती हैं। मतलब अब शादियों का मौसम आ गया है तो फिर देर किस बात की। आज 'घसेरी' में चर्चा करते हैं गढ़वाल की शादियों में जाने वाली प्यार से भरी गालियों की। 
       उत्तराखंड ही नहीं भारत वर्ष के कई प्रांतों में शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा है। हर जगह महिलाएं ही गाली देती हैं। एक तरह से वह इन गालियों के जरिये अपने मन की भड़ास भी निकालती हैं। शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा तो सदियों पुरानी है। यहां तक कि भगवान राम जब बारात लेकर मिथिला गये तो वहां सीता की सहेलियों और अन्य महिलाओं ने दूल्हे राम से भी चुहलबाजी की थी। कुछ इस तरह से 'दशरथ गोरा, कौशल्या गोरी, फिर आप काले क्यों हो गये .....।' मिथिलांचल में अब भी शादियों में गाली देने परंपरा है। वहां अक्सर निशाने पर समधी यानि दूल्हे का पिता होता है। मसलन 'चटनी चूरी, चटनी पूरी, चटनी है लंगूर की। खाने वाला समधी मेरा, सूरत है लंगूर की।'' 


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

      ब मैं फिर से गढ़वाल की शादियों में दी जाने वाली गालियों की बात आगे बढ़ाता हूं। दूल्हे के लिये सालियों की गालियां तो बारात के स्वागत से ही शुरू हो जाती हैं। कहा भी जाता है कि साली की गाली हमेशा मीठी होती है तो फिर बुरा किसे लगेगा। बारात आने पर विवाह की पहली परंपरा धूळि अर्घ यानि धूलि अर्ग्य होता है जिसमें वधू का पिता वर और वर पक्ष के ब्राह्मण का आदर सत्कार करता है। यहां पर दूल्हा, दूल्हे का पिता और उसके पक्ष का पंडित इन गाली गीतों में निशाने पर होते हैं। वैसे इस तरह की गालियां विवाह प्रक्रिया के किसी भी मौके पर जैसे कि धूलि अर्घ, गोत्राचार, बेदि (विवाह मंडप) के समय दी जाती हैं। हम यहां पर सबसे पहले दूल्हे के पिता और बामण को दी जाने वाली गालियों पर गौर करते हैं। 
     अगर दूल्हे के पिता नजर नहीं आ रहे हों या वर पक्ष का पंडित पहुंचने में देरी कर रहा हो तो फिर गालियों से उनका पूजन होने में देर नहीं लगती। 
      हमारा गांऊ कुकर भुक्युं च, ब्यौला कु बुबा कुणेठु लुक्यूंच
      हमारा गांऊ कुकर भुक्युं च, ब्यौला कु बामण उबुर लुक्यूंच
                     या
      हमारा गौं म माचिस कु डब्बा, ब्यौला कु बामण ब्यौला कु बबा। 
अगर दूल्हे के पिता ने अनसुनी कर दी तो फिर गाली गीत गाने वाली महिलाएं कहां चुप बैठने वाली होती हैं। 
      हमारा गौं मा डाळ बैठो गूणी, 
      ब्यौला क बुबा टक्क लगैकि सूणी। 
    और अगर दूल्हे के पिता ने मजाक में भी मुंह खोल दिया तो फिर तब भी बेचारे की खैर नहीं। कुछ इस तरह ....
        हमर गौ मा खिनो कु खांभ, ब्यौला का बुबा थ्वरड़ो सि रांभ। 
     मूंछ को मर्द की शान माना जाता है और अगर दूल्हे के पिता के मूंछ नहीं तो इसके लिये भी उन्हें चिढ़ाया जाता है। एक बानगी देखिये। 
     हमारा गौं मा आयु च घाम, ब्यौला का बुबा का जूंगा नी जाम। 
     जमणो को जामी छयो जाम, ब्यौला की फूफून मुछ्यालून डाम।। 
    वर पक्ष की तरफ से विवाह संपन्न कराने वाले पंडित जी ने थोड़ी चूक या ज्यादा होशियारी दिखायी कि उसे वहीं पर टोक दिया जाता है। कुछ इस तरह से .... 
      छि भै ब्यौला तु बामण नि ले जाणु रे.....। 
    इस बीच वधू पक्ष के गांव के लड़कों का काम होता है कि वे बारातियों का आदर सत्कार करें। दूल्हे के दोस्त भी इन गालियों का जवाब अपनी तरफ से देने की भी कोशिश करते हैं, लेकिन लड़कियों के सामने उनकी क्या बिसात। लड़कों का मुंह खुला कि लड़कियां इस तरह से तैयार कि लड़कों की चाय की चुस्की मुंह में अटक के रह जाए ..... 
       आलू काटे, बैंगन काटे, आलू की तरकारी जी
       हमर भयूं न चाय बणायी कुकुरू न सड़काई जी।
      इस बीच दुल्हन की सहेलियां दू्ल्हे की बहनों का नाम जानने की भी कोशिश करती थी ताकि वे दीदी भुलि कहने के बजाय नाम लेकर दूल्हे का गाली दे सकें। अब तो महिलाएं भी शादियों में जाती हैं लेकिन पहले ऐसा कम देखने को मिलता था। स्वाभाविक है समय के साथ गालियों का स्वरूप भी बदला है। अब इस गाली को ही देखिये.... 
         हमारा गौं म बसि जाली कुकड़ी, ब्यौला की भुलि लगणि छ मकड़ी। 
     ब तो गांवों में भी दिन दिन की शादियां होने लगी हैं। वरमाला का चलन चल पड़ा है इसलिये धूलि अर्घ को ज्यादा समय नहीं दिया जाता। बेदि भी आनन फानन में ही निबटा दी जाती है। पहले रात घिरने पर बारात दुल्हन के घर पहुंचती थी। बारातियों का आदर सत्कार होता था और फिर रात भर महफिल जमती थी। अधिकतर रात में ही या सुबह की बेला में गोत्राचार संपन्न होता था और फिर दिन में दस बजे के बाद किसी भी समय बेदि। यह इस पर निर्भर करता था कि बारात कितने दूर से आयी है। अनुराग और उमंग से भरी इन गालियों का असली समां तो बेदि में बंधता था। 
      बेदि में ही सात फेरे भी होते हैं। इस बीच सहेलियां दुल्हन का पूरा हौसला बनाये रखती हैं। 
         शाबाश दगड्या हार न जैई,
          तै ब्यौला का ल्याचा लगैई । 
       दूल्हे का यहां पर गालियों में काफी पूजन होता है। जब वह फेरे ले रहा होता है तो उसे इस तरह से चिढ़ाया जाता है। 
       फ्यारा ​फिरीलो भुलि का दगड़
        फ्यारा ​फिरीलो दीदी का दगड़ । 
                और 
        हमारि दगड्या त देखि कमाल,
         फुुंडु सरक ब्यौला, लाळु संभाल। 
      दूल्हे और दुल्हन को इस बीच कई तरह की रस्में निभायी जाती हैं। एक दूसरे को जूठन खिलाने, अंगूठा पकड़ने, कंगड़ तोड़ने से लेकर दुल्हन के भाई का सुफु में खील डालने तक। इन सभी अवसरों के लिये भी गालियां हैं। अब कंगड़ तोड़ने वाली रस्म को ही लीजिए। इस रस्म में दूल्हे और दुल्हन को एक दूसरे के कंगड़ तोड़ने पड़ते हैं। दुल्हन नहीं तोड़ पाये तो काेई बात नहीं। उसे कैंची सौंप दी जाती थी लेकिन दूल्हे के लिये तो यह नाक का सवाल बन जाता है। आखिर यह उसकी मर्दानगी का सवाल होता है। इसलिए वधु पक्ष वाले दुल्हन के कंगड़ को काफी मोटा और मजबूत बना देते हैं। पहले तो कुछ शादियों में यह भी देखने को मिला जबकि कंगड़ के बीच में लोहे का तार लगा दिया गया। इसके हालांकि दुष्परिणाम भी देखने को मिले। बहरहाल हम कंगड़ तोड़ने के समय दी जाने वाली गालियों की बात करते हैं। 
      दूल्हा जब कंगड़ तोड़ने की कोशिश करता है तो दुल्हन की सहेलियां उसे उकसाती भी हैं और चिढ़ाती भी हैं। 
         तोड़ ब्यौला कंगड़—मंगड़, तेरि भुलि त्वेकु मंगड़ 
         तोड़ ब्यौला कंगड़—मंगड़, तेरि दीदी त्वेकु मंगड़ ।
      बात यहीं पर नहीं रूकती। दूल्हे को वे चुनौती देती हैं और कहती हैं कि अगर कंगड़ नहीं तोड़ पाये तो फिर उसे खाली हाथ ही घर जाना पड़ेगा। 
        तोड़ ब्यौला ब्यौली कु कंगड़, तेरि दीदी त्वेकु मंगड़
        तोड़ि नि सकिलु तेरि हार, वापिस जैलु खालि घार। 
     और इन सबके बीच दुल्हन की मां की तरफ से दूल्हे और उसके पिता से एक आग्रह भी होता है। दुल्हन की मां के इन उदगार को भी गांव की लड़कियां ही बयां करती हैं। 
      छ्वटी बटै कि बड़ि बणाई सैंती पालि की, ईं नौनी थै रख्यां म्यरा समधि संभालि कि,
      छ्वटी बटै कि बड़ि काई सैंती पालि की, ये फूल थै रख्यां म्यरा जवैं संभालि कि ।। 
    उत्तराखंड में जगह चाहे गढ़वाल हो, कुमांऊ या जौनसार विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले गाली गीतों की परंपरा काफी पुरानी है। कभी कभी कुछ लोगों ने इसका विरोध किया लेकिन यह हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं और अगर यह हास्य, प्रेम, अनुराग से जुड़ी हैं तो इनमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। अगर आपको भी इस तरह के कुछ गीत याद हैं तो जरूर साझा करें। 
आपका धर्मेन्द्र पंत
Follow me @ Twitter @DMPant 

© ghaseri.blogspot.in 

शनिवार, 5 अगस्त 2017

लोकभाषाओं को लेकर मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को खुला खत

माननीय मुख्यमंत्री जी,
     पिछले दिनों के आपके दो ट्वीट पढ़ने को मिले और तभी से मेरा मन था कि आपके साथ इस विषय पर संवाद करूं। मैं पौड़ी गढ़वाल जिले के स्योली गांव का मूल निवासी हूं लेकिन फिलहाल नयी दिल्ली में बसा हुआ हूं। पेशे से पत्रकार हूं और वर्तमान में समाचार एजेंसी पीटीआई भाषा में कार्यरत हूं। यह मेरा संक्षिप्त परिचय है। महोदय, आपने दोनों ट्वीट में स्थानीय बोली या भाषा में लोगों से संवाद करने की बात की है। मुझे आपके ट्वीट से महान नेल्सन मंडेला का कथन याद आ गया। उन्होंने कहा था, ‘‘अगर आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वह समझता है तो वह उसके केवल दिमाग तक जाएगी लेकिन यदि आप उस से उसकी भाषा में बात करते हैं तो वह उसके दिल तक जाएगी।’’ स्वाभाविक है कि जब स्थानीय भाषा में लोगों से बात करेंगे तो वह उनके दिलों तक जाएगी। 
    आपके ट्वीट से यह भी स्पष्ट होता है कि आप स्थानीय लोकभाषाओं पर मंडरा रहे खतरे को लेकर चिंतित हैं। असल में जिस तरह से गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि उत्तराखंड की तमाम भाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या में कमी आ रही है तो चिंताग्रस्त होना स्वाभाविक है और मुझे खुशी है कि आप इसके प्रति गंभीर हैं। 
     भैजी मुझे लगता है कि इस संदर्भ में सबसे पहले हमें अपनी लोकभाषाओं के बारे में जानना और फिर उन पर मंडरा रहे खतरों के कारणों का पता लगाना जरूरी है। विश्व भर में स्थानीय भाषाओं पर मंडरा रहे खतरे से यूनेस्को से लेकर भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण तक में चिंता जतायी है। भारत में 1961 की जनगणना में 1652 भाषाओं का जिक्र किया गया है लेकिन 2001 की जनगणना में केवल 122 भाषाओं के बारे में ही बताया गया है। आज ही मैंने एक हिन्दी दैनिक में खबर पढ़ी कि देश की 400 भाषाएं अगले 50 वर्षों में खत्म हो जाएंगी और अचानक ही दिमाग में अपने उत्तराखंड की भाषाएं तैरने लगी। 


      रावत जी आपने एक पुरानी कहावत सुनी होगी ‘‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बाणी।’’ उत्तराखंड में यह अक्षरशः लागू होती है। यहां भाषाओं की भरमार है लेकिन देश भर की 800 से अधिक भाषाओं पर सर्वे करने वाली सरकारी संस्था ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियन लैंग्वेज’ यानि पीएलएसआईएल ने इसमें उत्तराखंड की 13 भाषाओं को स्थान दिया था। ‘भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण’ में भी इन 13 भाषाओं को ही रखा गया है। इन भाषाओं में गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जौनपुरी, रवांल्टी, बंगाणी, जाड़, जोहारी, बुक्साणी, राजी, मार्च्छा, थारू और रंघल्वू शामिल हैं। यूनेस्को ने एक सारणी तैयार की थी जिसमें विश्व की उन सभी भाषाओं को शामिल किया था जो असुरक्षित हैं या जिन पर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाओं गढ़वाली और कुमांउनी को इसमें ‘असुरक्षित’ वर्ग में रखा गया था। जौनसारी और जाड़ जैसी भाषाएं ‘संकटग्रस्त’ जबकि बंगाणी ‘अत्याधिक संकटग्रस्त’ की श्रेणी में आ गयी। अगर वर्तमान स्थिति नहीं बदली तो हो सकता है कि आने वाले 10—12 वर्षों में ही बंगाणी लोकभाषा खत्म हो जाए। भोटान्तिक भाषाएं जैसे जोहारी, मार्च्छा व तोल्छा, जाड़ आदि ‘संकटग्रस्त‘ बन गयी हैं। राजी तो लगभग खत्म होने के कगार पर है। गढ़वाली और कुमांउनी उत्तराखंड की प्रमुख भाषाएं हैं लेकिन इन दोनों पर हिन्दी और अंग्रेजी पूरी तरह से हावी हैं। ऐसे में बाकी भाषाओं की स्थिति अधिक दयनीय बन गयी है। 
     यूनेस्को के अनुसार, ‘‘यदि किसी भाषा को तीन पीढ़ी के लोग बोलते हैं तो वह सुरक्षित है, यदि दो पीढि़यां बोल रही हैं तो वह संकट में है और यदि केवल एक पीढ़ी बोल रही है तो उस भाषा पर गंभीर संकट मंडरा रहा है।’’ इस कसौटी पर अगर हम उत्तराखंड की भाषाओं को रखते हैं तो स्थिति गंभीर है और अपनी अगली पीढ़ी को अगर अब भी हमने अपनी भाषाओं के प्रति जागरूक नहीं किया तो फिर आगे हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएंगे। 
    भैजी सबसे बड़ा सवाल यह है कि उत्तराखंड की लोकभाषाएं अगर ''संकटग्रस्त'' बनीं तो क्यों? आपको याद होगा ​कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन का मुख्य मुद्दा था ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी’ को पहाड़ में रोकना है लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। उत्तराखंड राज्य के गठन से पहले ही पहाड़ के गांव खाली होने शुरू हो गये थे। उत्तराखंड की भाषाएं आज अगर संकट से गुजर रही हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण है पलायन है। सबसे पहले आपको पलायन रोकने और शहरों में बस चुके पहाड़ियों को गांवों की तरफ आकर्षित करने के लिये ठोस कदम उठाने होंगे। पलायन के पीछे रोजगार बड़ा कारण है और सचाई यह है कि अब तक उत्तराखंड में स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के सरकार की तरफ से कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये। बेहतर शिक्षा और चिकित्सा का अभाव भी एक कारण है जिसके लिये लोग दिल्ली, देहरादून, मुंबई जैसे शहरों में बस गये तथा नयी पीढ़ी के लिये गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि अपनी भाषा पीछे छूट गयी। लोगों के दिमाग में यह बात बैठ गयी है कि यदि हम अपने बच्चों को अपनी भाषा सिखाते हैं तो वे पिछड़ जाएंगे। इसके लिये अब आपको खुद अपनी भाषाओं का 'ब्रांड एंबेसडर' बनना होगा। आपको लोगों को अपने घरों में स्थानीय भाषा में बात करने के लिये प्रेरित करना होगा। जैसा कि आपने अपने ट्वीट में कहा है, अगर आप उस पर पूरी तरह से अमल करते हैं तो लोगों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी। लोगों के दिमाग में यह बात बिठानी होगी कि अपनी भाषा में बात करना हीन भावना नहीं बल्कि सम्मान की बात है। यह संदेश घर घर तक पहुंचाने में आप अहम भूमिका निभा सकते हैं। 
    मुख्यमंत्री जी उम्मीद है कि आपको यह पत्र उबाऊ नहीं लग रहा होगा। लेकिन भैजी यह गंभीर विषय है क्योंकि जब भाषा जिंदा रहती है तो उसके साथ भूगोल, इतिहास, संस्कृति, सरोकार, कृषि, बागवानी, पशुपालन, परंपराएं, पूरी संस्कृति और सामाजिक सरोकार भी जिंदा रहते हैं। भाषा बदलने के कारण पहाड़ की संस्कृति और परंपराएं भी प्रभावित हो रही हैं। 
    त्तराखंड की भाषाओं को बचाने के लिये कहा जा रहा है कि इसे पाठ्यक्रम में शामिल कर देना चाहिए। मैं भी इस कदम का समर्थक हूं। यूनेस्को की महानिदेशक इरिना बुकोवा का कहना है कि ‘‘अच्छी शिक्षा के लिये मातृभाषा जरूरी अवयव है जो असल में महिलाओं ओर पुरुषों के साथ उनके समाज को भी मजबूत बनाने की नींव है।’’ पिछले साल मैंने अपने ब्लॉग में उत्तराखंड की भाषाओं पर लिखा था तो सवाल उठे थे कि क्या इन लोकभाषाओं को भाषा कहना सही होगा क्योंकि यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हैं और इसकी लिपि भी नहीं है। मैंने तब पीपुल्स लिंगुइस्टिक सर्वे के संयोजक गणेश देवी के एक बयान का सहारा लिया था। उन्होंने कहा था, ‘‘जिसकी लिपि नहीं है उसे बोली कहने का रिवाज है। इस तरह से तो अंग्रेजी की भी लिपि नहीं है। उसे रोमन में लिखा जाता है। किसी भी लिपि का उपयोग दुनिया की किसी भी भाषा के लिये हो सकता है। जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलोजी में नहीं आयी, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग। इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा।’’ संविधान भी हमें इन भाषाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की छूट देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350ए में प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा में शिक्षा की सुविधा देने की बात की गयी है। 
    भैजी एक बड़ा सवाल यह भी है कि उत्तराखंड की भाषाओं को यदि पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो उन्हें किस तरह से समायोजित किया जाए क्योंकि 13 भाषाओं के अलग अलग नहीं रखा जा सकता है। मुझे इसका एक सरल उपाय लगता है कि तीन मुख्य भाषाओं गढ़वाली, कुमांउनी और जौनसारी को उनके क्षेत्रों के हिसाब से पाठ्यक्रम में शामिल करके उनके ज्यादा करीबी भाषाओं के कुछ अध्याय उसमें शामिल किये जा सकते हैं। पाठ्यक्रम में वहां की संस्कृति, वहां के लोक गीतों, मुहावरों, लोक कथाओं, लोकोक्तियों, किवदंतियों, पहेलियों आदि को शामिल किया जा सकता है। कहने का मतलब है कि पाठ्यक्रम रोचक होना चाहिए। 
    रावत साहब अगर भाषा पाठ्यक्रम का हिस्सा बनती है तो वह रोजगार भी पैदा करेगी। अगर उत्तराखंड की भाषाओं को आप किसी तरह से रोजगार से जोड़ने में सफल रहते हैं तो नयी पीढ़ी खुद ही इन भाषाओं को सीखने का प्रयास करेगी। अभी उत्तराखंड की भाषाओं का सबसे कमजोर पक्ष यही है कि वे रोजगार की भाषाएं नहीं हैं। उनका आर्थिक पक्ष बेहद कमजोर है। हमें अपनी भाषाओं को नयी तकनीकी से भी जोड़ना होगा। हमें स्थानीय भाषाओं की उन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को सहयोग देना होगा जिनमें से अधिकतर आर्थिक संकट के कारण दम तोड़ रही हैं या किसी तरह खींचतान के जिनका प्रकाशन किया जा रहा है। 
   भैजी आखिर में मैं यही कहूंगा कि प्रत्येक भाषा का एक संपूर्ण इतिहास और भूगोल होता है। जब एक भाषा खत्म होती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान भी लुप्त हो जाता है। इस संपूर्ण ज्ञान को बचाने की जिम्मेदारी अब आपके मजबूत कंधों पर है। हम सब आपके साथ हैं। हमारा सहयोग हमेशा आपके साथ बना रहेगा। शुभकामनाओं सहित। 
                 आपका भुला 
                धर्मेन्द्र पंत 
                एक पलायक पहाड़ी 
           ‘‘दशा और दिशा : उत्तराखंड की लोकभाषाएं’’ के लेखक


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

सोमवार, 17 जुलाई 2017

सावधान! दबाव में बिखर न जाए कहीं बच्चा

इसमें पहली तस्वीर वरिष्ठ खेल पत्रकार श्री संजीव मिश्रा और दूसरी तस्वीर उत्तराखंड शिक्षा विभाग में कार्यरत श्री कैलाश थपलियाल के फेसबुक पेज से ली गयी है। इन पर गौर करिये, मनन करिये।  

      पिछले दिनों फेसबुक पर दो तस्वीरें देखी जिनसे मन विचलित हो गया। पहली तस्वीर वरिष्ठ खेल पत्रकार और ​मेरे मित्र संजीव मिश्रा ने पोस्ट की थी। यह उनके घर के शौचालय की तस्वीर थी जिस पर उनके बेटे ने त्रिकोणमिति के सूत्र चस्पा कर रखे थे। संजीव ने अपनी पोस्ट के साथ लिखा था, ''सुबह वाशरूम में ट्रिग्नोमैट्रिक टेबल व फाॅर्मूले चिपके देख चौंक गया। हमारे एजुकेशन सिस्टम ने बच्चों को यहां भी फ्री नहीं छोड़ा। पढ़ाई के इस बोझ को कितना जायज माना जाए?'' बेहद गंभीर सवाल जो हमारी शिक्षा व्यवस्था पर करारी चोट करता है। 
    दूसरी तस्वीर मित्र कैलाश थपलियाल ने पोस्ट की थी। पौड़ी गढ़वाल के जयहरीखाल में बस का इंतजार करते बच्चे लेकिन हाथों में किताब लिये कुछ याद करते हुए। कैलाश भाई ने बेहद सटीक शब्दों में पूरी व्यवस्था पर कटाक्ष भी किया था, ''आखिर किस दिशा में जा रही है हमारी आज की शिक्षा। कल जयहरीखाल में अपनी स्कूल की गाड़ी का इंतजार करते हुए परीक्षा रूपी भय से रट्टू तोता बन रहे इन बच्चों को देखकर यही लग रहा है कि आज के समाज में परीक्षा से इतना भय क्यों? जबाब भी आखिर अपुन के ही पास अंतर्मन में ही मौजूद था। कुकुरमुत्तों की तरह उग चुके प्राइवेट स्कूलों ने बच्चों की अच्छे नंबर लाने की प्रतिस्पर्धा को उनके माता-पिता और अभिभावकों के मान-सम्मान से जोड़ दिया है। माता-पिता की बच्चों से अधिक अपेक्षाओं के कारण बच्चों के कोमल दिमाग और शरीर एक असहनीय बोझ से दब कर बच्चों को मानसिक तनाव की ओर ले जा रहे हैं.......।''
   अगर आपने इन तस्वीरों को गौर से देख लिया है तो इन पर विचार करिये। खुद को टटोलिये और खुद से पूछिये कि क्या आपके बच्चे भी इस पीड़ा से गुजर रहे हैं। क्योंकि अन्य देशों की तुलना में भारत में माता पिता बच्चों पर अच्छे अंक लाने का अधिक दबाव बनाते हैं। यहां हर कोई चाहता है कि उसका बच्चा आलराउंडर बने। ऐसे में सफलता हासिल करने के बजाय बच्चे के मनोमस्तिष्क पर पड़ने वाले दबाव से वह नाकामी की तरफ बढ़ने लगता है। बच्चे पर दबाव बनाने से वह कभी पढ़ाई के प्रति प्रेरित नहीं होगा बल्कि वह उससे जी चुराएगा। उनके अंदर असफलता का डर भर जाएगा और ऐसी स्थिति में उसके नाकाम होने की संभावना बढ़ जाएगी। यह मत भूलिये कि भारत में आत्महत्या के दस प्रमुख कारणों में परीक्षा में असफलता भी शामिल है। नाकामी का खौफ बच्चे को खतरनाक कदम उठाने के लिये प्रेरित कर सकता है। 

बच्चे को नकारात्मक और बीमार बनाता है  दबाव 


    गर आप का बच्चा पढ़ाई से जी चुरा रहा है या खेलने और अन्य कार्यों में भी उसका मन नहीं लग रहा है तो आपको सतर्क होने की जरूरत है। ऐसे में बच्चे के दिमाग में नकारात्मक भाव उत्पन्न हो सकते हैं और उसका व्यवहार आक्रामक हो सकता है। इस स्थिति में बच्चे की भावनाओं, उसकी मनोदशा को समझना जरूरी होता है। अगर आप बच्चे पर चिल्लाने या दबाव बनाने से सकारात्मक परिणाम की उम्मीद कर रहे हैं तो फिर आप गलत हैं। बच्चों से अच्छा परिणाम हासिल करने का यही तरीका है कि उन पर दबाव बनाने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। दुनिया भर में सैकड़ों शोध इस विषय पर किये गये और सबका एक ही परिणाम था कि बच्चों पर दबाव डालने से उन पर नकारात्मक असर पड़ता है जो उनके संपूर्ण विकास में सबसे बड़ा बाधक बनता है। कई बच्चे विलक्षण होते हैं लेकिन उम्र बढ़ने के साथ वे खुद को नहीं संभाल पाते और जैसी उम्मीद उनसे बचपन में की जाती है, वे उस पर खरा नहीं उतर पाते हैं। 
      इसका एक बड़ा कारण बच्चे का अपना बचपन नहीं जी पाना भी है। इसलिए आप खुद से एक सवाल करिये कि क्या आपका बच्चा बचपन का वैसा आनंद ले रहा है जैसा कभी आपने लिया था? इस सवाल पर मनन करिये। याद करिये अपने बचपन को। मेरी अपनी पत्नी से कई बार बहस हो जाती है क्योंकि मुझे लगता है कि वह बच्चों पर अनावश्यक दबाव बना रही है। इससे वह खुद भी तनाव में आ जाती है। मैं तब उन्हें अपना बचपन याद करने के लिये कहता हूं। इस पर भी उनके अपने तर्क होते हैं। समय जरूर बदल गया है, लेकिन बचपन जैसे पहले था वैसा आज भी है और हमें अपने बच्चों से उस बचपन को छीनने का कोई अधिकार नहीं है। .... लेकिन अफसोस कि आज बच्चों से बचपन छीना जा रहा है। किशोरावस्था का पहला चरण 13 साल की उम्र होती है लेकिन अगर आपका बच्चा 10 या 11 साल की उम्र में एक किशोर जैसा व्यवहार करता है तो इस पर ​इतराने की जरूरत नहीं है। यह चिंता का विषय है। तब आप यह क्यों भूल जाते हो कि वह जल्द ही वयस्क और प्रौढ़ भी होगा।  
     बच्चे उच्च रक्तचाप का शिकार भी हो रहे हैं। अभी कुछ अध्ययनों से पता चला है कि 11 से 12 साल के बच्चे भी उच्च रक्तचाप की समस्या से ग्रसित हो रहे हैं जो सोचनीय विषय है। विभिन्न तरह के गैजेट जैसे मोबाइल, कंप्यूटर और खान पान जैसे फास्ट फूड पहले ​ही बच्चे को बीमार बना रहे हैं। इस पर जब पढ़ाई के दबाव का तड़का लगता है तो फिर बच्चे का बीमार होना स्वाभाविक है। इसलिए खुद विचार करिये कि कहीं आप अपने बच्चे को बीमार तो नहीं बना रहे हो। 
     मैंने अपने बड़े बेटे प्रांजल को 12वीं परीक्षा के दौरान दबाव में देखा है। इसके बाद मैंने उसके दिमाग से अंकों का भूत निकाला। मैं अपने बेटे की सीमाएं जानता हूं लेकिन अंकों के दबाव में मैंने उसका आत्मविश्वास नहीं मरने दिया जिस पर वास्तव में मुझे भी नाज है। इसके बाद वह जहां भी इंटरव्यू के लिये गया तो साक्षात्कारकर्ता ने उसके आत्मविश्वास और सहज स्वीकार्यता की भावना की तारीफ की। अब वह एक अच्छे संस्थान में एडमिशन भी लेने जा रहा है। जब वह परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए बच्चों पर अंकों का दबाव न बनायें। मैं फिर से स्वेट मार्टेन के इस कथन को दोहरा रहा हूं कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आपके बच्चे के अंदर भी ऐसी कोई प्रतिभा छिपी होगी। उसे पहचानने में उसकी मदद करिये। 

आपका धर्मेन्द्र पंत 
© ghaseri.blogspot.in 


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

रविवार, 18 जून 2017

आओ फिर से बोलें 'ब्वे, बुबाजी'

बुबाजी और उनकी गोद में मेरा बड़ा बेटा प्रांजल 
         सुबह लेकर उठते ही बड़े बेटे प्रांजल ने हमेशा की तरह पांव छुए लेकिन आज उनके मुंह से 'हैप्पी फादर्स डे' सुनने को भी मिला। मैंने मुस्करा कर उसे गले लगा दिया। मेरी निजी राय है कि फादर्स डे और मदर्स डे ये अंग्रेजों के चोंचले हैं और भारतीय संस्कृति में इसके लिये कोई जगह नहीं। मां और पिताजी के लिये एक दिन नियत नहीं किया जा सकता है। हमारे यहां तो हर दिन मां और पिताजी को नमन किया जाता है। अचानक ही मुझे सवाल सूझा। मैंने बेटे से पूछा, 'बेटा गढ़वाली में पापा के लिये क्या कहते हैं?'' प्रांजल ने थोड़ी देर अपना दिमाग दौड़ाया और फिर सही जवाब दिया। 'बोजी'। मैं फिर से मुस्कराया। मेरी दादी ने हम सभी भाई बहनों को सिखा रखा था कि बुबाजी बोलना है और जब हमारे साथी पिताजी बोलने लग गये थे तब हम बुबाजी ही बोलते थे। जल्दी में बोलने में बुबाजी 'बोजी' बन जाते थे। प्रांजल ने अपने पहले चार साल दादाजी के साथ बिताये थे और बचपन में अक्सर मेरे मुंह से बुबाजी के लिये संबोधन में निकला यह शब्द उसे याद रहा। 
      गढ़वाली में पिताजी के लिये कई संबोधन हैं जैसे बुबा, बुबाजी, बबा, बाबा, बबाजि। मुझे गर्व है कि मैंने अपनी पूरी उम्र बुबाजी या बोजी का ही उपयोग किया। मां के लिये भी कई बार 'ब्वे' बोलता था। कुछ बात करने के लिये 'हे ब्वे' बोलने का सुखद अहसास 'मम्मी' कहने में आ पाएगा, मेरे लिये अच्छी तरह से बयां करना मुश्किल है। मां और मांजि में भी मुझे अपनत्व लगता है। इसका यह भी कारण हो सकता है क्योंकि मैंने हमेशा मां, मांजि या ब्वे का ही उपयोग किया। ठीक उसी तरह जैसे मुझे पिताजी में नहीं बुबाजी या बोजी में अपनापन लगता है। 
         मुझे गढ़वाली कवि, गीतकार श्री दीनदयाल सुंद्रियाल 'शैलज' के एक गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं, ''ब्वे, बाब क्वी नि बुदु अब त मम्मी पापा जी, अंग्रेजी कि आग लगिं च तुम भि आग तापा जी।''  मदर्स डे और फादर्स डे इसी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत की देन है। बहरहाल बात उत्तराखंड की करते हैं। भारतीय भाषा सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखंड में कुल 13 लोकभाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से कुछ भाषाओं में मां और पिताजी के लिये संबोधन यहां पर दिये गये हैं। उम्मीद है कि आप अपनी बोली के अनुसार भविष्य में इनका उपयोग करेंगे।

        उत्तराखंड की विभिन्न लोक भाषाओं में मां और पिताजी के लिये संबोधन के शब्द 

मां 

गढ़वाली : ब्वे, बई, बोई, मांजि, मां, मयेड़, मातण 
कुमांउनी :  इज, जिया, अम्मा
जौनसारी : ईजी 
जाड़ : आॅ
बंगाणी : इजै 
रंवाल्टी : बुई, ईजा 
जौनपुरी : बोई 
थारू : अय्या
राजी : ईजलुअ, इहा 
मार्च्छा : आमा 
जोहारी, रंग ल्वू : ईजा, अम्मा

पिता 

गढ़वाली : बुबा, बोजी, बब, बबा, बाबा, बाबजि, पिताजि 
कुमांउनी : बाज्यू, बाब, बब, बौज्यू, बाबू 
जौनसारी : बाबा 
जाड़ : अबा, आवा
बंगाणी : बाबा 
रंवाल्टी : बा, बूबा, बाबा 
जौनपुरी : बबा 
थारू : दउवा, बाबा 
राजी : दैआ, बैबा 
मार्च्छा : अप्पा 

          इसके अलावा हो सकता है कि मां पिताजी के लिये कुछ स्थानों पर अन्य तरह के भी संबोधन हों। आप आप ब्लॉग में इसे समृद्ध कर सकते हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant


सोमवार, 29 मई 2017

अखबार में आया रोल नंबर और मैं पास हो गया

         मां . पिताजी दोनों ​के मन में थोड़ा डर, थोड़ी चिंता भर गयी थी। डर और चिंता में भगवान ज्यादा याद आते हैं और इसलिए उन्होंने भी 'सत्यनारायण व्रत कथा' करवाने की मन्नत कर ली। असल में परिस्थितियां कुछ ऐसी ही बन गयी थी। मैं तब 15 साल का था जब मैंने उत्तर प्रदेश बोर्ड के तहत हाईस्कूल की परीक्षा दी थी। वर्ष था 1985 और उस साल परीक्षा में नकल रोकने के लिये परीक्षा केंद्र बदल दिये गये थे। मैं राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल में पढ़ता था लेकिन मेरा परीक्षा केंद्र राजकीय इंटर कालेज एकेश्वर था। मेरे गांव स्योली से लगभग दस किमी दूर। गांव के सामने लगभग तीन . चार किमी की चढ़ाई और फिर जंगल के रास्ते से गुजरकर पहुंचना पड़ता था एकेश्वर। परीक्षा सुबह सात बजे शुरू होती थी लेकिन मुझे एकेश्वर पहुंचने के लिये चार बजे उठना पड़ता था। गांव के कुछ और बच्चे भी परीक्षा दे रहे थे और पिताजी हमें आधे रास्ते तक छोड़ने के लिये आते थे। वह तब मुझे हर दिन एक रूपया दिया करते थे, जिन्हें मैंने खर्च नहीं किया। कुल 13 पेपर दिये थे और इस तरह से मेरे पास 13 रुपये जमा हो गये थे। 
        एकेश्वर में पढ़ने वाले बच्चों का परीक्षा केंद्र नौगांवखाल था। पहले दिन के पेपर में किसी तरह की सख्ती नहीं थी, लेकिन शाम को जब 12वीं की परीक्षा के दौरान नौगांवखाल में एकेश्वर के दो लड़कों का Rustication (रस्टकेशन हिन्दी में कहें तो निष्कासन मतलब जिसका रस्टकेशन हो गया उसके लिये आगे की परीक्षा बेमतलब हो  जाती है) कर दिया गया। एकेश्वर में खबर पहुंची और फिर वहां बदले की आग झुलसने लगी। कुछ बच्चों को दो परीक्षा केंद्रों के बीच चली आपसी जंग का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। नकल करते हुए पकड़े जाने पर उनका रस्टकेशन कर दिया गया। जो नकल के भरोसे थे वे भी 'बेचारे' बन गये। हमारे साथ भी दूसरे पेपर से कड़ी सख्ती बरती गयी। मार्च के महीने में सुबह काफी ठंड पड़ती थी लेकिन परीक्षा केंद्र पर हमारे जूते, मोजे, दस्ताने तक निकलवा दिये जाते थे। मुझे याद है कि तब जिला शिक्षा अधिकारी एक बेहद सख्त मिजाज की महिला थी जो नकल करने पर तुरंत रस्टकेशन करती थी। उनके 'फ्लाइंग स्क्वाड' में भी आठ . दस कड़क और परीक्षार्थियों की नजर में 'निर्मम' व्यक्ति शामिल थे। नकल के खिलाफ बना यह माहौल दिल में खौफ भी पैदा कर रहा था। गणित के पेपर में मुझे भी आशंका थी। मां . पिताजी को भी अपनी इस आशंका से अवगत करा दिया था और यही उनके डर व चिंता की मुख्य वजह थी। 


     जिस दिन परीक्षा परिणाम आना था। सभी के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थी। ​तब परिणाम स्थानीय समाचार पत्र अमर उजाला में प्रकाशित होता था। उसमें रोल नंबर के आगे प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी और तृतीय श्रेणी यानि F, S और T लिखा रहता था।  जिसका नंबर आ गया वह उत्तीर्ण जिसका नहीं आया वह अनुत्तीर्ण। जिस समाचार पत्र में परीक्षा परिणाम छपा रहता था उसके लिये मारामारी रहती थी। मुझे याद है कि नौगांवखाल का एक व्यक्ति पहले दिन शाम को ही कोटद्वार में डेरा जमा लेता था। वहां अखबार हाथ में आते ही वह उसे लेकर जल्द से जल्द नौगांवखाल पहुंच जाता और फिर उसके पास परीक्षा परिणाम देखने वालों की लाइन लग जाती। जो विद्यार्थी उत्तीर्ण हो जाता उससे पांच से दस रूपये लेता और अनुत्तीर्ण होने वाले को टेढ़ी नजर से देखता। आखिर उसने अनुत्तीर्ण होकर उसके पांच रूपये का नुकसान करा दिया था। बाद के वर्षों में परीक्षा परिणाम देखने से पहले ही 10 से 20 रुपये लिये जाने लगे थे।  
      पिताजी मेरा परीक्षा परिणाम देखने गये थे और मैं जंगल में गोरू (गाय बछड़े यानि डंगर) चराने चला गया था। मन में धुकधुकी लगी हुई थी। गांव का एक चचेरा भाई, जो मुझसे उम्र में बड़ा था, अपने गोरू मेरे पास छोड़कर नौगांवखाल निकल गया। उन्होंने कहा था कि अगर मैं पास हो गया तो वह जल्द से जल्द यह खबर मुझे देगा। मुझे याद है कि वह मुझे देखकर चिल्लाया था, 'धर्मेंद्र तू पास हो गया, सेकेंड डिवीजन है तेरी।' सच या झूठ। कई विचार एक साथ मन में कौंधे और फिर लगा कि पांव अब जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। गांव से केवल मैं ही पास हुआ था, बाकी सारे फेल। हमारी स्कूल से दसवीं की परीक्षा में शामिल लगभग 120 विद्यार्थियों में से केवल 18 पास हुए थे और उनमें मैं भी शामिल था। फिर भी थोड़ी धुकधुकी बनी रही क्योंकि किसी ने बताया कि प्रूफ की गलती से भी नंबर में गड़बड़ी हो सकती थी। इसलिए अगला एक सप्ताह इसी दुआ में बीता कि हे भगवान अखबार में जो कुछ छपा है वह सच निकले और जब मार्कशीट यानि अंक प्रमाणपत्र आया तो सब कुछ सच निकला। गणित में दो नंबर के ग्रेस मार्क्स से मैं द्वितीय श्रेणी में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ​गया था। मां ​. पिताजी खुश थे और उन्होंने बाकायदा सत्यनारायण की कथा करवायी।


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

         सवीं की परीक्षा में मेरे 47 प्रतिशत अंक आये थे। बारहवीं में 51 प्रतिशत और फिर बीए में 58.5 प्रतिशत अंक लाकर मैं कालेज में अव्वल आया था। मैंने 1995 में प्राइवेट छात्र के तौर पर राजनीति शास्त्र से एमए किया। कुल 63 प्रतिशत अंक थे लेकिन मैं विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। तब की भाषा में कहूं तो गोल्ड मेडलिस्ट, जो मुझे कभी नहीं मिला। हां विश्वविद्यालय में प्रथम का एक प्रमाणपत्र हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय ने जरूर थमा दिया था। इस बीच पत्रकारिता की डिग्री भी प्रथम श्रेणी (65%) में ली थी। हमारे जमाने में अगर 10वीं या 12वीं की परीक्षा में किसी के 60 प्रतिशत अंक आते थे तो उसे जीनियस समझा जाता था। उसकी इज्जत बढ़ जाती थी लेकिन आज की स्थिति बदल गयी है। आलम यह है कि 95 प्रतिशत वाला भी पक्के तौर पर नहीं कह सकता है कि उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में मनपसंद विषय में मनपसंद कालेज में एडमिशन मिल जाएगा। हमारे समय में निरीक्षक भी बड़े कंजूस हुआ करते थे, पता नहीं किन किन कारणों से अंक काट देते थे लेकिन अब राजनीति शास्त्र, हिन्दी या अंग्रेजी में भी 100 में से 100 नंबर आ रहे हैं। अपने जमाने में तो केवल गणित में यह संभव था। अंकों की इस होड़ में परीक्षार्थियों पर भी दबाव बढ़ रहा है। इससे रट्टामार पद्वति को भी प्रश्रय मिल रहा है। कुल मिलाकर हमारा जमाना ही सही था। दबाव हम पर भी रहता था तभी तो मैंने दसवीं की परीक्षा में बचाये गये 13 रूपयों को खाने पर खर्च नहीं किया था क्योंकि मैं भी उस दिन का इंतजार कर रहा था जब मेरी परीक्षाएं समाप्त हों और मैं बचाये गये पैसों से अपनी मनपसंद पत्रिका 'क्रिकेट सम्राट' खरीदकर रिलैक्स होकर उसे पढूं। क्रिकेट सम्राट के तीन अंकों के लिये मेरे पास पैसा था और अगले तीन महीने तक मैंने ऐसा किया भी। 
       और हां मेरा सभी माता पिताओं से आग्रह है कि वे अपने बच्चों पर अंकों के इस बोझ का दबाव नहीं बनायें। उन्हें अनुशासन में रखें लेकिन अपनी जिंदगी स्वतंत्र और सहज होकर जीने दें। मेरा बेटा जब परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए जिनके बच्चों के नंबर कम आये हैं उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं है। स्वेट मार्टेन ने कहा था कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आप भी अपने बच्चों के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने में उनकी मदद करिये। मैं भी प्रयास कर रहा हूं। 
आपका धर्मेंद्र पंत 



------- Follow me on Twitter @DMPant

शनिवार, 20 मई 2017

सुमित्रानंदन पंत और उनकी कुमांउनी कविता

      
पिछले साल उत्तराखंड की लोक भाषाओं से संबंधित एक किताब पर काम करते हुए मेरी उत्तराखंड की भाषाविद और लेखिका श्रीमती कमला पंत से कुमांउनी भाषा को लेकर लंबी बातचीत हुई। उन्होंने तब जिक्र किया था कि किस तरह से कुछ कुमांउनी शब्द हिन्दी ने अपनाये। इस संबंध में उन्होंने श्री सुमित्रानंदन पंत से जुड़ा एक किस्सा भी सुनाया था। बकौल श्रीमती कमला पंत, ''मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थी तो वहां पर तीन दिनों तक निराला जयंती होती थी। वहां पर बड़े बड़े विद्धान आते थे। एक बार सुमित्रनंदन पंत जी ने कविता पाठ करते हुए कहा, ‘फैली खेतों में दूर तलक मख़मल की कोमल हरियाली’। हिन्दी के बाकी कवियों ने विरोध किया कि ‘तलक’ तो कोई शब्द ही नहीं है। उन्होंने फिर बताया कि यह कुमांउनी का शब्द है। फिर धीरे - धीरे यह शब्द हिन्दी ने भी अपना लिया जबकि यह कुमांउनी (यह शब्द गढ़वाली में भी बोला जाता है) का है।'' 
        वैसे सुमित्रानंदन पंत या उत्तराखंड से संबंध रखने वाले अन्य कवियों और लेखकों ने अपने लेखन में गढ़वाली, कुमांउनी या अपनी अन्य लोकभाषाओं के शब्दों का उपयोग बहुत कम किया है जबकि उत्तराखंड की लोकभाषाएं हिन्दी को समृद्ध करने की क्षमता रखते हैं। अगर पंत जी ने अपनी कविताओं में कुमांउनी के चुनिंदा शब्दों का ही उपयोग किया तो इसका कारण यह भी था कि तब उत्तराखंड की इन लोकभाषाओं पर आज की तरह खतरा नहीं मंडरा रहा था। आज स्थिति बदली हुई है और ये लोकभाषाएं खतरे में हैं ऐसे में इनके शब्दों को भी संरक्षण की जरूरत है और इसमें कोई भी लेखक, कवि, गीतकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गढ़वाली और कुमांउनी में गंध, ध्वनि आदि के लिये कई शब्द हैं जबकि हिन्दी में इनके लिये कोई विशेष शब्द नहीं है। ऐसा कोई संदर्भ आने पर इनका उपयोग किया जा सकता है। मुझे याद है कि वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी ने मालवा क्षेत्र में उपयोग होने वाले शब्द 'अपुन' का खूब उपयोग किया और बाद में हिन्दी ने उसे अपना लिया। अब भी कई लेखक इस शब्द का उपयोग कर लेते हैं।



     ह तो थी शब्दों के उपयोग की बात। आज श्री सुमित्रानंदन पंत का 117वां जन्मदिवस है। बीस मई 1900 को जन्में इस सुकुमार कवि ने अपनी किशारोवस्था कौशानी और अल्मोड़ा में बितायी थी और इसलिए उनकी कविताओं में इन दोनों स्थानों का सुंदर वर्णन मिलता है। उनके बचपन का नाम गुसांई दत्त था लेकिन वह रामायण के लक्ष्मण के चरित्र से प्रभावित थे और इसलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत कर दिया था।  पंत जी 'प्रकृति के चितेरे' थे लेकिन उन्होंने कुमांउनी में बहुत कम या यूं कहें कि सिर्फ एक कविता लिखी थी। यह कविता भी बुरांश पर लिखी गयी थी। आप भी श्री सुमित्रानंदन पंत की कुमांउनी में लिखी गयी इस कविता का आनंद लीजिए। 

               सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
               फुलन छै के बुरूंश! जंगल जस जलि जां।

               सल्ल छ, दयार छ, पई अयांर छ,
               सबनाक फाडन में पुडनक भार छ,
               पै त्वि में दिलैकि आग, त्वि में छ ज्वानिक फाग,
               रगन में नयी ल्वै छ प्यारक खुमार छ।

              सारि दुनि में मेरी सू ज, लै क्वे न्हां,
              मेरि सू कैं रे त्योर फूल जै अत्ती माँ।

              काफल कुसुम्यारु छ, आरु छ, अखोड़ छ,
              हिसालु, किलमोड़ त पिहल सुनुक तोड़ छ ,
              पै त्वि में जीवन छ, मस्ती छ, पागलपन छ,
              फूलि बुंरुश! त्योर जंगल में को जोड़ छ?

               सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
               मेरि सू कैं रे त्योर फुलनक म' सुंहा॥


श्री सुमित्रानंदन पंत को सादर नमन।

आपका धर्मेंद्र पंत  


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

उत्तराखंड में पार्टियों के एजेंडे से गायब रहे पलायन, विस्थापन और पर्यावरण

वरिष्ठ पत्रकार  फ़ज़ल इमाम मल्लिक ने यह लेख विशेष रूप से 'घसेरी' के लिये लिखा है। इसमें उन अनछुये पहलुओं को उजागर किया गया है जो उत्तराखंड के लिये आज बेहद महत्वपूर्ण हैं लेकिन पार्टियों ने उन पर गौर करना उचित नहीं समझा। उम्मीद है कि आपको यह लेख पसंद आएगा। 

पलायन के कारण गांव के गांव वीरान हो गये हैं। मकान खंडहर में बदल गये हैं तो कुछ घरों में वर्षों से लटके ताले खुलने का इंतजार कर रहे हैं। चित्र : धर्मेंद्र पंत 
      त्तराखंड विधानसभा के चुनाव निपट गए. सत्ता बचाने और वापसी के खेल में कांग्रेस और भाजपा उलझी रहीं। नए वादे भी किए गए और नए नारे भी गढ़े गए। दागियों की बातें हुईं, बागियों को लेकर एक-दूसरे पर वार किए गए। विकास के सुनहरे सपने दिखाने में न तो कांग्रेस पीछे रही और न ही भारतीय जनता पार्टी। भ्रष्टाचार के आरोप दोनों ने एक-दूसरे पर लगाए। एक-दूसरे की कमीज को ज्यादा स्याह-सफेद बताने को लेकर खूब-खूब तर्क दिए गए। लेकिन इस स्याह-सफेद के बीच बुनियादी मुद्दे पूरे चुनाव में गायब रहे। न तो कांग्रेस ने उन मुद्दों को छुआ और न ही भारतीय जनता पार्टी ने। 
    पर्यावरण, विस्थापन और पलायन जैसे बुनियादी सवालों पर बात करने से दोनों ही दल बचे, जबकि इस पहाड़ी राज्य में इन मुद्दों पर ही बात होनी चाहिए थी। अलग राज्य बनने के बाद भी सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही राज्य के इन मूल सवालों को अनदेखा किया है जबकि उत्तराखंड राज्य के गठन के पीछे इन सवालों का भी बड़ा हाथ रहा है। लेकिन पर्यावरण असंतुलन को लेकर कई तरह के खतरों से जूझ रहे उत्तराखंड की चिंता किसी दल ने नहीं की। हद तो तब हो गई जब चुनाव प्रचार के दौरान उत्तराखंड में भूकम्प आया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभषण पर इसे लेकर जिस तरह की टिपण्णी की वह हैरान करने वाली रही। रोजगार नहीं मिलने की वजह से विस्थापन और पलायन भी उत्तराखंड के गांवों से हो रहे हैं लेकिन इस पर भी किसी दल ने न तो चिंता जताई और न ही बेरोजगारी दूर कर गांवों को स्मार्ट गांव बनाने का जिक्र तक किया। 
     उत्तराखंड में गांव के गांव खाली हो रहे हैं। लेकिन सियासी दलों के लिए यह न तो मुद्दा है और न ही इससे निबटने के लिए कोई ठोस उपाय। अलग राज्य बनने के बाद गांवों से पलायन रुकेगा और गांवों की तस्वीर बदलेगी, इसकी उम्मीद लोगों को थी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। हद तो यह है कि एक बार जो गांव से निकला फिर उसने गांव का रुख तक नहीं किया। अलग राज्य बनने के बाद विधानसभा का यह पांचवां चुनाव है और गांवों से पलायन सियासी दलों के एजंडे पर दिखाई तक नहीं दे रहा है। वह भी तब जब इन सोलह-सत्रह सालों में पलायन की रफ्तार लगातार बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो राज्य में कुल गांवों की तादाद लगभग सत्रह हजार है और इनमें से लगभग तीन हजार गांवों में सन्नाटा पसरा है। न तो आदमी है और न आदमजाद। इन गांवों में करीब ढाई लाख घरों पर ताला लटका है। यहां तक कि वोटर सूची में लोगों के नाम तो हैं लेकिन इन गांवों में वोट डालने वाला कोई नहीं है। 
    लेकिन सिर्फ इसी एक वजह से सवाल नहीं उठ रहे हैं। सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब इन गांवों की बसावट को देखते हैं। खास कर सामरिक दृष्टि जब डालते हैं तब गांव का वीरान पड़ा होना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ज्यादातर वीरान गांव चीन और नेपाल की सीमा से सटे हैं। इस वजह से बाहरी और आंतरिक खतरा दरपेश हो सकता है। लेकिन इन खतरों पर न तो उन्हें चिंता है जो देशभक्ति का राग अलापते हैं और न ही उन दलों को जो छदम देशभक्ति की बात करते हुए सियासत करते हैं। लेकिन उत्तराखंड के करीब तीन हजार खाली और वीरान पड़े गांव सवाल तो खड़े कर ही रहे हैं और इन सवालों से हर दल बच रहा है। इससे ही इन सियासी दलों की नीयत का पता चलता है। अगर नीयत साफ होती तो राज्य निर्माण के सोलह साल बाद पलायन जैसे मुद्दे पर सरकार गंभीर होती और इसे रोकने के उपाय करती। लेकिन न तो कांग्रेस और न ही भाजपा सरकार ने इस गंभीर मुद्दे की गंभीरता को समझा। अगर समझा होता तो इन गावों में मूलभूत सुविधाएं पहुंच गई होतीं और रोजगार के साधन मुहैया करा दिए गए होते। अगर ऐसा होता तो गांव खाली और वीरान नहीं पड़े होते। लेकिन कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने संसाधनों का दोहन किया और उद्योग धंधों के नाम पर बाहरी कंपनियों के हाथों नदियों और पहाड़ों को बेच दिया गया। उन कंपनियों ने न तो पर्यावरण का ध्यान रखा और न ही स्थानीय समस्याओं का। इसका नुकसान उत्तराखंड को ही भुगतना पड़ा। 
         कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही चुनाव में एक-दूसरे पर लूट खसोट का आरोप लगाया। सच है यह कि इस खेल में दोनों ही दलों की सरकारों ने राज्य के हितों का ध्यान न रख कर अपने हितों का ध्यान ज्यादा रखा। नहीं तो सोलह साल कम नहीं होते हैं किसी भी इलाके के विकास के लिए लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके में बसे दूर-दराज के गांवों की हालत आज भी वैसी ही जैसे सोलह साल पहले थी। अलग उत्तराखंड बनाने की मांग करने वालों ने उत्तराखंड की अस्मिता और पहचान के साथ-साथ पहाड़ी क्षेत्र के विकास का सपना देखा था। इनमें ये गांव भी शामिल थे, जहां लखनऊ से विकास की रोशनी नहीं पहुंच पाई थी। लेकिन इन सोलह सालों में सियासी दलों को तो फायदा हुआ पहाड़ के लोगों को नहीं। सच तो यह है कि सियासतदानों ने विषम भूगोल वाले पहाड़ के गांवों की पीड़ा को समझने की कोशिश तक नहीं की। नतीजा यह निकला कि न तो गांवों तक तालीम की रोशनी पहुंची और न ही रोजगार के साधन मुहैया हुए। दूसरी बुनियादी सुविधाएं भी इन गांवों तक नहीं पहुंचीं। 
    त्तराखंड की प्रशासनिक व्यवस्था पर नजर डालें तो राज्य में सरकारी अस्पताल तो खुले लेकिन इनमें चिकित्सकों के आधे से अधिक पद खाली हैं। दवा मिलने की बात तो छोड़ ही दें। तालीमी स्तर भी राज्य का भगवान भरोसे ही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बुनियादी शिक्षा बदहाल है। सरकारी प्राथमिक स्कूलों में 40 फीसद से अधिक बच्चे गुणवत्ता के मामले में औसत से कम हैं। 71 फीसद वन भूभाग होने के कारण पहाड़ में तमाम सड़कें अधर में लटकी हुई हैं। रोजगार के अवसरों को लें तो 2008 में पर्वतीय औद्योगिक प्रोत्साहन नीति बनी, मगर उद्योग पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाए। करीब चार हजार के करीब गांवों को बिजली का इंतजार है। जिन क्षेत्रों में पानी, बिजली की सुविधाएं हैं, वहां भी प्रशासन की उदासीनता की वजह से इनका लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पा रहा है। इन वजहों से पलायन की रफ्तार में इजाफा हुआ है। गांव से पलायन कर लोग शहरों में डेरा जमा रहे हैं. शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है। लेकिन इसकी फिक्र किसी को नहीं है। सत्ता चल रही है और अधिकारी चला रहे हैं।

कभी इन खेतों में लहलहाती थी फसलें। गांवों से दूर के खेत अब बंजर पड़ गये हैं। हर गांव का यही हाल है। चित्र : सुशील पंत  

     आंकड़ों पर नजर डालें तो पलायन के कारण अल्मोड़ा और पौड़ी जिलों में आबादी घटी है तो दूसरी तरफ देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, ऊधमसिंहनगर में आबादी में इजाफा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय एकीकृत विकास केंद्र (ईसीमोड) के अध्ययन के मुताबिक कांडा (बागेश्वर), देवाल (चमोली), प्रतापनगर (टिहरी) क्षेत्र के गांवों से पलायन दर काफी बढ़ी है और अब यह लगभग 50 फीसद तक पहुंच गई है। इनमें 42 फीसद ने रोजगार, 26 फीसद ने शिक्षा और 30 फीसद ने मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गांव छोड़ने का फैसला किया। लेकिन ये आंकड़े भी सरकारों को विचलित नहीं कर पाती हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों ने इस पर गंभीरता से कभी विचारा ही नहीं। सरकारें चाहे जिसकी भी रहीं हो पलायन को रोकने के लिए किसी ने कारगर कदम नहीं उठाए। न तो रोजगार के अवसर तलाशने की कोशिश की गई न ही कोई ठोस नीति बनाई गई। चुनाव के समय लुभावने और चमकदार नारे जरूर उछाले गए लेकिन सत्ता पाते ही सारे नारे अगले चुनाव तक के लिए संभाल कर रख दिए जाते रहे। 
      इस चुनाव में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। इतना ही नहीं इस चुनाव में बांध व दूसरी बड़ी परियोजनाओं, खदान, शराब, बेरोजगारी, पर्यटन और इनकी वजह से हो रहा विस्थापन किसी भी दल के लिए मुद्दा नहीं था, जबकि उत्तराखंड के लिए ये जरूरी सवाल हैं। 2013 की त्रासदी से प्रभावित लोग अभी भी ठीक तरीके से न तो बसाए गए हैं और न ही उन्हें उचित मुआवजा मिला है। लेकिन ये मुद्दे गौण रहे। गंगा जहां से निकली है वहां भी गंगा का संरक्षण ठीक से नहीं हो रहा है। टिहरी बांध से जुड़े मसलों पर भी कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। इस बांध के आसपास रहने वाले लोग रोजाना ही नहीं परेशानियों से दोचार होते रहते हैं लेकिन सियासी दलों को यह परेशानियां नजर नहीं आती हैं. गांवों के घरों में दरार, भूधंसान के साथ-साथ पुनर्वास जैसे मसले तो आम बात हैं। लेकिन इन पर सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। बांध बनाने वाली कंपनियां गाद और गंदगी नदियों में फेंक रही हैं जिससे पर्यावरण संतुलन पर भी असर पड़ा है लेकिन इसकी फिक्र किसी को नहीं है। चुनाव निपट गए, लेकिन मसले जस के तस हैं। इन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाला समय पहाड़ के लोगों पर और भारी पड़ सकता है। 

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

शैव पीठ एकेश्वर में 'खड़रात्रि' से पड़ी थी कौथीग की नींव

जय एकेश्वर महादेव : स्थानीय लोगों की प्रयासों से मंदिर को नया स्वरूप मिला है। फोटो सौजन्य ... रविकांत 

     बैसाख, यानि भारतीय काल गणना के अनुसार वर्ष का दूसरा महीना। भारतीय काल गणना के सभी 12 महीनों में बैसाख को सबसे पवित्र माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार नारद ने राजा अम्बरीष से कहा कि ब्रह्माजी ने बैसाख मास को सभी महीनों में उत्तम बताया है। कहते हैं कि यह भगवान विष्णु का भी प्रिय मास है। इसका संबंध देव अवतारों और धार्मिक परंपराओं से है। बैसाख में ही विभिन्न देव मंदिरों के पट खुलते हैं और विभिन्न स्थलों पर विशेष महोत्सवों का आयोजन किया जाता है। उत्तराखंड में बैसाख के महीने ऐसे कई महोत्सवों या मेलों का आयोजन किया जाता है जिन्हें स्थानीय भाषा में थौळ या कौथीग कहा जाता है। गढ़वाल मंडल में बैसाख के महीने में कई स्थानों पर अलग अलग तिथियों को इस तरह के कौथीग का आयोजन होता है। ऐसा ही एक मेला है 'इगासर कौथीग' या एकेश्वर का मेला। आज 'घसेरी' आपका परिचय एकेश्वर से कराएगी। आज इगासर का कौथीग है तो इस पावन दिन पर मेरे साथ कौथीग का आनंद लीजिए। 
      इगासर कौथीग हर साल दो गते बैसाख को होता है। इसका अपना धार्मिक महत्व है। एकेश्वर में शैव पीठ है और यहां पर भगवान शिव का मंदिर है। माना जाता है कि शैवपीठ के कारण ही इस जगह का नाम एकेश्वर पड़ा। केदार क्षेत्र के अंतर्गत पांच शैव पीठ आते हैं और इनमें एकेश्वर भी शामिल है। अन्य शैव पीठ ताड़केश्वर महादेव, बिन्देश्वर महादेव, क्यूंकालेश्वर महादेव और किल्किलेश्वर महादेव हैं। एकेश्वर के शिव मंदिर में वर्षों पहले से पति पत्नी संतान की प्राप्ति के लिये 'खड़रात्रि' करते रहे हैं। उत्तराखंड के कई मंदिरों में खड़रात्रि की जाती है। खड़रात्रि में संतान प्राप्ति के लिये महिलाएं अपने पति के साथ रात भर हाथ में दीपक जलाकर खड़ी रहती हैं और इस बीच भगवान शिव की स्तुति करती हैं। एकेश्वर महादेव में हर साल बैसाख दो गते को खड़रात्रि होती है। इस दिन यहां श्रद्धालु पूजा अर्चना के लिये आते हैं। धीरे धीरे इसने मेले का रूप ले लिया है और फिर बैशाख दो गते को एकेश्वर में मेला लगने लगा। एकेश्वर को गढ़वाली भाषा में इगासर कहते हैं और इसलिए इस मेले को 'इगासर कु कौथीग' कहा जाता है। चौंदकोट ही नहीं पौड़ी गढ़वाल में इस मेले से कौथीग की शुरूआत होती है। कौथीग के दिन लोग खेतों में उगाये गये पहले अनाज को भी भगवान शिव का अर्पण करते हैं। शिवरात्रि के दिन भी यहां शिवलिंग में दूध, गंगाजल और बेलपत्री चढ़ाने के लिये भक्तों की भीड़ लगी रहती है।भक्तजन समय समय पर एकेश्वर महादेव में भंडारे का आयोजन भी करते हैं। 

एकेश्वर महादेव मंदिर के पास स्थि​त वैष्णवी दरबार में लेखक परिवार के साथ। 
     एकेश्वर का आज से नहीं बल्कि हजारों वर्षों से धार्मिक महत्व रहा है। कुछ पौराणिक संदर्भों में कहा गया है कि यहां पर पांडवों ने भगवान शिव की तपस्या की थी। जहां तक मंदिर का सवाल है तो कहा जाता है कि उसकी स्थापना संवत 810 के आसपास आदि गुरू शंकराचार्य ने की थी। यहां कई प्राचीन मूर्तियां हैं जिससे लगता है कि इस मंदिर की स्थापना सैकड़ों वर्ष पहले की गयी थी। मंदिर का कई बार पुननिर्माण हुआ। पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय लोगों की मदद से इसे नया और भव्य रूप दिया गया इसलिए अब यह वर्तमान समय के मंदिरों जैसा ही लगता है। एकेश्वर के मुख्य मंदिर के अलावा यहां पर मां वैष्णवी दरबार, वैष्णवी देवी गुफा और भैरव मंदिर भी है। कहा जाता है कि भैरव मंदिर के अंदर से लेकर बद्रीनाथ मंदिर तक सुरंग थी जो कि वर्षों पहले बंद कर दी गयी।

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

     एकेश्वर महादेव कई वर्ष पहले मोटर मार्ग से जुड़ गया था। कोटद्वार या पौड़ी के रास्ते यहां पहुंचा जा सकता है। सतपुली से एकेश्वर के लिये बस या टैक्सी नियमित रूप से जाती रहती हैं। पौड़ी के रास्ते सतपुली होते हुए या फिर ज्वाल्पा से जणदादेवी होते हुए पहुंचा जा सकता है। इसके अलावा बौंसाल और ज्वाल्पा के बीच से भी दो नये मोटरमार्ग बन गये हैं जो एकेश्वर तक जाते हैं। एकेश्वर में पहुंचने पर सड़क से ही मंदिर का सीढ़ीनुमा रास्ता है। मंदिर के पास ही बांज और चीड़ का जंगल तथा शीतल जल का झरना है। 
     कौथीग मंदिर के ऊपर स्थित बाजार में लगता है। एक जमाने में यहां मंदिर तक पूरी सड़क पर दुकानें सजी होती थी। मेरा गांव स्योली है जो एकेश्वर से लगभग आठ दस किमी की दूरी पर स्थित है, लेकिन मैं केवल एक बार इगासर कौथीग गया था। उस समय वहां बहुत भीड़ होती थी और लोग बाजार के ऊपर स्थित जंगल में भी बैठे रहते थे। तरह तरह की दुकानें सजी रहती थी। सच कहूं तो उस समय कुछ उपद्रवी तत्वों से डर भी लगता था। घर वाले इगासर कौथीग जाने के लिये इसलिए मना करते थे क्योंकि वहां लगभग हर साल किन्हीं भी दो गुटों या गांवों के बीच झगड़ा हो जाता था। अब मुझे बताया गया है कि ऐसा नहीं है। कौथीग में ज्यादा भीड़ नहीं होती और दुकानें भी कम सजती हैं। एकेश्वर महादेव के दर्शन करने के लिये आसपास के गांवों के लोग जरूर जाते हैं। तो फिर देर किस बात की। आप भी जाइए न इगासर कौथीग। मुझे पूरा विश्वास है कि एकेश्वर महादेव के दर्शन करके आपको अच्छा लगेगा। तो बटोर लाइये एकेश्वर से कुछ यादें और मेरे साथ इस ब्लॉग पर शेयर करिये। मुझे इंतजार रहेगा। बोलिये जय एकेश्वर महादेव। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत


------- Follow me on Twitter @DMPant
badge