खिचड़ी भी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन सकती है यह लोकतांत्रिक देश भारत में ही संभव है। लेकिन भला हो खिचड़ी का जिसके बहाने मुझे गिंजड़ी की याद आ गयी। गिंजड़ी ही नहीं बाड़ी, पल्यो, छछिन्डु सब जेहन में घूम गये। बचपन में कभी न कभी इनका स्वाद जरूर लिया है। खिचड़ी को पौष्टिकता से भरपूर गिंजड़ी बनाना तो कोई हम पहाड़ियों से सीखे। हमें 'बाड़ी खैंडणा' भी आता है और 'पल्यो सपोड़ना' भी। हमारी नयी पीढ़ी जरूर इनसे अनभिज्ञ है इसलिए आज मैं उनका अपनी 'घसेरी' के जरिये 'गिंजड़ी' और ' बाड़ि या बाड़ी' से परिचय करवा रहा हूं।
भारत में खिचड़ी क्षेत्र के हिसाब से अलग अलग तरीके से बनायी जाती है और इसलिए गिंजड़ी भी खिचड़ी का ही एक रूप है। गढ़वाल में गिंजड़ी को गिंजड़ु, गिंजड़ू, गिंजड़ो आदि नामों से भी जाना जाता है। यह सदियों से पहाड़ के व्यंजनों में शामिल है। बेहद पौष्टिक है और खिचड़ी के भी गुण इसमें समाये होते हैं। गिंजड़ी मैंने बचपन में खायी थी। मां बनाती थी क्योंकि दादी ने अपने बच्चों को गिंजड़ी काफी खिलायी थी और मैंने पिताजी को कई बार मां से कहते सुना कि 'आज गिंजड़ी या फिर बाड़ी खाने का मन कर रहा है।' कई बार हमें न चाहते हुए गिंजड़ी या बाड़ी खानी पड़ी लेकिन ऐसे मौके बहुत कम आये। अब जरूर मन करता है कि काश वे मौके बार बार आते।
बहरहाल अब बात इस पर करते हैं कि गिंजड़ी कैसे बनायी जाती है। इसको बनाना भी खिचड़ी की तरह आसान है। बस अंतर यह है कि खिचड़ी के लिये चावल की जरूरत होती है और गिंजड़ी झंगोरा (झंगोरा के बारे में पढ़ने के लिये क्लिक करें — झंगोरा : बनाओ खीर या सपोड़ो छांछ्या) से बनायी जाती है। गिंजड़ी को झंगोरा के साथ काले भट और इसी तरह की अन्य पहाड़ी दालों को मिलाकर बनाया जाता है। खिचड़ी सूखी भी हो सकती है लेकिन गिंजड़ी सूखी हो तो फिर मजा नहीं। मैंने चाचाजी श्री हरिराम पंत से जब गिंजड़ी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि बजरू (बाजरा) की बहुत अच्छी गिंजड़ी बनती है। सुना है कि एक बार सरकार ने पहाड़ों में अन्न के नाम पर बाजरा का खूब वितरण किया था और शायद तभी से वहां के लोगों ने इससे गिंजड़ी बनाना सीखा होगा। बाजरा को उरख्यालु (ओखली) में कूट कर उसका बाहर का छिलका बाहर निकाल दिया जाता है और अंदर वाले दानों के साथ दालें मिलाकर गिंजड़ी तैयार कर दी जाती है। वैसे चावल और विभिन्न तरह की दालों को एक साथ मिलाकर बने पकवान को भी गिंजड़ी या गिंजोड़ो कहा जाता है।
बाड़ी खैंडणू
ये तो रही बात गिंजड़ी की लेकिन मैंने पहले कहा था कि आपका आज 'बाड़ी' से भी परिचय कराऊंगा तो अब बात की जाए इस विशेष पहाड़ी व्यंजन की। बाड़ी मंडुआ के आटे (चूनो या चूनू) से तैयार किया जाता है और इसे खास तौर पर मसफ्वड़ी (काली दाल पीस बनाया जाने वाला व्यंजन) के साथ खाया जाता है। बाड़ी बनाने के लिये पहले पानी उबाला जाता है। इसके ऊपर शुरू में थोड़ा सा चूनो डाल दिया जाता है जिसे 'छापड़' कहते हैं। जब पानी खौलने लग जाए तो उसमें मंडुआ का आटा डाला जाता है। फिर इसे लगातार 'दबळु' (लकड़ी का बना एक विशेष तरह का गोलाकार वस्तु) से घुमाया जाता है। इसी को गढ़वाल में 'बाड़ी खैंडणू' यानि बाड़ी घोटना कहा जाता है। चाचाजी ने बताया कि दादी कहती थी कि बाड़ी तब तक घोटना चाहिए जब तक उसमें गैस के बुलबुले नहीं फूट जाएं। छोटी चाचीजी श्रीमती मनोरमा पंत को बाड़ी खाने का बहुत शौक है और वह दिल्ली में रहकर भी बाड़ी बनाती है और दबळु की जगह पर बेलन का उपयोग करती हैं। कुछ लोग मीठा बाड़ी भी बनाते हैं। अंतर इतना है कि इसे गुड़ के खौलते पानी में मंडुवे का आटा डालकर तैयार किया जाता है। इसे मंडुवे के आटे का हलवा भी कहा जाता है।
ये तो थी गिंजड़ी और बाड़ी की बात। कैसा लगा आपको इसका स्वाद। बताना जरूर। गिंजड़ी और बाड़ी खाने के लिये तो 'घसेरी' आपका मेहमान बनने के लिये भी तैयार है। 'घसेरी' से अपना प्यार बनाये रखिये। आपका धर्मेन्द्र पंत
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बाड़ी हमने बचपन में बहुत खाई है व बम्बई म मैंने बेलन से खरोल कर बड़ी बनाई है। पड़ोसिओ को भी स्वाद चखाया।
जवाब देंहटाएंइसे हम पहाड़ी गोल गप्पे भी कह सकते है. क्यों की खाने का तरीका भी एक झटके में गरमा गरम निगलना पड़ता है. गोल गपे की तरह। गोल गपे का खटाई युक्त पानी की जगह मॉस्फोणी या पतली खिचड़ी के साथ खाने का मज़ा ही और कुछ है।
Khushal Singh Rawat, Mumbai
आपने सही कहा रावत जी इसे गरमा गरम खाना पड़ता था। मुझे याद है मां बोलती थी पिताजी से 'बाड़ी बणिगे जल्द खाणकु आवा।'' खानपान भी संस्कृति का हिस्सा होता है जिन्हें हमें जीवित रखना होगा।
हटाएंबहुत अच्छा भुला धर्मेन्दरा
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भैजी।
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