शनिवार, 5 अगस्त 2017

लोकभाषाओं को लेकर मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को खुला खत

माननीय मुख्यमंत्री जी,
     पिछले दिनों के आपके दो ट्वीट पढ़ने को मिले और तभी से मेरा मन था कि आपके साथ इस विषय पर संवाद करूं। मैं पौड़ी गढ़वाल जिले के स्योली गांव का मूल निवासी हूं लेकिन फिलहाल नयी दिल्ली में बसा हुआ हूं। पेशे से पत्रकार हूं और वर्तमान में समाचार एजेंसी पीटीआई भाषा में कार्यरत हूं। यह मेरा संक्षिप्त परिचय है। महोदय, आपने दोनों ट्वीट में स्थानीय बोली या भाषा में लोगों से संवाद करने की बात की है। मुझे आपके ट्वीट से महान नेल्सन मंडेला का कथन याद आ गया। उन्होंने कहा था, ‘‘अगर आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वह समझता है तो वह उसके केवल दिमाग तक जाएगी लेकिन यदि आप उस से उसकी भाषा में बात करते हैं तो वह उसके दिल तक जाएगी।’’ स्वाभाविक है कि जब स्थानीय भाषा में लोगों से बात करेंगे तो वह उनके दिलों तक जाएगी। 
    आपके ट्वीट से यह भी स्पष्ट होता है कि आप स्थानीय लोकभाषाओं पर मंडरा रहे खतरे को लेकर चिंतित हैं। असल में जिस तरह से गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि उत्तराखंड की तमाम भाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या में कमी आ रही है तो चिंताग्रस्त होना स्वाभाविक है और मुझे खुशी है कि आप इसके प्रति गंभीर हैं। 
     भैजी मुझे लगता है कि इस संदर्भ में सबसे पहले हमें अपनी लोकभाषाओं के बारे में जानना और फिर उन पर मंडरा रहे खतरों के कारणों का पता लगाना जरूरी है। विश्व भर में स्थानीय भाषाओं पर मंडरा रहे खतरे से यूनेस्को से लेकर भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण तक में चिंता जतायी है। भारत में 1961 की जनगणना में 1652 भाषाओं का जिक्र किया गया है लेकिन 2001 की जनगणना में केवल 122 भाषाओं के बारे में ही बताया गया है। आज ही मैंने एक हिन्दी दैनिक में खबर पढ़ी कि देश की 400 भाषाएं अगले 50 वर्षों में खत्म हो जाएंगी और अचानक ही दिमाग में अपने उत्तराखंड की भाषाएं तैरने लगी। 


      रावत जी आपने एक पुरानी कहावत सुनी होगी ‘‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बाणी।’’ उत्तराखंड में यह अक्षरशः लागू होती है। यहां भाषाओं की भरमार है लेकिन देश भर की 800 से अधिक भाषाओं पर सर्वे करने वाली सरकारी संस्था ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियन लैंग्वेज’ यानि पीएलएसआईएल ने इसमें उत्तराखंड की 13 भाषाओं को स्थान दिया था। ‘भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण’ में भी इन 13 भाषाओं को ही रखा गया है। इन भाषाओं में गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जौनपुरी, रवांल्टी, बंगाणी, जाड़, जोहारी, बुक्साणी, राजी, मार्च्छा, थारू और रंघल्वू शामिल हैं। यूनेस्को ने एक सारणी तैयार की थी जिसमें विश्व की उन सभी भाषाओं को शामिल किया था जो असुरक्षित हैं या जिन पर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाओं गढ़वाली और कुमांउनी को इसमें ‘असुरक्षित’ वर्ग में रखा गया था। जौनसारी और जाड़ जैसी भाषाएं ‘संकटग्रस्त’ जबकि बंगाणी ‘अत्याधिक संकटग्रस्त’ की श्रेणी में आ गयी। अगर वर्तमान स्थिति नहीं बदली तो हो सकता है कि आने वाले 10—12 वर्षों में ही बंगाणी लोकभाषा खत्म हो जाए। भोटान्तिक भाषाएं जैसे जोहारी, मार्च्छा व तोल्छा, जाड़ आदि ‘संकटग्रस्त‘ बन गयी हैं। राजी तो लगभग खत्म होने के कगार पर है। गढ़वाली और कुमांउनी उत्तराखंड की प्रमुख भाषाएं हैं लेकिन इन दोनों पर हिन्दी और अंग्रेजी पूरी तरह से हावी हैं। ऐसे में बाकी भाषाओं की स्थिति अधिक दयनीय बन गयी है। 
     यूनेस्को के अनुसार, ‘‘यदि किसी भाषा को तीन पीढ़ी के लोग बोलते हैं तो वह सुरक्षित है, यदि दो पीढि़यां बोल रही हैं तो वह संकट में है और यदि केवल एक पीढ़ी बोल रही है तो उस भाषा पर गंभीर संकट मंडरा रहा है।’’ इस कसौटी पर अगर हम उत्तराखंड की भाषाओं को रखते हैं तो स्थिति गंभीर है और अपनी अगली पीढ़ी को अगर अब भी हमने अपनी भाषाओं के प्रति जागरूक नहीं किया तो फिर आगे हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएंगे। 
    भैजी सबसे बड़ा सवाल यह है कि उत्तराखंड की लोकभाषाएं अगर ''संकटग्रस्त'' बनीं तो क्यों? आपको याद होगा ​कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन का मुख्य मुद्दा था ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी’ को पहाड़ में रोकना है लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। उत्तराखंड राज्य के गठन से पहले ही पहाड़ के गांव खाली होने शुरू हो गये थे। उत्तराखंड की भाषाएं आज अगर संकट से गुजर रही हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण है पलायन है। सबसे पहले आपको पलायन रोकने और शहरों में बस चुके पहाड़ियों को गांवों की तरफ आकर्षित करने के लिये ठोस कदम उठाने होंगे। पलायन के पीछे रोजगार बड़ा कारण है और सचाई यह है कि अब तक उत्तराखंड में स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के सरकार की तरफ से कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये। बेहतर शिक्षा और चिकित्सा का अभाव भी एक कारण है जिसके लिये लोग दिल्ली, देहरादून, मुंबई जैसे शहरों में बस गये तथा नयी पीढ़ी के लिये गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि अपनी भाषा पीछे छूट गयी। लोगों के दिमाग में यह बात बैठ गयी है कि यदि हम अपने बच्चों को अपनी भाषा सिखाते हैं तो वे पिछड़ जाएंगे। इसके लिये अब आपको खुद अपनी भाषाओं का 'ब्रांड एंबेसडर' बनना होगा। आपको लोगों को अपने घरों में स्थानीय भाषा में बात करने के लिये प्रेरित करना होगा। जैसा कि आपने अपने ट्वीट में कहा है, अगर आप उस पर पूरी तरह से अमल करते हैं तो लोगों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी। लोगों के दिमाग में यह बात बिठानी होगी कि अपनी भाषा में बात करना हीन भावना नहीं बल्कि सम्मान की बात है। यह संदेश घर घर तक पहुंचाने में आप अहम भूमिका निभा सकते हैं। 
    मुख्यमंत्री जी उम्मीद है कि आपको यह पत्र उबाऊ नहीं लग रहा होगा। लेकिन भैजी यह गंभीर विषय है क्योंकि जब भाषा जिंदा रहती है तो उसके साथ भूगोल, इतिहास, संस्कृति, सरोकार, कृषि, बागवानी, पशुपालन, परंपराएं, पूरी संस्कृति और सामाजिक सरोकार भी जिंदा रहते हैं। भाषा बदलने के कारण पहाड़ की संस्कृति और परंपराएं भी प्रभावित हो रही हैं। 
    त्तराखंड की भाषाओं को बचाने के लिये कहा जा रहा है कि इसे पाठ्यक्रम में शामिल कर देना चाहिए। मैं भी इस कदम का समर्थक हूं। यूनेस्को की महानिदेशक इरिना बुकोवा का कहना है कि ‘‘अच्छी शिक्षा के लिये मातृभाषा जरूरी अवयव है जो असल में महिलाओं ओर पुरुषों के साथ उनके समाज को भी मजबूत बनाने की नींव है।’’ पिछले साल मैंने अपने ब्लॉग में उत्तराखंड की भाषाओं पर लिखा था तो सवाल उठे थे कि क्या इन लोकभाषाओं को भाषा कहना सही होगा क्योंकि यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हैं और इसकी लिपि भी नहीं है। मैंने तब पीपुल्स लिंगुइस्टिक सर्वे के संयोजक गणेश देवी के एक बयान का सहारा लिया था। उन्होंने कहा था, ‘‘जिसकी लिपि नहीं है उसे बोली कहने का रिवाज है। इस तरह से तो अंग्रेजी की भी लिपि नहीं है। उसे रोमन में लिखा जाता है। किसी भी लिपि का उपयोग दुनिया की किसी भी भाषा के लिये हो सकता है। जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलोजी में नहीं आयी, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग। इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा।’’ संविधान भी हमें इन भाषाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की छूट देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350ए में प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा में शिक्षा की सुविधा देने की बात की गयी है। 
    भैजी एक बड़ा सवाल यह भी है कि उत्तराखंड की भाषाओं को यदि पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो उन्हें किस तरह से समायोजित किया जाए क्योंकि 13 भाषाओं के अलग अलग नहीं रखा जा सकता है। मुझे इसका एक सरल उपाय लगता है कि तीन मुख्य भाषाओं गढ़वाली, कुमांउनी और जौनसारी को उनके क्षेत्रों के हिसाब से पाठ्यक्रम में शामिल करके उनके ज्यादा करीबी भाषाओं के कुछ अध्याय उसमें शामिल किये जा सकते हैं। पाठ्यक्रम में वहां की संस्कृति, वहां के लोक गीतों, मुहावरों, लोक कथाओं, लोकोक्तियों, किवदंतियों, पहेलियों आदि को शामिल किया जा सकता है। कहने का मतलब है कि पाठ्यक्रम रोचक होना चाहिए। 
    रावत साहब अगर भाषा पाठ्यक्रम का हिस्सा बनती है तो वह रोजगार भी पैदा करेगी। अगर उत्तराखंड की भाषाओं को आप किसी तरह से रोजगार से जोड़ने में सफल रहते हैं तो नयी पीढ़ी खुद ही इन भाषाओं को सीखने का प्रयास करेगी। अभी उत्तराखंड की भाषाओं का सबसे कमजोर पक्ष यही है कि वे रोजगार की भाषाएं नहीं हैं। उनका आर्थिक पक्ष बेहद कमजोर है। हमें अपनी भाषाओं को नयी तकनीकी से भी जोड़ना होगा। हमें स्थानीय भाषाओं की उन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को सहयोग देना होगा जिनमें से अधिकतर आर्थिक संकट के कारण दम तोड़ रही हैं या किसी तरह खींचतान के जिनका प्रकाशन किया जा रहा है। 
   भैजी आखिर में मैं यही कहूंगा कि प्रत्येक भाषा का एक संपूर्ण इतिहास और भूगोल होता है। जब एक भाषा खत्म होती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान भी लुप्त हो जाता है। इस संपूर्ण ज्ञान को बचाने की जिम्मेदारी अब आपके मजबूत कंधों पर है। हम सब आपके साथ हैं। हमारा सहयोग हमेशा आपके साथ बना रहेगा। शुभकामनाओं सहित। 
                 आपका भुला 
                धर्मेन्द्र पंत 
                एक पलायक पहाड़ी 
           ‘‘दशा और दिशा : उत्तराखंड की लोकभाषाएं’’ के लेखक


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सोमवार, 17 जुलाई 2017

सावधान! दबाव में बिखर न जाए कहीं बच्चा

इसमें पहली तस्वीर वरिष्ठ खेल पत्रकार श्री संजीव मिश्रा और दूसरी तस्वीर उत्तराखंड शिक्षा विभाग में कार्यरत श्री कैलाश थपलियाल के फेसबुक पेज से ली गयी है। इन पर गौर करिये, मनन करिये।  

      पिछले दिनों फेसबुक पर दो तस्वीरें देखी जिनसे मन विचलित हो गया। पहली तस्वीर वरिष्ठ खेल पत्रकार और ​मेरे मित्र संजीव मिश्रा ने पोस्ट की थी। यह उनके घर के शौचालय की तस्वीर थी जिस पर उनके बेटे ने त्रिकोणमिति के सूत्र चस्पा कर रखे थे। संजीव ने अपनी पोस्ट के साथ लिखा था, ''सुबह वाशरूम में ट्रिग्नोमैट्रिक टेबल व फाॅर्मूले चिपके देख चौंक गया। हमारे एजुकेशन सिस्टम ने बच्चों को यहां भी फ्री नहीं छोड़ा। पढ़ाई के इस बोझ को कितना जायज माना जाए?'' बेहद गंभीर सवाल जो हमारी शिक्षा व्यवस्था पर करारी चोट करता है। 
    दूसरी तस्वीर मित्र कैलाश थपलियाल ने पोस्ट की थी। पौड़ी गढ़वाल के जयहरीखाल में बस का इंतजार करते बच्चे लेकिन हाथों में किताब लिये कुछ याद करते हुए। कैलाश भाई ने बेहद सटीक शब्दों में पूरी व्यवस्था पर कटाक्ष भी किया था, ''आखिर किस दिशा में जा रही है हमारी आज की शिक्षा। कल जयहरीखाल में अपनी स्कूल की गाड़ी का इंतजार करते हुए परीक्षा रूपी भय से रट्टू तोता बन रहे इन बच्चों को देखकर यही लग रहा है कि आज के समाज में परीक्षा से इतना भय क्यों? जबाब भी आखिर अपुन के ही पास अंतर्मन में ही मौजूद था। कुकुरमुत्तों की तरह उग चुके प्राइवेट स्कूलों ने बच्चों की अच्छे नंबर लाने की प्रतिस्पर्धा को उनके माता-पिता और अभिभावकों के मान-सम्मान से जोड़ दिया है। माता-पिता की बच्चों से अधिक अपेक्षाओं के कारण बच्चों के कोमल दिमाग और शरीर एक असहनीय बोझ से दब कर बच्चों को मानसिक तनाव की ओर ले जा रहे हैं.......।''
   अगर आपने इन तस्वीरों को गौर से देख लिया है तो इन पर विचार करिये। खुद को टटोलिये और खुद से पूछिये कि क्या आपके बच्चे भी इस पीड़ा से गुजर रहे हैं। क्योंकि अन्य देशों की तुलना में भारत में माता पिता बच्चों पर अच्छे अंक लाने का अधिक दबाव बनाते हैं। यहां हर कोई चाहता है कि उसका बच्चा आलराउंडर बने। ऐसे में सफलता हासिल करने के बजाय बच्चे के मनोमस्तिष्क पर पड़ने वाले दबाव से वह नाकामी की तरफ बढ़ने लगता है। बच्चे पर दबाव बनाने से वह कभी पढ़ाई के प्रति प्रेरित नहीं होगा बल्कि वह उससे जी चुराएगा। उनके अंदर असफलता का डर भर जाएगा और ऐसी स्थिति में उसके नाकाम होने की संभावना बढ़ जाएगी। यह मत भूलिये कि भारत में आत्महत्या के दस प्रमुख कारणों में परीक्षा में असफलता भी शामिल है। नाकामी का खौफ बच्चे को खतरनाक कदम उठाने के लिये प्रेरित कर सकता है। 

बच्चे को नकारात्मक और बीमार बनाता है  दबाव 


    गर आप का बच्चा पढ़ाई से जी चुरा रहा है या खेलने और अन्य कार्यों में भी उसका मन नहीं लग रहा है तो आपको सतर्क होने की जरूरत है। ऐसे में बच्चे के दिमाग में नकारात्मक भाव उत्पन्न हो सकते हैं और उसका व्यवहार आक्रामक हो सकता है। इस स्थिति में बच्चे की भावनाओं, उसकी मनोदशा को समझना जरूरी होता है। अगर आप बच्चे पर चिल्लाने या दबाव बनाने से सकारात्मक परिणाम की उम्मीद कर रहे हैं तो फिर आप गलत हैं। बच्चों से अच्छा परिणाम हासिल करने का यही तरीका है कि उन पर दबाव बनाने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित किया जाए। दुनिया भर में सैकड़ों शोध इस विषय पर किये गये और सबका एक ही परिणाम था कि बच्चों पर दबाव डालने से उन पर नकारात्मक असर पड़ता है जो उनके संपूर्ण विकास में सबसे बड़ा बाधक बनता है। कई बच्चे विलक्षण होते हैं लेकिन उम्र बढ़ने के साथ वे खुद को नहीं संभाल पाते और जैसी उम्मीद उनसे बचपन में की जाती है, वे उस पर खरा नहीं उतर पाते हैं। 
      इसका एक बड़ा कारण बच्चे का अपना बचपन नहीं जी पाना भी है। इसलिए आप खुद से एक सवाल करिये कि क्या आपका बच्चा बचपन का वैसा आनंद ले रहा है जैसा कभी आपने लिया था? इस सवाल पर मनन करिये। याद करिये अपने बचपन को। मेरी अपनी पत्नी से कई बार बहस हो जाती है क्योंकि मुझे लगता है कि वह बच्चों पर अनावश्यक दबाव बना रही है। इससे वह खुद भी तनाव में आ जाती है। मैं तब उन्हें अपना बचपन याद करने के लिये कहता हूं। इस पर भी उनके अपने तर्क होते हैं। समय जरूर बदल गया है, लेकिन बचपन जैसे पहले था वैसा आज भी है और हमें अपने बच्चों से उस बचपन को छीनने का कोई अधिकार नहीं है। .... लेकिन अफसोस कि आज बच्चों से बचपन छीना जा रहा है। किशोरावस्था का पहला चरण 13 साल की उम्र होती है लेकिन अगर आपका बच्चा 10 या 11 साल की उम्र में एक किशोर जैसा व्यवहार करता है तो इस पर ​इतराने की जरूरत नहीं है। यह चिंता का विषय है। तब आप यह क्यों भूल जाते हो कि वह जल्द ही वयस्क और प्रौढ़ भी होगा।  
     बच्चे उच्च रक्तचाप का शिकार भी हो रहे हैं। अभी कुछ अध्ययनों से पता चला है कि 11 से 12 साल के बच्चे भी उच्च रक्तचाप की समस्या से ग्रसित हो रहे हैं जो सोचनीय विषय है। विभिन्न तरह के गैजेट जैसे मोबाइल, कंप्यूटर और खान पान जैसे फास्ट फूड पहले ​ही बच्चे को बीमार बना रहे हैं। इस पर जब पढ़ाई के दबाव का तड़का लगता है तो फिर बच्चे का बीमार होना स्वाभाविक है। इसलिए खुद विचार करिये कि कहीं आप अपने बच्चे को बीमार तो नहीं बना रहे हो। 
     मैंने अपने बड़े बेटे प्रांजल को 12वीं परीक्षा के दौरान दबाव में देखा है। इसके बाद मैंने उसके दिमाग से अंकों का भूत निकाला। मैं अपने बेटे की सीमाएं जानता हूं लेकिन अंकों के दबाव में मैंने उसका आत्मविश्वास नहीं मरने दिया जिस पर वास्तव में मुझे भी नाज है। इसके बाद वह जहां भी इंटरव्यू के लिये गया तो साक्षात्कारकर्ता ने उसके आत्मविश्वास और सहज स्वीकार्यता की भावना की तारीफ की। अब वह एक अच्छे संस्थान में एडमिशन भी लेने जा रहा है। जब वह परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए बच्चों पर अंकों का दबाव न बनायें। मैं फिर से स्वेट मार्टेन के इस कथन को दोहरा रहा हूं कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आपके बच्चे के अंदर भी ऐसी कोई प्रतिभा छिपी होगी। उसे पहचानने में उसकी मदद करिये। 

आपका धर्मेन्द्र पंत 
© ghaseri.blogspot.in 


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रविवार, 18 जून 2017

आओ फिर से बोलें 'ब्वे, बुबाजी'

बुबाजी और उनकी गोद में मेरा बड़ा बेटा प्रांजल 
         सुबह लेकर उठते ही बड़े बेटे प्रांजल ने हमेशा की तरह पांव छुए लेकिन आज उनके मुंह से 'हैप्पी फादर्स डे' सुनने को भी मिला। मैंने मुस्करा कर उसे गले लगा दिया। मेरी निजी राय है कि फादर्स डे और मदर्स डे ये अंग्रेजों के चोंचले हैं और भारतीय संस्कृति में इसके लिये कोई जगह नहीं। मां और पिताजी के लिये एक दिन नियत नहीं किया जा सकता है। हमारे यहां तो हर दिन मां और पिताजी को नमन किया जाता है। अचानक ही मुझे सवाल सूझा। मैंने बेटे से पूछा, 'बेटा गढ़वाली में पापा के लिये क्या कहते हैं?'' प्रांजल ने थोड़ी देर अपना दिमाग दौड़ाया और फिर सही जवाब दिया। 'बोजी'। मैं फिर से मुस्कराया। मेरी दादी ने हम सभी भाई बहनों को सिखा रखा था कि बुबाजी बोलना है और जब हमारे साथी पिताजी बोलने लग गये थे तब हम बुबाजी ही बोलते थे। जल्दी में बोलने में बुबाजी 'बोजी' बन जाते थे। प्रांजल ने अपने पहले चार साल दादाजी के साथ बिताये थे और बचपन में अक्सर मेरे मुंह से बुबाजी के लिये संबोधन में निकला यह शब्द उसे याद रहा। 
      गढ़वाली में पिताजी के लिये कई संबोधन हैं जैसे बुबा, बुबाजी, बबा, बाबा, बबाजि। मुझे गर्व है कि मैंने अपनी पूरी उम्र बुबाजी या बोजी का ही उपयोग किया। मां के लिये भी कई बार 'ब्वे' बोलता था। कुछ बात करने के लिये 'हे ब्वे' बोलने का सुखद अहसास 'मम्मी' कहने में आ पाएगा, मेरे लिये अच्छी तरह से बयां करना मुश्किल है। मां और मांजि में भी मुझे अपनत्व लगता है। इसका यह भी कारण हो सकता है क्योंकि मैंने हमेशा मां, मांजि या ब्वे का ही उपयोग किया। ठीक उसी तरह जैसे मुझे पिताजी में नहीं बुबाजी या बोजी में अपनापन लगता है। 
         मुझे गढ़वाली कवि, गीतकार श्री दीनदयाल सुंद्रियाल 'शैलज' के एक गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं, ''ब्वे, बाब क्वी नि बुदु अब त मम्मी पापा जी, अंग्रेजी कि आग लगिं च तुम भि आग तापा जी।''  मदर्स डे और फादर्स डे इसी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत की देन है। बहरहाल बात उत्तराखंड की करते हैं। भारतीय भाषा सर्वेक्षण के अनुसार उत्तराखंड में कुल 13 लोकभाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से कुछ भाषाओं में मां और पिताजी के लिये संबोधन यहां पर दिये गये हैं। उम्मीद है कि आप अपनी बोली के अनुसार भविष्य में इनका उपयोग करेंगे।

        उत्तराखंड की विभिन्न लोक भाषाओं में मां और पिताजी के लिये संबोधन के शब्द 

मां 

गढ़वाली : ब्वे, बई, बोई, मांजि, मां, मयेड़, मातण 
कुमांउनी :  इज, जिया, अम्मा
जौनसारी : ईजी 
जाड़ : आॅ
बंगाणी : इजै 
रंवाल्टी : बुई, ईजा 
जौनपुरी : बोई 
थारू : अय्या
राजी : ईजलुअ, इहा 
मार्च्छा : आमा 
जोहारी, रंग ल्वू : ईजा, अम्मा

पिता 

गढ़वाली : बुबा, बोजी, बब, बबा, बाबा, बाबजि, पिताजि 
कुमांउनी : बाज्यू, बाब, बब, बौज्यू, बाबू 
जौनसारी : बाबा 
जाड़ : अबा, आवा
बंगाणी : बाबा 
रंवाल्टी : बा, बूबा, बाबा 
जौनपुरी : बबा 
थारू : दउवा, बाबा 
राजी : दैआ, बैबा 
मार्च्छा : अप्पा 

          इसके अलावा हो सकता है कि मां पिताजी के लिये कुछ स्थानों पर अन्य तरह के भी संबोधन हों। आप आप ब्लॉग में इसे समृद्ध कर सकते हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 


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सोमवार, 29 मई 2017

अखबार में आया रोल नंबर और मैं पास हो गया

         मां . पिताजी दोनों ​के मन में थोड़ा डर, थोड़ी चिंता भर गयी थी। डर और चिंता में भगवान ज्यादा याद आते हैं और इसलिए उन्होंने भी 'सत्यनारायण व्रत कथा' करवाने की मन्नत कर ली। असल में परिस्थितियां कुछ ऐसी ही बन गयी थी। मैं तब 15 साल का था जब मैंने उत्तर प्रदेश बोर्ड के तहत हाईस्कूल की परीक्षा दी थी। वर्ष था 1985 और उस साल परीक्षा में नकल रोकने के लिये परीक्षा केंद्र बदल दिये गये थे। मैं राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल में पढ़ता था लेकिन मेरा परीक्षा केंद्र राजकीय इंटर कालेज एकेश्वर था। मेरे गांव स्योली से लगभग दस किमी दूर। गांव के सामने लगभग तीन . चार किमी की चढ़ाई और फिर जंगल के रास्ते से गुजरकर पहुंचना पड़ता था एकेश्वर। परीक्षा सुबह सात बजे शुरू होती थी लेकिन मुझे एकेश्वर पहुंचने के लिये चार बजे उठना पड़ता था। गांव के कुछ और बच्चे भी परीक्षा दे रहे थे और पिताजी हमें आधे रास्ते तक छोड़ने के लिये आते थे। वह तब मुझे हर दिन एक रूपया दिया करते थे, जिन्हें मैंने खर्च नहीं किया। कुल 13 पेपर दिये थे और इस तरह से मेरे पास 13 रुपये जमा हो गये थे। 
        एकेश्वर में पढ़ने वाले बच्चों का परीक्षा केंद्र नौगांवखाल था। पहले दिन के पेपर में किसी तरह की सख्ती नहीं थी, लेकिन शाम को जब 12वीं की परीक्षा के दौरान नौगांवखाल में एकेश्वर के दो लड़कों का Rustication (रस्टकेशन हिन्दी में कहें तो निष्कासन मतलब जिसका रस्टकेशन हो गया उसके लिये आगे की परीक्षा बेमतलब हो  जाती है) कर दिया गया। एकेश्वर में खबर पहुंची और फिर वहां बदले की आग झुलसने लगी। कुछ बच्चों को दो परीक्षा केंद्रों के बीच चली आपसी जंग का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। नकल करते हुए पकड़े जाने पर उनका रस्टकेशन कर दिया गया। जो नकल के भरोसे थे वे भी 'बेचारे' बन गये। हमारे साथ भी दूसरे पेपर से कड़ी सख्ती बरती गयी। मार्च के महीने में सुबह काफी ठंड पड़ती थी लेकिन परीक्षा केंद्र पर हमारे जूते, मोजे, दस्ताने तक निकलवा दिये जाते थे। मुझे याद है कि तब जिला शिक्षा अधिकारी एक बेहद सख्त मिजाज की महिला थी जो नकल करने पर तुरंत रस्टकेशन करती थी। उनके 'फ्लाइंग स्क्वाड' में भी आठ . दस कड़क और परीक्षार्थियों की नजर में 'निर्मम' व्यक्ति शामिल थे। नकल के खिलाफ बना यह माहौल दिल में खौफ भी पैदा कर रहा था। गणित के पेपर में मुझे भी आशंका थी। मां . पिताजी को भी अपनी इस आशंका से अवगत करा दिया था और यही उनके डर व चिंता की मुख्य वजह थी। 


     जिस दिन परीक्षा परिणाम आना था। सभी के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थी। ​तब परिणाम स्थानीय समाचार पत्र अमर उजाला में प्रकाशित होता था। उसमें रोल नंबर के आगे प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी और तृतीय श्रेणी यानि F, S और T लिखा रहता था।  जिसका नंबर आ गया वह उत्तीर्ण जिसका नहीं आया वह अनुत्तीर्ण। जिस समाचार पत्र में परीक्षा परिणाम छपा रहता था उसके लिये मारामारी रहती थी। मुझे याद है कि नौगांवखाल का एक व्यक्ति पहले दिन शाम को ही कोटद्वार में डेरा जमा लेता था। वहां अखबार हाथ में आते ही वह उसे लेकर जल्द से जल्द नौगांवखाल पहुंच जाता और फिर उसके पास परीक्षा परिणाम देखने वालों की लाइन लग जाती। जो विद्यार्थी उत्तीर्ण हो जाता उससे पांच से दस रूपये लेता और अनुत्तीर्ण होने वाले को टेढ़ी नजर से देखता। आखिर उसने अनुत्तीर्ण होकर उसके पांच रूपये का नुकसान करा दिया था। बाद के वर्षों में परीक्षा परिणाम देखने से पहले ही 10 से 20 रुपये लिये जाने लगे थे।  
      पिताजी मेरा परीक्षा परिणाम देखने गये थे और मैं जंगल में गोरू (गाय बछड़े यानि डंगर) चराने चला गया था। मन में धुकधुकी लगी हुई थी। गांव का एक चचेरा भाई, जो मुझसे उम्र में बड़ा था, अपने गोरू मेरे पास छोड़कर नौगांवखाल निकल गया। उन्होंने कहा था कि अगर मैं पास हो गया तो वह जल्द से जल्द यह खबर मुझे देगा। मुझे याद है कि वह मुझे देखकर चिल्लाया था, 'धर्मेंद्र तू पास हो गया, सेकेंड डिवीजन है तेरी।' सच या झूठ। कई विचार एक साथ मन में कौंधे और फिर लगा कि पांव अब जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। गांव से केवल मैं ही पास हुआ था, बाकी सारे फेल। हमारी स्कूल से दसवीं की परीक्षा में शामिल लगभग 120 विद्यार्थियों में से केवल 18 पास हुए थे और उनमें मैं भी शामिल था। फिर भी थोड़ी धुकधुकी बनी रही क्योंकि किसी ने बताया कि प्रूफ की गलती से भी नंबर में गड़बड़ी हो सकती थी। इसलिए अगला एक सप्ताह इसी दुआ में बीता कि हे भगवान अखबार में जो कुछ छपा है वह सच निकले और जब मार्कशीट यानि अंक प्रमाणपत्र आया तो सब कुछ सच निकला। गणित में दो नंबर के ग्रेस मार्क्स से मैं द्वितीय श्रेणी में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ​गया था। मां ​. पिताजी खुश थे और उन्होंने बाकायदा सत्यनारायण की कथा करवायी।


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         सवीं की परीक्षा में मेरे 47 प्रतिशत अंक आये थे। बारहवीं में 51 प्रतिशत और फिर बीए में 58.5 प्रतिशत अंक लाकर मैं कालेज में अव्वल आया था। मैंने 1995 में प्राइवेट छात्र के तौर पर राजनीति शास्त्र से एमए किया। कुल 63 प्रतिशत अंक थे लेकिन मैं विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। तब की भाषा में कहूं तो गोल्ड मेडलिस्ट, जो मुझे कभी नहीं मिला। हां विश्वविद्यालय में प्रथम का एक प्रमाणपत्र हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय ने जरूर थमा दिया था। इस बीच पत्रकारिता की डिग्री भी प्रथम श्रेणी (65%) में ली थी। हमारे जमाने में अगर 10वीं या 12वीं की परीक्षा में किसी के 60 प्रतिशत अंक आते थे तो उसे जीनियस समझा जाता था। उसकी इज्जत बढ़ जाती थी लेकिन आज की स्थिति बदल गयी है। आलम यह है कि 95 प्रतिशत वाला भी पक्के तौर पर नहीं कह सकता है कि उसे दिल्ली विश्वविद्यालय में मनपसंद विषय में मनपसंद कालेज में एडमिशन मिल जाएगा। हमारे समय में निरीक्षक भी बड़े कंजूस हुआ करते थे, पता नहीं किन किन कारणों से अंक काट देते थे लेकिन अब राजनीति शास्त्र, हिन्दी या अंग्रेजी में भी 100 में से 100 नंबर आ रहे हैं। अपने जमाने में तो केवल गणित में यह संभव था। अंकों की इस होड़ में परीक्षार्थियों पर भी दबाव बढ़ रहा है। इससे रट्टामार पद्वति को भी प्रश्रय मिल रहा है। कुल मिलाकर हमारा जमाना ही सही था। दबाव हम पर भी रहता था तभी तो मैंने दसवीं की परीक्षा में बचाये गये 13 रूपयों को खाने पर खर्च नहीं किया था क्योंकि मैं भी उस दिन का इंतजार कर रहा था जब मेरी परीक्षाएं समाप्त हों और मैं बचाये गये पैसों से अपनी मनपसंद पत्रिका 'क्रिकेट सम्राट' खरीदकर रिलैक्स होकर उसे पढूं। क्रिकेट सम्राट के तीन अंकों के लिये मेरे पास पैसा था और अगले तीन महीने तक मैंने ऐसा किया भी। 
       और हां मेरा सभी माता पिताओं से आग्रह है कि वे अपने बच्चों पर अंकों के इस बोझ का दबाव नहीं बनायें। उन्हें अनुशासन में रखें लेकिन अपनी जिंदगी स्वतंत्र और सहज होकर जीने दें। मेरा बेटा जब परीक्षा के तनाव में था तो मैंने उसे समझाया कि ''हमारी जिंदगी में परीक्षा का उतना ही महत्व है जितना एक बड़े से कमरे रखे गये छोटे से फूलदान का। फूल खिल रहे हैं तो अच्छा लगेगा लेकिन अगर फूलदान टूट भी गया तो ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। बस बिखरे टुकड़ों को समेटकर उन्हें भूतकाल के हवाले करना है। जल्द ही नया फूलदान उसकी जगह ले लेगा। जिंदगी परीक्षा से कई ज्यादा महत्वपूर्ण है।'' इसलिए जिनके बच्चों के नंबर कम आये हैं उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं है। स्वेट मार्टेन ने कहा था कि 'प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विशिष्ट प्रतिभा छिपी होती है, बस जरूरत है उसे पहचानने की। जिसने उसे पहचान लिया उसने जग जीत लिया।'' आप भी अपने बच्चों के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने में उनकी मदद करिये। मैं भी प्रयास कर रहा हूं। 
आपका धर्मेंद्र पंत 



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शनिवार, 20 मई 2017

सुमित्रानंदन पंत और उनकी कुमांउनी कविता

      
पिछले साल उत्तराखंड की लोक भाषाओं से संबंधित एक किताब पर काम करते हुए मेरी उत्तराखंड की भाषाविद और लेखिका श्रीमती कमला पंत से कुमांउनी भाषा को लेकर लंबी बातचीत हुई। उन्होंने तब जिक्र किया था कि किस तरह से कुछ कुमांउनी शब्द हिन्दी ने अपनाये। इस संबंध में उन्होंने श्री सुमित्रानंदन पंत से जुड़ा एक किस्सा भी सुनाया था। बकौल श्रीमती कमला पंत, ''मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थी तो वहां पर तीन दिनों तक निराला जयंती होती थी। वहां पर बड़े बड़े विद्धान आते थे। एक बार सुमित्रनंदन पंत जी ने कविता पाठ करते हुए कहा, ‘फैली खेतों में दूर तलक मख़मल की कोमल हरियाली’। हिन्दी के बाकी कवियों ने विरोध किया कि ‘तलक’ तो कोई शब्द ही नहीं है। उन्होंने फिर बताया कि यह कुमांउनी का शब्द है। फिर धीरे - धीरे यह शब्द हिन्दी ने भी अपना लिया जबकि यह कुमांउनी (यह शब्द गढ़वाली में भी बोला जाता है) का है।'' 
        वैसे सुमित्रानंदन पंत या उत्तराखंड से संबंध रखने वाले अन्य कवियों और लेखकों ने अपने लेखन में गढ़वाली, कुमांउनी या अपनी अन्य लोकभाषाओं के शब्दों का उपयोग बहुत कम किया है जबकि उत्तराखंड की लोकभाषाएं हिन्दी को समृद्ध करने की क्षमता रखते हैं। अगर पंत जी ने अपनी कविताओं में कुमांउनी के चुनिंदा शब्दों का ही उपयोग किया तो इसका कारण यह भी था कि तब उत्तराखंड की इन लोकभाषाओं पर आज की तरह खतरा नहीं मंडरा रहा था। आज स्थिति बदली हुई है और ये लोकभाषाएं खतरे में हैं ऐसे में इनके शब्दों को भी संरक्षण की जरूरत है और इसमें कोई भी लेखक, कवि, गीतकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गढ़वाली और कुमांउनी में गंध, ध्वनि आदि के लिये कई शब्द हैं जबकि हिन्दी में इनके लिये कोई विशेष शब्द नहीं है। ऐसा कोई संदर्भ आने पर इनका उपयोग किया जा सकता है। मुझे याद है कि वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रभाष जोशी ने मालवा क्षेत्र में उपयोग होने वाले शब्द 'अपुन' का खूब उपयोग किया और बाद में हिन्दी ने उसे अपना लिया। अब भी कई लेखक इस शब्द का उपयोग कर लेते हैं।



     ह तो थी शब्दों के उपयोग की बात। आज श्री सुमित्रानंदन पंत का 117वां जन्मदिवस है। बीस मई 1900 को जन्में इस सुकुमार कवि ने अपनी किशारोवस्था कौशानी और अल्मोड़ा में बितायी थी और इसलिए उनकी कविताओं में इन दोनों स्थानों का सुंदर वर्णन मिलता है। उनके बचपन का नाम गुसांई दत्त था लेकिन वह रामायण के लक्ष्मण के चरित्र से प्रभावित थे और इसलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत कर दिया था।  पंत जी 'प्रकृति के चितेरे' थे लेकिन उन्होंने कुमांउनी में बहुत कम या यूं कहें कि सिर्फ एक कविता लिखी थी। यह कविता भी बुरांश पर लिखी गयी थी। आप भी श्री सुमित्रानंदन पंत की कुमांउनी में लिखी गयी इस कविता का आनंद लीजिए। 

               सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
               फुलन छै के बुरूंश! जंगल जस जलि जां।

               सल्ल छ, दयार छ, पई अयांर छ,
               सबनाक फाडन में पुडनक भार छ,
               पै त्वि में दिलैकि आग, त्वि में छ ज्वानिक फाग,
               रगन में नयी ल्वै छ प्यारक खुमार छ।

              सारि दुनि में मेरी सू ज, लै क्वे न्हां,
              मेरि सू कैं रे त्योर फूल जै अत्ती माँ।

              काफल कुसुम्यारु छ, आरु छ, अखोड़ छ,
              हिसालु, किलमोड़ त पिहल सुनुक तोड़ छ ,
              पै त्वि में जीवन छ, मस्ती छ, पागलपन छ,
              फूलि बुंरुश! त्योर जंगल में को जोड़ छ?

               सार जंगल में त्वि ज क्वे न्हां रे क्वे न्हां,
               मेरि सू कैं रे त्योर फुलनक म' सुंहा॥


श्री सुमित्रानंदन पंत को सादर नमन।

आपका धर्मेंद्र पंत  


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