बुधवार, 27 जनवरी 2016

तीलू रौतेली ..वर्षों पहले बन गयी थी लक्ष्मीबाई


जणदादेवी में तीलू रौतेली की प्रतिमा। फोटो..रविकांत घिल्डियाल
       झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, दिल्ली की रजिया सुल्ताना, बीजापुर की चांदबीबी, मराठा महारानी ताराबाई, चंदेल की रानी दुर्गावती आदि के बारे में आपने सुना होगा लेकिन आज मैं आपका परिचय गढ़वाल की एक ऐसी वीरांगना से करवा रहा हूं जो केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी थी और सात साल तक जिसने अपने दुश्मन राजाओं को छठी का दूध याद दिलाया था। गढ़वाल की इस वीरांगना का नाम था 'तीलू रौतेली'। मेरे गांव स्योली के पास स्थित जणदादेवी में इस वीरांगना की प्रतिमा लगी है जो लोगों उनके वीरता, संकल्प और साहस की याद दिलाती है। मेरे गांव के सरहद से ही लगा गांव है गुराड जहां तीलू रौतेली का जन्म हुआ था। पिताजी श्री राजाराम पंत को गढ़वाल और उसके इतिहास की अच्छी जानकारी थी और उन्हीं से मैंने सबसे पहले तीलू रौतेली की कहानी सुनी थी। 
    तीलू रौतेली का जन्म कब हुआ। इसको लेकर कोई तिथि स्पष्ट नहीं है। गढ़वाल में आठ अगस्त को उनकी जयंती मनायी जाती है और यह माना जाता है कि उनका जन्म आठ अगस्त 1661 को हुआ था। उस समय गढ़वाल में पृथ्वीशाह का राज था। इसके विपरीत जिस कैंत्यूरी राजा धाम शाही की सेना के साथ तीलू रौतेली ने युद्ध किया था उसने इससे पहले गढ़वाल के राजा मानशाह पर आक्रमण किया था जिसके कारण तीलू रौतेली को अपने पिता, भाईयों और मंगेतर की जान गंवानी पड़ी थी। पंडित हरिकृष्णा रतूड़ी ने 'गढ़वाल का इतिहास' नामक पुस्तक में लिखा है कि राजा मानशाह 1591 से 1610 तक गढ़वाल राजा रहे और 19 साल राज करने के बाद 34 साल की उम्र में वह स्वर्ग भी सिधार गये थे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तीलू रौतेली का जन्म ईस्वी सन 1600 के बाद हुआ था। गढ़वाल में तीलू रौतेली को लेकर जो लोककथा प्रचलित हैं मैं यहां पर उसका ही वर्णन कर रहा हूं।

वीरता की पर्याय बन गयी थी गुराड तल्ला की तीलू 

      तीलू रौतेली की वीरता का किस्सा सुनने से पहले उनके पिता थोकदार भूपसिंह गोर्ला के बारे में जानना जरूरी है। एक वीर पुरूष जिन्हें गढ़वाल के राजा ने चौंदकोट परगना के गुराड गांव की थोकदारी दी थी। उनके दो जुड़वां बेटे थे भगतू और पर्त्वा या पथ्वा। ये दोनों भी अपने पिताजी की तरह वीर थे। एक समय था जबकि गढ़वाल और कुमांऊ में कत्यूरी राजाओं की तूती बोलती थी लेकिन बाद में वह पूर्वी क्षेत्र तक सी​मित रह गये थे। गढ़वाल के राजा और कत्यूरी राजाओं के बीच तब युद्ध आम माना जाता था। भूप​सिंह एक बार जब निजी काम से गढ़वाल के राजा से मिलने के लिये गये तो उन्होंने उन्हें कैत्यूरी राजा पर आक्रमण करने का भी आदेश दिया। इस बीच बिंदुआ कैंत्यूरा ने चौंदकोट क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। भगतू और पथ्वा ने इस जंग में उसका डटकर सामना किया और आखिर में बिंदुआ कैंत्यूरा को जान बचाकर भागना पड़ा। इन दोनों भाईयों के शरीर पर कुल मिलाकर 42 घाव हुए थे और राजा ने उनकी वीरता से खुश होकर उन्हें 42 गांव पुरस्कार में दे दिये थे। 
     भगतू और पथ्वा की छोटी बहन थी तीलू रौतेली जिसने बचपन से ही तलवार और बंदूक चलाना सीख लिया था। छोटी उम्र में ही तीलू की सगाई ईड़ा के भुप्पा नेगी से तय कर दी गयी थी लेकिन शादी होने से पहले ही उनका मंगेतर युद्ध में वीर गति का प्राप्त हो गया था। तीलू ने इसके बाद शादी नहीं करने का फैसला किया था। इस बीच कैत्यूरी राजा धामशाही ने अपनी सेना फिर से मजबूत की और गढ़वाल पर हमला बोल दिया। खैरागढ़ में यह युद्ध लड़ा गया। मानशाह और उनकी सेना ने धामशाही की सेना का डटकर सामना किया लेकिन आखिर में उन्हें चौंदकोट गढ़ी में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद भूपसिंह और उनके दोनों बेटों भगतू और पथ्वा ने मोर्चा संभाला।  भूपसिंह सरैंखेत या सराईखेत और उनके दोनों बेटे कांडा में युद्ध में मारे गये।
       सर्दियों के समय में कांडा में बड़े कौथिग यानि मेले का आयोजन होता था और परंपरा के अनुसार भूपसिंह का परिवार उसमें हिस्सा लेता था। तीलू ने भी अपनी मां से कहा कि वह कौथिग जाना चाहती है। इस पर उसकी मां ने कहा, ''कौथिग जाने के बजाय तुझे अपने पिता, भाईयों और मंगेतर की मौत का बदला लेना चाहिए। अगर तू धामशाही से बदला लेने में सफल रही तो जग में तेरा नाम अमर हो जाएगा। कौथिग का विचार छोड़ और युद्ध की तैयारी कर। '' मां की बातों ने तीलू में भी बदले की आग भड़का दी और उन्होंने उसी समय घोषणा कर दी कि वह धाम शाही से बदला लेने के बाद ही कांडा कौथिग जाएगी। उन्होंने क्षेत्र के सभी युवाओं से युद्ध में शामिल होने का आह्वान किया और अपनी सेना तैयार कर दी। तीलू ने सेनापति की पोशाक धारण की। उनके हाथों में चमचमाती तलवार थी। उनके साथ ही उनकी दोनों सहेलियों बेल्लु और रक्की  यानि पत्तू भी सैनिकों की पोशाक पहनकर तैयार हो गयी। उन्होंने पहले अपनी कुल देवी राजराजेश्वरी देवी की पूजा की और फिर काले रंग की घोड़ी 'बिंदुली' पर सवार तीलू, उनकी सहेलियां और सेना रणक्षेत्र के लिये निकल पड़ी। हुड़की वादक घिमंडू भी उत्साहवर्धन के लिये उनके साथ में था।
तीलू रौतेली गुराड तल्ला की रहने वाली थी।
गांव में उनकी यह प्रतिमा गुराड की ऐतिहासिक
विरासत की याद दिलाती है। फोटो : सुनील रावत।
 
       तीलू ने खैरागढ़ (वर्तमान में कालागढ़) से अपने अभियान की शुरूआत की और इसके बाद लगभग सात साल तक वह अधिकतर समय युद्ध में ही व्यस्त रही। उन्होंने दो दिन तक चली जंग के बाद खैरागढ़ को कैत्यूरी सेना से मुक्त कराया था। वह जहां भी गयी स्थानीय लोगों और वहां के समुदाय प्रमुखों का तीलू को भरपूर समर्थन मिला। असल में धाम शाही क्रूर राजा था और वह जनता पर अनाप शनाप कर लगाता रहता था। इससे जनता त्रस्त थी और उन्हें तीलू के रूप में नया सहारा मिल गया था। तीलू ने खैरागढ़ के बाद टकोलीखाल में मोर्चा संभाला और वहां बांज की ओट से स्वयं विरोधी सेना पर गोलियां बरसायी। कैत्यूरी सेना का नेतृत्व कर रहा बिंदुआ कैंत्यूरा को जान बचाकर भागना पड़ा। इसके बाद उन्होंने भौण (इडियाकोट) पर अपना कब्जा जमाया। तीलू जहां भी जाती वहां स्थानीय देवी या देवता की पूजा जरूर करती थी और वहीं पर लोगों का उन्हें समर्थन भी मिलता था। उन्होंने सल्ट महादेव को विरोधी सेना से मुक्त कराया लेकिन भिलण भौण में उन्हें कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। भिलण भौण के युद्ध में उनकी दोनों सहेलियां बेल्लु और रक्की वीरगति को प्राप्त हो गयी। तीलू इससे काफी दुखी थी लेकिन इससे उनके अंदर की ज्वाला और धधकने लगी। उन्होंने जदाल्यूं की तरफ कूच किया और फिर चौखुटिया में गढ़वाल की सीमा को तय की। इसके बाद सराईखेत और कालिंका खाल में भी उन्होंने कैत्यूरी सेना को छठी का दूध याद दिलाया। सराईखेत को जीतकर उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया लेकिन यहां युद्ध में उनकी प्रिय घोड़ी बिंदुली को जान गंवानी पड़ी। बीरोंखाल के युद्ध के बाद उन्होंने वहीं विश्राम किया।
    तीलू रौतेली ने गढ़वाल की सीमा तय कर दी थी। इसके बाद उन्होंने कांड़ागढ़ लौटने का फैसला किया लेकिन शत्रु के कुछ सैनिक उनके पीछे लगे रहे। तीलू और उनकी सेना ने तल्ला कांडा में पूर्वी नयार के किनारे में अपना शिविर लगाया। रात्रि के समय में उन्होंने सभी सैनिकों को सोने का आदेश दे दिया। चांदनी रात थी और पास में नयार बह रही थी। गर्मियों का समय था और तीलू सोने से पहले नहाना चाहती थी। उन्होंने अपने सा​थी सैनिकों और अंगरक्षकों को नहीं जगाया और अकेले ही नयार में नहाने चली गयी। तीलू पर नहाते समय ही एक कत्यूरी सैनिक रामू रजवार ने पीछे से तलवार से हमला किया। उनकी चीख सुनकर सैनिक जब तक वहां पहुंचते तब तक वह स्वर्ग सिधार चुकी थी। तीलू रौतेली की उम्र तब केवल 22 वर्ष की थी, लेकिन वह इतिहास में अपना नाम अमर कर गयी।
      तीलू रौतेली की याद में गढ़वाल में रणभूत नचाया जाता है। डा. शिवानंद नौटियाल ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल के लोकनृत्य' में लिखा है, '' जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों  के रण भूत /पश्वा जैसे शिब्बू पोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु-पत्तू सखियाँ, नेगी सरदार आदि के पश्वाओं को भी नचाया जाता है। सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं। ''
      महान वीरांगना तीलू रौतेली को शत शत नमन।
     आपका धर्मेन्द्र पंत


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7 टिप्‍पणियां:

  1. Maa se kahani suni thi par itne vistaar se nahin.. apni sanskritri se jo de rakhne ka dhanyawaad

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  2. Maa se kahani suni thi par itne vistaar se nahin.. apni sanskritri se jo de rakhne ka dhanyawaad

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  3. इस महत्वपूर्ण कहानी को हम सभी तक पहुँचाने के लिये धन्यवाद। ये बहूत ही उत्साहवर्धक और प्रेरणा से भरपूर वाक्या है। ऐसा लग रहा है जैसे कोई अपनी खोई हुई वस्तु मिल गयी हो।
    आशा है की आप इस तरह की और भी सभी कहानियों को यहाँ प्रस्तुत करेंगे। ये हमारा इतिहास है,हमारी धरोहर है।

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  4. हमें हमारी संस्कृति से जोड़े रखने का ये एक बहुत अच्छा प्रयास है।

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  5. हमें गर्व होता है अपनी संस्कृति पर वीरांगना तीलू रौतेली पर ..सादर नमन!
    तीलू रौतेली की वीर गाथा प्रस्तुति हेतु आभार!

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