---- विवेक जोशी की कलम से ----
साथी हाथ बढ़ाना रे ..कई प्रथाओं से शायद रचेता को ये प्रेरणा मिली होगी ..उल्लास , समन्वय , सौहार्द इससे पनपता है ..एकला चलो रे वाली डगर मुश्किल भरी होती है और समाज के बिना मानव को जंगली समझो।
ऐसी ही एक प्रथा है पहाड़ों में 'पलटा देना' जिसे कुछ 'पड्याली' भी कहा जाता है यानि अहसान चुकाना या फिर कहो मिलजुलकर एक दूसरे के काम आना है। गौशाला का गोबर (मौ या मौल) घर से काफी दूर घंटों में पहुँच जाना वह भी बिना मजदूर लगाये इसी प्रथा से संभव है। मंडुआ से लेकर गेंहू या धान के खेत में निराई गुड़ाई भी मिलकर हो जाती है। एक बैल होते हुए भी जुताई में दूसरे बैल का उपलब्ध हो जाना संभव नहीं होता अगर ये प्रथा नहीं होती। इसके बिना एक गृहणी का पेड़ की कटाई या घास को घर लाना संभव नहीं था। न ही फिर रोपाई हो पाती और ना फसलों की कटाई और व्यापक संदर्भ में कहूं तो जनेऊ और शादी जैसे काम नहीं निभ पाते।
संस्कारों के वक्त अपने बर्तनों से दूसरों का काम चलाने से लेकर अपने वहाँ मेहमानों को ठहराने का आनंद ही कुछ और है। और इसका श्रेय जाता है इसी प्रथा को। मनीआर्डर अर्थव्यवस्था के चलते जब पहाड़ के अधिकाँश मर्द मैदानों या फ़ौज में काम करने को बाध्य थे तब भी उस वक्त किसी काम का ना रुकना इसी हाथ बंटाने की वजह से संभव था। उस समय जबकि परिवहन के साधन ना के बराबर थे तब सोलह संस्कार निभाने वाली देवभूमि में हर धर्म, कर्म को अंजाम देना मुश्किल हो जाता अगर यह प्रथा ना होती खासकर जब भौगौलिक स्थिति दुर्गम हो और आर्थिक संसाधन सीमित लेकिन सारे कामकाज सहजता से निभते चले गए इसी प्रथा के कारण।
अहसान चुकाने की भावना वह भी बढ़ा चढ़ा कर इसका मिनी रूप आज भी ज़िंदा है जब पैंचा लाकर उसे लौटाते वक्त उससे अधिक दिया जता है या फिर खाली बर्तन नहीं लौटाया जाता। इस पहलू के अलावा इस प्रथा के भीतर उल्लास छिपा है और मेरी समझ में समूचे गाँव के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने बाने को संजोये रखने में इस प्रथा का अप्रत्यक्ष हाथ है। संसाधनों के बेहतर उपयोग को इससे बेहतर कोई प्रथा नहीं समझा सकती और पूरी तन्मयता के साथ दूसरे के लिए हर्षोल्लास के वातावरण में काम करना वाकई किसी वेद के ज्ञान से कम नहीं है क्योंकि स्वस्थ मानसिक और शारीरिक विकास के लिए यह एक टानिक का काम करता है।
मित्र गोविंद प्रसाद बहुगुणा के अनुसार ''गढ़वाल में इसको 'पड्याली' बोलते हैं पहले सारे खेतीबाड़ी के काम पारस्परिक सहयोग से होते थे। शादी व्याह में भी कोई मजदूर नहीं रखता था यहां तक कि किसी गांव से कोई रामलीला देखने आपके गांव आये तो उनके भोजन की व्यवस्था उसी गांव के लोग करते थे जहां रामलीला हो होती थी। 'मलार्त' खेतों तक गोबर पहुँचाने को कहते हैं। लुंग और रोपणी में भी पड्याल प्रथा खूब प्रचलित थी, ऐसे सामुदायिक कार्यों में कामकरने वालों को नाश्ता गहत की भरी रोटी का करवाते थे। कहाँ गए वे दिन। ''
सच में कहां गये वे दिन?
लेखक परिचय : विवेक जोशी वरिष्ठ पत्रकार है और वर्तमान में हिन्दी समाचार एजेंसी पीटीआई भाषा में समाचार संपादक पद पर कार्यरत हैं। जोशी जी पहाड़ और वहां के जीवन के बारे में लगातार लिखते रहे हैं।
बहुत सुंदर, पहली बार पढा इस परथा के बारे में..........."जोशी जी" का दिल से आभार
जवाब देंहटाएंयह प्रथा उन मूल्यों से पनपी जो मानव पहले अपना धर्म समझता था..इस प्रथा के कारण गांवों का विकास हुआ..इसके उलट स्वार्थ की प्रवत्ति के चलते वहां विकास थम गया..यह प्रथा दर्शाती है कि परस्पर सहयोग मानव की असल और मूल प्रव्त्ति है..
जवाब देंहटाएं:पड्याल या सहेल : सामूहिक काम करने का नाम
जवाब देंहटाएंउत्तरांचल में पड्याल या सहेल व्यवस्था शायद इस भाव से शुरू की गयी होगी कि एक साथ. सबका हाथ याने मिल कर खेती बाडी का कार्य करना : इस प्रथा में एक दिन एक ' दो या तीन परिवार मिलकर एक ही परिवार का खेती आदि का कार्य करते हैं और दूसरे दिन बारी . बारी से एक दूसरे का कार्य हंसी .खुशी . से करते हैं । इससे सभी का कार्य आसानी से जल्दी निपट जाता है और कार्य का बोझ भी महसूस नहीं होता । तथा जिन परिवारों में काम करने वाले कम हैं उनका कार्य मिलकर एक साथ हो जाता है । जिस दिन जिस परिवार का कार्य होता है खाने . पीने का जिम्मा भी उस दिन उसी परिवार का होता है ।
सहेल व्यवस्था में जिन परिवारों का कार्य पीछे रह जाता है ; जिनके ज्यादा खेत हैं ;जिसका अकेला काम करने वाला हो या किसी के साथ कोई सुख . दुख हो जाता है तो उनके साथ काफी लोग स्वैछिक रूप से कार्य में मदद करने के हेतु जाते हैं और कार्य एक या दो दिन में पूरा निपटा दिते हैं । सबके लिये भोज व्यवस्था भी वही परिवार करता है जिसकी सहेल के रूप में लोग मदद करने जाते हैं ।
:पड्याल या सहेल : सामूहिक काम करने का नाम
जवाब देंहटाएंउत्तरांचल में पड्याल या सहेल व्यवस्था शायद इस भाव से शुरू की गयी होगी कि एक साथ. सबका हाथ याने मिल कर खेती बाडी का कार्य करना : इस प्रथा में एक दिन एक ' दो या तीन परिवार मिलकर एक ही परिवार का खेती आदि का कार्य करते हैं और दूसरे दिन बारी . बारी से एक दूसरे का कार्य हंसी .खुशी . से करते हैं । इससे सभी का कार्य आसानी से जल्दी निपट जाता है और कार्य का बोझ भी महसूस नहीं होता । तथा जिन परिवारों में काम करने वाले कम हैं उनका कार्य मिलकर एक साथ हो जाता है । जिस दिन जिस परिवार का कार्य होता है खाने . पीने का जिम्मा भी उस दिन उसी परिवार का होता है ।
सहेल व्यवस्था में जिन परिवारों का कार्य पीछे रह जाता है ; जिनके ज्यादा खेत हैं ;जिसका अकेला काम करने वाला हो या किसी के साथ कोई सुख . दुख हो जाता है तो उनके साथ काफी लोग स्वैछिक रूप से कार्य में मदद करने के हेतु जाते हैं और कार्य एक या दो दिन में पूरा निपटा दिते हैं । सबके लिये भोज व्यवस्था भी वही परिवार करता है जिसकी सहेल के रूप में लोग मदद करने जाते हैं ।
सही कहा दिनेश भाई जी। जगह के हिसाब से नाम जरूर बदल गया लेकिन भाव एक ही था। आप में मिलजुलकर काम करना। जोशी जी ने बहुत अच्छी तरह से समझाया है और उसमें आपने कुछ नयी जानकारी जोड़कर आलेख को समृद्ध कर दिया है। आभार।
हटाएंapke lekh k mashyam se fir se garhwal or garhwal me prachlit prathaon se roo-bru hone ka moka mila... dhanywad.. apke lekh k liye
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