बुधवार, 7 दिसंबर 2016

मिक्सी रानी से पिछड़ रहा है किचन का राजा सिलौटा यानि सिलबट्टा

सिलबट्टा यानि सिलौटा, सिल्वाटु : पहाड़ी रसोईघरों का अभिन्न अंग। स्वाद और स्वास्थ्य के लिये भी जरूरी है सिलौटा का उपयोग।
                                                                                                                                                        फोटो : रविकांत घिल्डियाल
          सिलोटु, सिल्वाटु, सिळवाटू, सिलौटा, सिलोटी या सिलबट्टा। मसालों को पीसने की इस पारंपरिक 'मशीन' से आप सभी परिचित होंगे। अब भी  गांवों में इसका उपयोग किया जाता है। सिलबट्टा यानि पत्थर का ऐसा छोटा चोकौर या लंबा टुकड़ा जिससे मसाला आदि पीसा जाता है।  सिल और पीसने का लोढ़ा। जो बड़ी सिल होती है उसे सिलौटा और जो छोटी सिल होती है उसे सिलोटी कहा जाता है। सिल और बट्टा होते अलग अलग हैं लेकिन एक के बिना दूसरे का कोई वजूद नहीं है। सिल जमीन पर रखा पत्थर जिस पर बट्टे से अनाज पीसा जाता है। मिस्र की पुरानी सभ्यताओं में जो सिल मिला था वह बीच में थोड़ा दबा हुआ है। आज भी सिल का बीच का हिस्सा मामूली गहरा होता है। बट्टे को दोनों हाथों से पकड़कर और घुटनों के बल बैठकर सिल पर अनाज या मसाले पीसे जाते हैं।
       सिलोटु में पीसे गये मसालों से सब्जी का स्वाद ही बदल जाता है और यह भोजन स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम होता है। लेकिन आजकल पिसे हुए मसालों का जमाना है या फिर सिलबट्टे की जगह मिक्सी ने ले ली है। सिलोटु घर के किसी कोने में दु​बका हुआ है। वही सिलबट्टा जो हजारों वर्षों से भारत ही नहीं मिस्र तक की सभ्यताओं का अहम अंग रहा है। आयुर्वेद पुरोधा वाग्भट्ट ने अपने चौथे सिद्धांत से हमें सिलोटा के महत्व का पता चल जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार, ''कोई भी कार्य यदि अधिक गति से किया जाता है तो उससे वात (शरीर के भीतर की वह वायु जिसके विकार से अनेक रोग होते हैं) उत्पन्न होता है।'' कहने का मतलब है कि यदि हम किसी खाद्य सामग्री को बहुत तेजी से पीसकर तैयार करते हैं तो उसके सेवन से वात पैदा होता है। भारत में वैसे भी 70 प्रतिशत रोग वातजनित हैं। रसोई में जो भी प्रक्रियाएं अपनायी जाएं वे गतिमान और सूक्ष्म नहीं होनी चाहिए। अगर आटा धीरे धीरे पिसा हुआ होता है यानि उसे घर में पीसा जाता है तो वह कई गुणों से भरपूर होता है लेकिन चक्की में आटा बहुत तेजी से पीसा जाता है। यही सूत्र मसालों पर भी लागू होता है और इसलिए सिलबट्टा में पीसे गये मसालों को अधिक गुणकारी माना जाता है। असल में घर की चक्की और सिलबट्टा  के उपयोग से भोजन का स्वाद बढ़ने के साथ स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और इनके उपयोग करने वाले का भी समुचित व्यायाम हो जाता है। लेकिन अब बिजली से चलने वाली चक्की और मिक्सी के प्रयोग से भोजन का स्वाद कम हो गया और भोजन भी पौष्टिकता से भरपूर नहीं है। लोग मिक्सी से भोजन की पौष्टिकता पर पड़ रहे कुप्रभावों से भी अवगत हैं लेकिन इसके बावजूद दौड़ती भागती जिंदगी में मिक्सी रानी का पूरा दबदबा है। उसके सामने सिलबट्टा 'बेचारा' बन गया है जबकि गुणों के मामले में वह बादशाह है।
      टे की चक्की ने तो पहाड़ी गांवों में भी बहुत पहले प्रवेश कर दिया था लेकिन सिलोटा यानि सिलबट्टा का ठाठ बाट बने रहे। सिलबट्टा को रखने की एक निय​त जगह होती थी जिसे हमेशा साफ सुथरा रखा जाता था। सिलबट्टा को इस्तेमाल से पहले और बाद में अच्छी तरह से धोया और पोछा जाता था और बाद में दीवार के सहारे से शान से खड़ा कर दिया जाता था। वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड़ी परंपरों के जानकार श्री विवेक जोशी के शब्दों में, ''आधुनिक मिक्सर की इस दादी के कभी बड़े राजसी ठाठ थे। इनकी नियत जगह होती, इनको इस्तेमाल से पहले और बाद में धो पोछकर दीवार के सहारे टिका दिया जाता। कुछ तो धूप आरती भी करते। समझा जाता था कि घर की खुशहाली के लिये यह सगुन है। हो भी क्यों ना..सेहत का राज इससे जुड़ा था। एक कहानी है..एक दादी के मरने के बाद कुछ ना मिला सिवाय एक संदूक के। लालची बहुओं ने खोला तो उसमें था 'सिलबट्टा '। दादी का संदेश साफ था लेकिन बहुओं ने उसे फेंक दिया और संदूक को चारपाई के नीचे रख दिया। तब से यही होता आ रहा है..सेहत फेंक दी गयी और कलह को चारपाई के नीचे जगह मिल गयी।''
     मसालों से लेकर लूण (नमक) पीसने, आलू या मूली की थेंच्वाणि (आलू, मूली या अन्य तरकारी को कुचलकर बनायी गयी रसदार सब्जी), दाल पीसने या दाल और किसी अन्य अनाज को दुदळो करने, दाल के पकोड़े (भूड़ा) बनाने आदि के लिये सिलबट्टा का उपयोग किया जाता है। सिलबट्टे पर बनायी गयी चटनी जैसा स्वाद मिक्सी की चटनी में कभी नहीं आ सकता है। 

सिलबट्टे पर पिसे मसालों की महक से चेहरे पर खिल उठती है मुस्कान : फोटो रविकांत घिल्डियाल

सिलबट्टा के उपयोग के फायदे


-- सिलबट्टा पत्थर से बनता है। पत्थर में कई बार के खनिज भी होते हैं और इसलिए सिलबट्टा में मसाले पीसने से ये खनिज भी उनमें शामिल होते रहते हैं जिससे न सिर्फ स्वाद में वृद्धि होती है बल्कि यह स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम होता है।
-- सिलबट्टे में मसाले पीसते वक्त व्यायाम होता है उससे पेट बाहर नही निकलता। इससे विशेषकर इससे यूटेरस की बहुत अच्छी कसरत हो जाती है। महिलाएं पहले हर रोज सिलबट्टे का उपयोग करती थी और इससे तब बच्चे की सिजेरियन डिलीवरी की जरूरत नहीं पडती थी। मतलब सिलबट्टे का उपयोग किया तो जच्चा बच्चा दोनों स्वस्थ।
-- सिलबट्टा आदि में सब कुछ धीरे धीरे पिसता है तथा अनाज या मसाला जरूरत से ज्यादा सूक्ष्म भी नहीं होता है। इससे वात संबंधी रोग नहीं होते हैं। मिक्सी आदि में न केवल तेजी से पिसाई होती है बल्कि वह अतिसूक्ष्म भी हो जाता है। इस तरह से वह वातकारक है।
-- सिलबट्टा का उपयोग करने से मिक्सी की जरूरत नहीं पड़ेगी जिससे बिजली का खर्च भी कम होगा।

सिलबट्टा का धार्मिक महत्व 


   सिलबट्टा सिर्फ रसोई तक सीमित नहीं है बल्कि उसका धार्मिक महत्व भी है। गांवों में हर किसी के घर में सिलबट्टा होता है। श्री विवेक जोशी ने बताया, ''जिसके घर विवाह होता है वह एक सिल जरूर खरीदता है। पाणीग्रहण के समय "शिला रोहण" के लिए सिलबट्टा गरीब से गरीब व्यक्ति खरीदता है। इसे पार्वती का प्रतीक माना जाता है और यह बेटी की सखी के रूप में उसके साथ ससुराल जाता है।'' 
   विभिन्न तरह के यज्ञों में भी सिलबट्टा के उपयोग की बात सामने आती है। इसे दषद उपल नाम से जाना जाता है। यज्ञ में अन्न सिद्ध करने के जिन साधनों का वर्णन है उनमें सूप, चलनी, ओखली, मूसल आदि के साथ सिलबट्टा भी शामिल है। 
   पहाड़ों में यह भी मान्यता है कि सिल और बट्टा एक साथ बेचा और खरीदा नहीं जाता है। बट्टे को शिव का और सिल को पार्वती का स्वरूप माना जाता है। इन दोनों को जन्म देने वाला "शिल्पकार" इनका पिता समान होता है और  इसलिए वह दोनों को एक साथ नहीं देता। पहले दोनों में किसी एक को लेना पड़ता था फ़िर कुछ दिन बाद इसकी जोड़ी पूरी करनी पड़ती है। यह भी कहा जाता है कि दीपावली पूजन के बाद चूने या गेरू में रूई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिलबट्टा और सूप पर तिलक करना चाहिए। उत्तराखंड के कुमांऊ संभाग में ग्वल या गोलू देवता की कहानी भी सिलबट्टा से जुड़ी है। 
    'घसेरी' का आपसे अनुरोध है कि घर में मसाले आदि पीसने के लिये अधिक से अधिक सिलौटा का उपयोग करने की कोशिश करिये। थोड़ा समय जरूर लगेगा लेकिन फायदे भी तो अनेक हैं। उम्मीद है कि हमारे गांव घरों में सिलौटा, सिलोटु या सिलोटी अपना स्थान बरकरार रखेगी। आपका धर्मेन्द्र पंत


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant



सोमवार, 7 नवंबर 2016

जब मुझे दिल्ली से वापस पहाड़ भेजने आया था 'देवदूत'

                                                                                                                 
       ह नब्बे के दशक के शुरूआती वर्षों की एक मायूस शाम थी। नौकरी अब जरूरत बन गयी थी। दिन भर की तलाश के बाद वापस ठिकाने पर लौटने के लिये बस की एक सीट पर सिमटा था मैं। भीड़ तब भी थी और जाम भी। करोलबाग की लाल बत्ती पर हर दुपहिया और चौपहिया सवार अपना वाहन आगे निकालने  की जुगत में दिख रहा था। सबको घर पहुंचने की जल्दबाजी थी। मुझे नहीं। दुपहिया वाहन पर बैठा एक नवविवाहित जोड़ा चुहलबाजी कर रहा था। कौतुहल भी जागा और ईर्ष्या भी हुई।
      ''क्या अभी पढ़ रहे हो?''
      ''जी, नहीं। ''
      पास में बैठे बुजुर्ग ने तंद्रा तोड़ दी थी। सवाल का जवाब हां भी था और न भी। हर पहाड़ी युवा की तरह बीए करने के बाद मैं भी दिल्ली की गलियों में भटकने के लिये आ गया था। कुछ तो दसवीं और 12वीं करने के बाद ही दिल्ली का रूख कर गये थे।  मैं अब प्राइवेट छात्र के रूप में एमए कर रहा था।
''अच्छा तो अब नौकरी कर रहे हो?'' बुजुर्ग का अगला सवाल था।
       ''नहीं तलाश रहा हूं। '' जब पहली बार पहाड़ से बाहर निकला था तो भैजी ने सिखाया था कि किसी भी अनजान व्यक्ति को अपने बारे में नहीं बताना इसलिए स्वर हल्का सा तल्ख हो गया था।
      ''बेटा कहां के रहने वाले हो आप?'' इस बार उनके शब्दों में जिज्ञासा के साथ स्नेह भी था।
     ''पौड़ी ....गढ़वाल।'' मैं अब भी उनमें दिलचस्पी नहीं ले रहा था, इसलिए टालू रवैया अपनाया।
     ''पहाड़ तो इतने सुंदर हैं। फिर दिल्ली क्यों आ गये।'' अब इसका क्या जवाब देता वह तो मैं पहले ही दे चुका था। लेकिन सेवानिवृति की जिंदगी जी रहे वह बुजुर्ग मुझसे मुखातिब होकर बोले जा रहे थे।
      ''आपको वहीं कोई रोजगार तलाश करना चाहिए। दिल्ली में कुछ नहीं रखा है। बेटा मैं अपने अनुभव से बोल रहा हूं यहां तो दो वक्त की रोटी तो मिल जाएगी लेकिन चैन कभी नहीं मिलेगा। ''
       वह धाराप्रवाह बोले जा रहे थे और मेरी खीझ बढ़ती जा रही थी। अब इन्हें कैसे समझाऊं की घर की आर्थिक स्थिति कैसी है और मां पिताजी ने मुझे किस उम्मीद से दिल्ली भेजा है? कुछ बातें वह सही भी कह रहे थे। दिल्ली आने पर कुछ दिन तक आंखों में जलन रही लेकिन अब एक महीना हो चुका था और आंखें अभ्यस्त हो गयी थी।
    ''बेटा ऐसा नहीं हो सकता कि पहाड़ में रोजगार की कमी होगी। बस उसे तलाश करने की जरूरत है। मैं पहाड़ का नहीं हूं लेकिन आप वहां के रहने वाले हो और आपको यह अच्छी तरह से पता होगा कि वहां कैसे ​बेहतर तरीके से जिंदगी जी सकती है। आपको दिल्ली का मोह छोड़ देना चाहिए। ''
     मेरी खीझ अब बढ़ गयी थी और आखिर में साहस करके मैं सीधे शब्दों में उनसे पूछ ही बैठा, ''क्या आप मुझे कहीं नौकरी दिला सकते हो। ''
    मेरे सवाल से शायद उन्हें निराशा हुई। वह थोड़ी देर मौन रहे और मैंने सोचा चलो बला टली। पटेल नगर आने वाला था। उन्होंने अपने झोले से डायरी निकाली। मेरी उम्मीद जाग गयी। शायद ये मेरा कुछ काम कर देंगे। उन्होंने डायरी का निचला हिस्सा फाड़कर उस पर अपना फोन नंबर लिखा और मुझे थमाया।
     ''बेटा मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि मैं आपको नौकरी दिला पाऊं लेकिन ये मेरा नंबर है। मेरे सुझाव पर गौर करना और अगर आपको लगे कि दिल्ली छोड़कर वापस पहाड़ लौट जाना चाहिए तो मुझे जरूर फोन करना। मैं मदद करूंगा। ''
    वह कागज की पर्ची मेरे हाथ में थमाकर सीट से उठ गये। मैंने कुछ देर तक उन्हें देखा और फिर मुंह फेर लिया। पर्ची अब भी हाथ में थी। उन बुजुर्ग के बस से उतरते ही पर्ची तार तारकर होकर खिड़की से बाहर लहरा रही थी।
    ''फोन करूंगा तो फिर बुढ़ा यही बड़बड़ाएगा कि पहाड़ लौट जा, पहाड़ लौट जा। कैसे चला जाऊं वापस पहाड़। क्या करूंगा वहां? कुछ भी तो नहीं रखा है वहां। सरकारी नौकरी के नाम पर अगर मिल गयी तो मास्टरी करो और क्या है? बुढ़े को कुछ पता नहीं चला आया भाषण देने।''
      वो दिन और आज की दोपहर। घर से दफ्तर आने को बस में बैठा हूं। ज्यादा कुछ नहीं बदला है लेकिन हवा दमघोंटू है। सांस लेना मुश्किल और आंखें चरमरा रही हैं। पता है वह बुजुर्ग और उनके लिखे फोन नंबर की पर्ची के पुर्जे अब कहीं नहीं मिलेंगे लेकिन आज उनकी सलाह पर गौर करना चाहता हूं।
  धर्मेन्द्र पंत 


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

बीसीसीआई सदस्य हैं झारखंड और छत्तीसगढ़, फिर उत्तराखंड क्यों नहीं?

   वंबर 2000 में तीन नये राज्यों का गठन हुआ था। छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड। उत्तराखंड नौ नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर भारत का 27वां राज्य बना था। उत्तरप्रदेश तब भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड यानि बीसीसीआई से मान्यता प्राप्त सदस्य था और इसलिए उत्तराखंड को मान्यता नहीं दी गयी। यही स्थिति एक नवंबर 2000 को अस्तित्व में आये छत्तीसगढ़ की थी जो मध्यप्रदेश से अलग हुआ था। झारखंड का मामला भिन्न था। जब झारखंड राज्य बना था तब बीसीसीआई अध्यक्ष एसी मुथैया ने बिहार क्रिकेट संघ को मान्यता दी थी लेकिन  इसके कुछ महीने बाद जगमोहन डालमिया बोर्ड अध्यक्ष बन गये और उन्होंने बिहार की मान्यता समाप्त करके झारखंड राज्य क्रिकेट संघ को बीसीसीआई का सदस्य बना दिया। झारखंड की टीम नवंबर 2004 से रणजी ट्राफी में भी खेल रही है। छत्तीसगढ़ भी एसोसिएट सदस्य बन गया और 2016 में उसे पूर्ण सदस्य की मान्यता मिल गयी। छत्तीसगढ़ की टीम इस साल से रणजी ट्राफी में भी खेल रही है। 
       अब 15 दिन के अंदर अस्तित्व में आने वाले तीन राज्यों में से केवल उत्तराखंड ही बच गया है जिसे कि बीसीसीआई से मान्यता नहीं मिली है। उत्तराखंड की तरफ से प्रयास भी किये गये लेकिन इस पहाड़ी राज्य से एक नहीं पांच संघ थे ... उत्तराखंड क्रिकेट संघ, यूनाईटेड क्रिकेट संघ, अभिमन्यु क्रिकेट संघ, उत्तरांचल क्रिकेट एसोसिएशन और क्रिकेट एसोसिएशन आॅफ उत्तरांचल। हर कोई चाहता था कि उसके संघ को मान्यता मिले। कई संघ होने के कारण बीसीसीआई ने भी दिलचस्पी नहीं दिखायी और उत्तराखंड क्रिकेट की स्थिति बिहार जैसी हो गयी। बिहार में भी तीन क्रिकेट संस्थाओं में आपस में धींगामुश्ती चल रही है। बीसीसीआई से मान्यता हासिल करने की खातिर जनवरी 2015 में उत्तराखंड क्रिकेट संघ, अभिमन्यु क्रिकेट संघ और यूनाईटेड क्रिकेट संघ ने एक मंच पर आने का फैसला किया। इस बैठक में उत्तरांचल क्रिकेट एसोसिएशन और क्रिकेट एसोसिएशन आॅफ उत्तरांचल (उत्तराखंड) ने हिस्सा नहीं लिया। बीसीसीआई ने बिहार और उत्तराखंड को मान्यता देने के लिये अगस्त 2015 में एक तदर्थ समिति बनायी। पंजाब क्रिकेट संघ के एम पी पांडोव उत्तराखंड के लिये बने पैनल के अध्यक्ष थे। उत्तराखंड में इसके बाद भी उत्तराखंड क्रिकेट संघ यानि यूसीए और क्रिकेट एसोसिएशन आफ उत्तराखंड में आपस में ठनी रही और राज्य के क्रिकेटरों को दूसरे राज्यों विशेषकर दिल्ली से खेलने के लिये मजबूर होना पड़ा। 
       उच्चतम न्यायालय के कड़े रूख और न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिये बीसीसीआई पर हर तरह से दबाव बनाने के बाद अब उत्तराखंड को मान्यता मिलने की उम्मीद फिर से बन गयी है। लोढ़ा समिति की सिफारिशों के अनुसार प्रत्येक राज्य को बीसीसीआई में एक मत का अधिकार होना चाहिए। ऐसे में उत्तराखंड का दावा मजबूत बनता है। अभी तक महाराष्ट्र और गुजरात में तीन . तीन क्रिकेट संघ हैं और वहां के खिलाड़ियों को न सिर्फ रणजी बल्कि अच्छे प्रदर्शन के दम पर राष्ट्रीय टीम में भी जगह बनाने का भरपूर मौका मिलता है। उत्तराखंड, बिहार तथा पूर्वोत्तर में असम और त्रिपुरा को छोड़कर बाकी राज्यों में क्रिकेट संघ को मान्यता नहीं है। पूर्वोत्तर के राज्यों का क्रिकेट से ज्यादा लगाव नहीं है लेकिन उत्तराखंड और बिहार के खिलाड़ी दूसरे राज्यों से खेलने के लिये मजबूर हैं। 
      उत्तराखंड के क्रिकेटरों ने राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक अपनी छाप छोड़ी है। महेंद्र सिंह धोनी के नाम से भले ही कौन परिचित नहीें होगा। वह कुमांऊ के रहने वाले हैं लेकिन उनकी परवरिश झारखंड में हुई। वह पहले बिहार और फिर झारखंड की तरफ से खेले। वह खुद को झारखंड का ही मानते हैं। भारतीय टीम में शामिल एक अन्य खिलाड़ी मनीष पांडे कर्नाटक की तरफ से खेलते हैं लेकिन उनका जन्म नैनीताल में हुआ और बचपन भी यहीं बीता था। 
       दिल्ली की रणजी टीम में उत्तराखंड के कई खिलाड़ी खेलते रहे हैं। एक समय में एन एस नेगी और कुलदीप रावत दिल्ली का टीम का हिस्सा थे। दिल्ली की वर्तमान टीम में खेलने वाले उन्मुक्त चंद, रिषभ पंत, पवन सुयाल और पवन नेगी सभी उत्तराखंड से संबंध रखते हैं। उन्मुक्त ने वर्तमान रणजी सत्र के पहले दो मैचों में दिल्ली टीम की कप्तानी भी की थी। रिषभ बेहतरीन विकेटकीपर बल्लेबाज हैं और इस 18 वर्षीय खिलाड़ी को भारतीय क्रिकेट का अगला उभरता सितारा माना जा रहा है। महाराष्ट्र के खिलाफ उन्होंने तिहरा शतक भी जमाया था। वह उस भारत अंडर . 19 टीम के भी सदस्य थे जो जूनियर विश्व कप में खेली थी। पवन सुयाल बहुत अच्छे तेज गेंदबाज हैं तथा आईपीएल में मुंबई इंडियन्स की तरफ से खेलते हैं। पवन नेगी बायें हाथ का स्पिनर होने के साथ निचले क्रम के अच्छे बल्लेबाज भी है। वह भारत की तरफ से एक टी20 अंतरराष्ट्रीय मैच भी खेल चुके हैं। नेगी आईपीएल में चेन्नई सुपरकिंग्स और दिल्ली डेयरडेविल्स की तरफ से खेलते रहे हैं। 
       जम्मू कश्मीर के विकेटकीपर बल्लेबाज पुनीत बिष्ट भी उत्तराखंड के हैं। वह पहले दिल्ली की तरफ से खेलते थे लेकिन इस सत्र में जम्मू कश्मीर की तरफ से खेल रहे हैं। हिमाचल प्रदेश की टीम में रोबिन बिष्ट हैं जो पहले राजस्थान की तरफ से खेलते थे। उन्होंने 2011.12 सत्र में रणजी ट्राफी में सर्वाधिक रन बनाये थे और तब महान सुनील गावस्कर ने भी उनकी तारीफ की थी। रोबिन उत्तराखंड के रहने वाले हैं। उनके छोटे भाई चेतन बिष्ट अब भी राजस्थान के विकेटकीपर बल्लेबाज हैं। राजस्थान की रणजी टीम में ही युवा बल्लेबाज सिद्धांत डोभाल शामिल हैं। सिद्धांत के पिता संजय डोभाल दिल्ली के नामी कोच हैं और द्वारका में अपनी क्रिकेट अकादमी भी चलाते हैं। राजस्थान की टीम में ही कभी नवीन नेगी विकेटकीपर बल्लेबाज हुआ करते थे। उत्तरप्रदेश से दिग्विजय सिंह रावत ने छह प्रथम श्रेणी मैच खेले थे। वे भी उत्तराखंड के हैं। उत्तराखंड के कई युवा क्रिकेटर भी विभिन्न राज्यों की जूनियर टीमों में खेल रहे हैं। इनमें दिल्ली की टीम के सदस्य अनुज रावत और मयंक रावत प्रमुख हैं। 
       पंजाब के पूर्व तेज गेंदबाज अमित उनियाल पौड़ी जिले के सांगुड़ा गांव के रहने वाले हैं। वह पंजाब की तरफ से 28 रणजी मैच खेलने के अलावा राजस्थान रायल्स के लिये आईपीएल में भी खेले थे। अमित अब चंडीगढ़ में कोचिंग अकादमी चलाते हैं। पिछले दिनों भारतीय टीम में जगह बनाने वाले तेज गेंदबाज बरिंदर सरां  उन्हीं के शिष्य हैं।  क्रिकेट पर बाकी चर्चा फिर कभी। आपका धर्मेन्द्र पंत 
© ghaseri.blogspot.in 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

जौनसार के दो गांवों के बीच होता है अद्भुत 'गागली युद्ध'

       त्तराखंड के गढ़वाल मंडल का एक क्षेत्र है जौनसार जहां जौनसारी भाषा बोली जाती है। यह पूरा क्षेत्र भी उत्तराखंड के तमाम अन्य क्षेत्रों की तरह अपनी अनूठी परंपराओं के लिये विख्यात है। मसलन जब देश भर में दशहरा पूरे धूमधाम से मनाया जाता है तब यहां पाइंता पर्व मनाया जाता है और इस दौरान जौनसार बावर के दो गांवों उत्पाल्टा और कुरोली के बीच युद्ध होता है जिसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। अरबी के पत्तों और डंठलों से होने वाले इस अनोखे युद्ध को देखने के लिये दूरदराज के गांवों के लोग भी आते हैं तथा शुरूआत से लेकर अंत तक इसमें संघर्ष के साथ मनोरंजन का पुट भरा रहता है।

गागली युद्ध का यह वीडियो श्री जितेंद्र लखेड़ा ने उपलब्ध कराया है

        दशहरे के दिन पूरे भारत में रावण दहन किया जाता है लेकिन यहां ऐसी कोई परंपरा नहीं है। पिछले 200 से भी अधिक वर्षों से इस अवसर पर उत्पाल्टा व कुरोली गांवों के बीच दशहरे के दिन गागली युद्ध होता है। ढोल—नगाड़ों की थाप, रणसिंघा की रणभेरी समान ध्वनि के बीच दोनों गांवों के लोग देवधार के जंगल में पहुंचते हैं जहां उनके बीच अरबी के डंठलों और पत्तों से युद्ध होता है। जौनसारी भाषा में अरबी को गागली कहते हैं और इसलिए इसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। युद्ध के लिये एक महीने पहले से ही तैयारी कर ली जाती है। अरबी के डंठलों को काटकर सुखाया जाता है। युद्ध के दिन दोनों पक्ष अपने शौर्य का भरपूर प्रदर्शन करते हैं। हंसी ठिठोली भी चलती है। लगभग एक घंटे के युद्ध के बाद दोनों पक्ष आपस में गले मिलते हैं। एक दूसरे को पाइंता पर्व की बधाई देते हैं और फिर उत्पाल्टा गांव के सार्वजनिक स्थल पर तांदी, हारूल, रासो जैसे नृत्यों से समां बांधा जाता है। इन नृत्यों में दोनों गांव के बच्चों से लेकर महिलाएं और पुरूष सभी हिस्सा लेते हैं। इसके साथ ही लोग अपने स्थानीय देवताओं महासू, चालदा, शिलगुर, विजट, परशुराम आदि के मंदिरों में पूजा करते हैं। उत्पाल्टा और कुरोली के अलावा अन्य गांवों के लोग भी इस दिन पाइंता पर्व मनाते हैं और अपने इन इष्टदेवों के मंदिरों में जाकर परिवार की खुशहाली के लिये कामना करते हैं। 

पश्चाताप के लिये होता है 'गागली युद्ध'


      गागली युद्ध से एक कहानी जुड़ी है। स्थानीय किवदंतियों के अनुसार रानी और मुन्नी नाम की दो बहनें थी। दोनों ही एक साथ कुएं या तालाब में पानी भरने के लिये जाती थी। एक दिन रानी की पानी भरते समय कुएं में गिरने से मौत हो गयी। मुन्नी तुरंत ही घर पहुंची और उसने गांव वालों को सारी घटना विस्तार से बता दी। गांव वालों ने मुन्नी पर ही आरोप लगा दिया कि उसने रानी को धक्का देकर कुंए में फेंका। मुन्नी की किसी से नहीं सुनी। उसे दोषी मान लिया गया। वह पहले ही अपनी सहेली की मौत से सदमे में थी और गांव वालों के आरोपों से दुखी होकर उसने भी कुएं में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। ग्रामीणों को बाद में अपनी गलती का अहसास हुआ। अब पछतावा करने के अलावा कुछ नहीं बचा था। उन्हें रानी और मुन्नी के श्राप का डर सताने लगा। ऐसे में वे महासू देवता की शरण में गये। देवता ने उन्हें दशहरे के दिन दोनों बहनों की मूर्तियां बनाकर कुएं में विसर्जित करने की सलाह दी। तब से ही पश्चाताप के रूप में गागली युद्ध होता है। इससे दो दिन पहले रानी और मुन्नी की मूर्तियां तैयार करके उनकी पूजा होती है और पाइंता यानि दशहरे के दिन उन्हें कुएं में विसर्जित कर दिया जाता है। 
       उत्तराखंड का हर क्षेत्र ऐसी ही दिलचस्प कहानियों और प​रपंराओं से समृद्ध है। 'घसेरी' के पाठकों से गुजारिश है कि ऐसी परंपराओं को आम लोगों तक पहुंचाने के लिये अपना सहयोग करें। आप घसेरी के लिये इन विषयों पर लिख सकते हैं। यदि गागली युद्ध के बारे में अधिक जानकारी या चित्र हों तो उन्हें भी भेज सकते हैं। पहाड़ से जुड़ा ऐसे किसी विषय पर लिखकर आप मुझे चित्र सहित dmpant@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

विनती

                       ... जितेंद्र मोहन पंत ...

     
          नंदा देवी त्वसे विनती च मेरी
          आज शरणम अयूं छौं मी तेरी 
          मेरी मनोकामना पूरी कैरी
          नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

                  भारत का लोग मां जागरूक ह्वेन
                  मिलिकै देश थै एैथर बढ़ैन
                  इनु मंत्र मां आज यूं फर फेरी
                  नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

          जात पांत हमसे दूर मां रावू
          हिन्दू . मुस्लिम थै भाई बणावू
          सबु की जात मां भारतीय कैरी 
          नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी

                 भेदभाव थै मां जड़ से ​मिटै दे
                 विकास का बीज मां देश म ब्वे दे
                 तू इतनी कृपा मां हम पर कैरी 
                  नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

..............................................................
 कवि का परिचय
..............................................................
जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। इसी दौरान 1978 से 1982 तक पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। यह विनती भी सत्तर के दशक के आखिरी दौर में लिखी थी। बाद में सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन। 

गुरुवार, 22 सितंबर 2016

पौड़ी और अल्मोड़ा से हो रहा है सबसे अधिक पलायन

चार्ट एक ... पौड़ी गढ़वाल से पलायन की कहानी बयां कर रहे हैं आंकड़े

      पिछले दिनों में मन में यह सवाल उठा था कि आखिर उत्तराखंड से सबसे अधिक पलायन किस जिले से हो रहा है। इसका जवाब ढूंढने के लिये 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ों का सहारा लिया तो कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। पता चला कि जहां भारत जनसंख्या विस्फोट की तरफ बढ़ रहा है वहीं उत्तराखंड के दो जिलों पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा की जनसंख्या इन दस वर्षों में घटी है। इन आंकड़ों पर खुश होने की जरूरत नहीं है। असल में यह पलायन के दुष्परिणाम हैं। इससे यह भी साबित होता है कि उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पलायन तेजी से हुआ है और इसमें पौड़ी गढ़वाल सबसे आगे हैं।
     जनगणना के आंकड़ों पर गौर करें तो पौड़ी जिले की जनसंख्या 2001 में 697,078 थी जो 2011 में घटकर 687,271 रह गयी। यानि 1.41 प्रतिशत कम हो गयी। (देखिये चार्ट एक) आंकड़े भले ही कुछ साल पुराने हैं लेकिन यह एक कड़वा सच बयां करते है। कमोबेश आज की स्थिति और खराब होगी। पलायन नहीं रूकेगा तो आगे स्थिति और भयावह हो सकती है। गढवाल में पलायन की शुरूआत नब्बे के दशक में हो गयी थी। यही वजह थी कि 1991 से 2001 के बीच भी पौड़ी जिले में केवल 3.87 प्रतिशत वृद्धि ही दर्ज की गयी जबकि बाकी जिलों में यह इससे अधिक थी। वर्ष 2001 से 2011 के बीच गढ़वाल मंडल के बाकी जिलों जैसे चमोली, उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाण, टेहरी गढ़वाल आदि में जनसंख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गयी। टेहरी गढ़वाल में हालांकि 2.35 प्रतिशत, चमोली में 5.74 प्रतिशत, रूद्रप्रयाग में 6.53 प्रतिशत और उत्तरकाशी में 11.89 प्रतिशत वृद्धि हुई लेकिन इन दस वर्षों में देहरादून की जनसंख्या 32.33 और हरिद्वार की जनसंख्या में 30.63 प्रतिशत बढ़ी है। इन आंकड़ों की कहानी कुछ अलग तरह से श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी ने अपने एक गीत 'सब्बि धाणि देहरादूण हुणी खाणी देहरादूण' में भी बयां की है।

चार्ट दो ... उत्तराखंड की जनसंख्या तो बढ़ी है लेकिन पौड़ी गढ़वाल की घटी है। 

      गर कुमांऊ मंडल की बात करें तो अल्मोड़ा जिले की स्थिति दयनीय है। अल्मोड़ा की जनसंख्या 2001 में 630,567 थी जो 2011 में घटकर 622,506 रह गयी। मतलब इसमें 1.28 प्रतिशत की कमी आयी है। बागेश्वर और पिथौरागढ़ की जनसंख्या में भी खास बढ़ोतरी दर्ज नहीं की गयी। यह क्रमश: 4.18 और 4.58 प्रतिशत थी। चंपावत की जनसंख्या 15.63 प्रतिशत बढ़ी है लेकिन उधमसिंह नगर और नैनीताल ने कुमांऊ के दूसरे जिले को लोगों को भी आकर्षित किया। यही वजह है कि 2001 से लेकर 2011 तक नैनीताल की जनसंख्या में 25.13 प्रतिशत और उधमसिंह नगर की जनसंख्या में 33.45 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गयी।
     जब उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की मांग की जा रही थी तब 'पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी' रोकने के नारा खूब जोर शोर से चला था। राज्य गठन के बाद स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गयी। इसका परिणाम है कि आज गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं। राज्य सरकार पलायन को रोकने में पूरी तरह से नाकाम रही है। अब भी अगर सार्थक कदम उठाये जाते हैं तो सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

शनिवार, 3 सितंबर 2016

मेरे गांव का कौथीग : कभी होती थी उमंग और रौनक

गांव की कुलदेवी नंदादेवी का मंदिर। फोटो : नीलांबर पंत 
       त्तराखंड में कौथीग यानि मेलों का चलन वर्षों से चला आ रहा है। यहां एक नहीं बल्कि सैकड़ों कौथीग का आयोजन होता है। वर्ष में एक बार होने वाले इन कौथीग का दिन तय होता है। कौथीग विशेषरूप से किसी धार्मिक स्थल पर ही लगते हैं। गढ़वाल में बैशाख का महीना एक तरह से कौथीग के लिये समर्पित है। इस महीने सबसे अधिक कौथीग लगते हैं लेकिन कई जगहों पर इसके बाद भी कौथीग का आयोजन होता रहता है।  (पढ़ें चलो भैजी कौथिग जौंला)मैं आज यहां पर अपने गांव के कौथीग का जिक्र करूंगा। मेरा गांव स्योली है जो पौड़ी गढ़वाल के चौंदकोट इलाके में पट्टी गुराडस्यूं में आता है। नंदादेवी हमारी कुलदेवी है जिसका मंदिर गांव के ऊपर धार (पहाड़ी का सबसे ऊंचा हिस्सा, शिखर) में है। इसी स्थान पर हर साल तीन सितंबर को कौथीग लगता है। बचपन से हम लोगों के मुंह पर चढ़ा था 'नंदौं कौथीग' यानि नंदा देवी में लगने वाला मेला। मेरे गांव के आसपास ईगासर (एकेश्वर) और जणदादेवी के कौथीग भी लगते हैं लेकिन हमारे लिये नंदा के कौथीग का खास महत्व था। यदि आप गांव में हैं तो नंदा कौथीग में जाना अनिवार्य माना जाता है। जिनका 'अबाजु' (जिस घर में किसी की मृत्यु हुई हो वार्षिक श्राद्ध तक उनके यहां बाजा नहीं बजता और वे किसी तरह के थौळ कौथीग में भी नहीं आते) उनको छोड़कर सभी लोग नंदादेवी के कौथीग जाते हैं।

गांव से नंदादेवी मंदिर की तरफ आती जात्रा और मंदिर के अंदर का दृश्य। फोटो : राकेश पंत 

             बचपन में तो हम महीने भर पहले से कौथीग के बारे में सोचना और उसको लेकर योजनाएं बनानी शुरू कर देते थे। जो सबसे नयी पोशाक (भले ही वह साल भर पुरानी क्यों न हो) होती थी कौथीग के लिये उसे अच्छी तरह से तैयार करते थे। कभी कभी ऐसा भी होता था कि कौथीग के लिये नये कपड़े भी बन जाते थे। कौथीग हो और नये कपड़े हों तो उस खुशी को यहां शब्दों में बयां करना मुश्किल है। जब प्राइमरी में पढ़ते थे तो हमारे स्कूल से नंदादेवी का मंदिर दिख जाता था। दूर से ही सही लेकिन हम वहां की हलचल का आकलन लगा लेते थे। गुरूजी भी हमारी उत्सुकता समझते थे और इसलिए उस दिन जल्दी छुट्टी कर देते थे। जब राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल गये तो परिस्थिति बदल गयी। यहां समय पर ही छुट्टी होनी थी और तब ऐसे भी मौके आते थे जबकि हम स्कूल ड्रेस में ही कौथीग चले जाते थे। या तो फिर जल्दी घर पहुंचकर नये कपड़े पहने और फिर मिनटों में लगभग एक . डेढ़ किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़कर कौथीग पहुंच जाते थे। हमें कौथीग के लिये एक रूपया मिलता था। अगर पिताजी के बजट में संभव हुआ तो कभी कभी दो रूपये भी हाथ में आ जाते। कभी कभार तो अठन्नी चवन्नी से भी काम चलाना पड़ता था। पैसा हालांकि उत्साह कम नहीं करता था। मुझे याद है कि बचपन में मैंने एक बार मां के सामने बांसुरी खरीदने की जिद कर ली थी। मां पहले मनाती रही लेकिन आखिर में उन्हें मेरी जिद के आगे झुकना पड़ा। उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे रहे होंगे उनसे मेरी बांसुरी आ गयी। मैं तो खुश था कृष्ण कन्हैया बनकर लेकिन यह मुझे वर्षों बाद अहसास हुआ था कि मेरी बांसुरी के लिये शायद मां ने तब अपनी ​'टिकुली बिंदुली' का त्याग किया होगा। मां ऐसी ही होती हैं।

इस चित्र से मेरे गांव, मेरे प्राइमरी स्कूल और नंदादेवी मंदिर की स्थिति का पता लगाया जा सकता है जिसका जिक्र यहां किया गया है। 

        नंदादेवी कौथीग की तैयारी गांव में भी एक दिन पहले से शुरू हो जाती हैं। नंदादेवी का एक मंदिर गांव में चौंर (चौंरा, चौपाल) में भी है। वहां पर पूजन के बाद शाम को नंदादेवी की जात्रा (हम जात बोलते थे) निकलती है।  ढोल, दमाउ, हुड़का, डौंर, रणसिंघा आदि वाद्ययंत्रों चारों तरफ गूंजती आवाज से पता चल जाता था कि जात्रा अभी कहां पर है। रात गहराने तक शिखर पर स्थित #नंदादेवी मंदिर में पूजन होता है और फिर वापस घर लौट आते हैं। गांव से लेकर इधर उधर के दुकानदार भी एक दिन पहले से तैयारी शुरू कर देते थे इसलिए मंदिर के पास रात भर रौनक रहती थी। अगले दिन भी दोपहर के बाद गांव से जात्रा निकलती है और उसके पहुंचने पर ही असली कौथीग शुरू माना जाता है। कौथीग जाने पर सबसे पहला काम होता है मंदिर में भेंट चढ़ाना। जब तक भेंट नहीं चढ़ाई तब तक मेले से कुछ नहीं खाना। एक रूपया जेब में हो तो पांच या दस पैसे भेंट में चढ़ा दिये और बाकी बचे पैसों से कुछ खा पी लिया। शाम को घर लौटते वक्त सभी की जुबान पर कौथीग के किस्से होते। इसके बाद इंतजार शुरू हो जाता अगले साल के तीन सितंबर का।

कौथीग की रंगत होते हैं ढोल दमौ और डौंर थाली। फोटो सौजन्य :  राकेश पंत, विपित पंत

       नंदादेवी कौथीग में मुझे बचपन से ही बकरों की बलि देना अखरता था। कोई परिवार मनौती रखता और फिर बकरे की बलि देता। बकरा कट जाता तो उसके खून की तिलक सब अपने माथे पर लगाते। बड़ा अजीब प्रचलन। मैं बचपन से इसका विरोध करता रहा। शायद यह विरोध स्वाभाविक था क्योंकि जब से मैंने इसका विरोध किया तब वास्तव में परिपक्व नहीं था। मेरे परिवार ने भी कम से कम मेरे जन्म के बाद कभी किसी बकरे की बलि नहीं दी। सुनने में आया है कि अब भी कुछ परिवार बकरे की बलि देते हैं। शिक्षित लोग ऐसा कर रहे हैं। अफसोस। शायद वे मां दुर्गा, जिसका एक रूप नंदा देवी है, को समझ ही नहीं पाये। (पढ़ें देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना)


कौथीग की असली रंगत होती हैं जलेबी। फोटो सौजन्य : राकेश पंत, नीलांबर पंत। 

       ढ़वाल की अर्थव्यवस्था एक समय मनीआर्डर आधारित थी। पहले तो नौकरी के लिये दिल्ली, देहरादून, मुंबई की तरफ निकले भाई बंधु नंदादेवी के #कौथीग के लिये अपनी छुट्टियों को विशेष रूप से बचाकर रखते थे। अब कौथीग की रौनक पहले की तरह नहीं रही। अब न तो दुकानें सजती हैं और ना ही कोई छुट्टियां लेकर जाता है। मुझे खुद याद नहीं है कि मैं आखिरी बार कब नंदा देवी कौथीग गया था। असल में गढ़वाल से पलायन करने वाले हम जैसे 'भगोड़ों' के कारण ही कौथीगों की रौनक कम हुई है।
    बहरहाल आज मेरे गांव में नंदा देवी का कौथीग है। मैं दिल्ली में बैठकर ही इस कौथीग से बचपन से जुड़ी यादों को ताजा कर रहा हूं। आप भी जरूर बताईये अपने गांव या क्षेत्र के कौथीगों के बारे में। जय नंदादेवी। आपका धर्मेन्द्र पंत 


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

घी संक्रांति या घी—त्यार : घी नहीं खाया तो बनोगे घोंघा

घी संक्रांति का त्योहार हमें आलस त्यागने और कर्मठ बनने का संदेश देता है। 

      रक संहिता में कहा गया है कि ''घी- स्मरण शक्ति, बुद्धि, ऊर्जा, बलवीर्य, ओज बढ़ाता है। घी वसावर्धक है। यह वात, पित्त, बुखार और विषैले पदार्थों का नाशक है।'' इस शुरूआत का मतलब यह नहीं है कि आज मैं आपको दूध से बने दही और उसे मथकर तैयार किये गये मक्खन को धीमी आंच पर पिघलाकर तैयार होने वाले घी के गुणों के बारे में बताने जा रहा हूं। असल में मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि आज घी संक्रांति या घिया संक्रांद या घी—त्यार है। गढ़वाल में इसे आम भाषा में घिया संक्रांद और कुमांऊ में घी—त्यार कहते हैं। उत्तराखंड में लगभग हर जगह आज के दिन घी खाना जरूरी माना जाता है। इसके पीछे एक डर भी छिपा हुआ है और वह है अगले जन्म में गंडेल यानि घोंघा बनने का। पहाड़ों में यह बात प्रचलित है जो घी संक्रांति के दिन घी का सेवन नहीं करता वह अगले जन्म में गंडेल (घोंघा) बनता है। शायद यही वजह है कि नवजात बच्चों के सिर और पांव के तलुवों में भी घी लगाया जाता है। यहां तक उसकी जीभ में थोड़ा सा घी रखा जाता है। 
      उत्तराखंड में यूं तो प्रत्येक महीने की संक्रांति को कोई त्योहार मनाया जाता है। इनमें भाद्रपद यानि भादौ महीने की संक्रांति भी शामिल है। इस दिन सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है और इसलिए इसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं। इस वर्ष आज यानि 16 अगस्त 2016 को सूर्य सिंह राशि में प्रवेश कर रहा है और सुधि ब्राह्मणजनों के अनुसार भाद्रपद संक्रांति का पुण्य काल दोपहर 12 बजकर 15 मिनट से आरंभ होगा। उत्तराखंड में भाद्रपद संक्रांति को ही घी संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां हर परिवार जरूर घी का सेवन करता है। जिसके घर में दुधारू पशु नहीं होते गांव वाले उनके यहां दूध और घी पहुंचाते हैं। जब तक गांव में था तब तक मां पिताजी ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि कम से कम घिया संक्रांद के दिन हमें घी खाने को जरूर मिले। 
      घी संक्रांति के अलावा कुछ क्षेत्रों विशेषकर कुमांऊ में ओलगी या ओलगिया का त्योहार भी मनाया जाता है जिसमें शिल्पकार अपनी बनायी चीजों को गांव के लोगों को देते हैं और इसके बदले उन्हें धन, अनाज मिलता है। यह प्रथा चंद्रवंशीय राजाओं के समय से पड़ी। तब राजाओं को कारीगर अपनी चीजों को भेंट में देते थे और इसके बदले उन्हें पुरस्कार मिलता था। जो दस्तकार या शिल्पकार नहीं होते थे वे साग सब्जी, फल, मिष्ठान, दूध, दही, घी राजदरबार में ले जाते थे। 
       घी संक्रांति प्रकृति और पशुधन से जुड़ा त्योहार है। बरसात में प्रकृति अपने यौवनावस्था में होती है और ऐसे में पशु भी आनंदित हो जाते हैं। उन्हें इस दौरान खूब हरी घास और चारा मिलता है। कहने का मतलब है कि आपका पशुधन उत्तम है। आपके पास दुधारू गाय भैंस हैं तभी आप घी का सेवन कर सकते हैं। घोंघा बनने का मतलब यह है कि अगर आप मेहनती नहीं हैं, आलसी हैं तो फिर आपकी फसल अच्छी नहीं होगी और आपका पशुधन उत्तम नहीं होगा। आप आलसी हैं और इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का अच्छी तरह से उपयोग नहीं कर पाते। यहां पर घोंघा आलस्य का प्रतीक है। जिसकी गति बेहद धीमी होती है और इस कारण बरसात में अक्सर रास्ते में पांवों के नीचे कुचला जाता है। 
     घी संक्रांति के दिन कई तरह के पकवान बनाये जाते हैं जिनमें दाल की भरवां रोटियां, खीर और गुंडला या गाबा (पिंडालू या पिनालू के पत्तों से बना) प्रमुख हैं। यह भी कहा जाता है कि इस दिन दाल की भरवां रोटियों के साथ घी का सेवन किया जाता है। तो फिर देर किस बात की आप भी सेवन करिये घी का और मनाईये घी संक्रांति। मैं तो जा रहा हूं घी के साथ रोटी खाने। तब तक के लिये नमस्कार। आपका धर्मेन्द्र पंत  

© ghaseri.blogspot.in 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

सावन की याद, नेगी जी के गीतों के साथ

                   (श्री नरेंद्र सिंह नेगी के जन्मदिन पर 'घसेरी' की विशेष प्रस्तुति)


फोटो सौजन्य : आफिसियल ग्रुप आफ नरेंद्र सिंह नेगी
       ह बादल बहुत तेजी से पास आ रहा है। ऐसा लगता है कि उसके मन में मुझे आलिंगनबद्ध करने की तीव्र लालसा है। उसे मैं और मुझे वो दिख रहा है। यह जरूर मेरे पहाड़ का बादल होगा। हम भटके पहाड़ियों की खबर लेने वह भटकते हुए यहां पहुंच गया होगा। तभी तो वह मिलन के लिये इतना आतुर है। पता नहीं कब फूट पड़े और उसकी अश्रुधारा मुझे भिगो दे। आज मुझे यह बादल प्यारा सा लग रहा है। तब भी लगता था जब गांव के पास पहाड़ी पर यह चंचल चितचोर मुझ जैसे किशोरों का मन आह्लादित कर देता था और मां को व्याकुल। सावन का महीना पहाड़ की हर गृहिणी को अपने कामकाज को लेकर व्यथित कर देता है। इसलिए कई बार यह बादल उनके मन को नहीं भाता है। मां भी अपवाद नहीं थी। ऐसे में मेरी इच्छा हुई श्री नरेंद्र सिंह नेगी के उस गीत को सुनने की जो मुझे मेरे बचपन में लौटा देता है। जो मेरे कानों में मां के शब्दों की झंकार भी पैदा करता है। तब लगता था कि अगर मां के दो नहीं दस हाथ भी होते तो वह भी कम पड़ जाते। कपड़े, मोळ (गोबर), लकड़ियां, रजाई गद्दे, सूखने के लिये डाला गया अनाज सब को भीगने से बचाना है। बुबाजी (पिताजी), मैं, दीदी या भाई बाहर हैं तो उनकी भी चिंता होती और अगर वह स्वयं खेत में है तो खुद की नहीं घर की चिंता सताती। नेगी जी ने कितने सुंदर शब्दों में बारिश आने पर पहाड़ी जीवन की व्यथा को व्यक्त किया है और सबसे महत्वपूर्ण उसमें हास परिहास का भी पूरा पुट भरा है। आपने जरूर सुना होगा यह गीत .....
गरा रा रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे,
गरा रा रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे 
सरा रा रा डाण्यूं में कन कुयेड़ि छैगे 
गौं कि सतेड़ि कोदड़ि सार, गरा रा रा ऐ बरखा डाळ 
हौल छोड़ि भागि कका, काकि लुकि रे उड्यार
गरा रा रा घसैन्युं की छुलि रुझैगे .......

सावन में पहाड़ और वहां के गांव खिल उठते हैं। ऐसे में 'खुद' लगना स्वाभाविक है। फोटो सौजन्य : बिजेंद्र पंत 

       सावन में पहाड़ खिल उठते हैं। तब वे अपने पूरे यौवन पर होते हैं। गदेरों और झरनों के कोलाहल के बीच कोहरे की चादर। आखिर याद तो आएगी। 'खुद' तो लगेगी। इसलिए सावन को पहाड़ों में 'खुदेड़ महीना' कहा जाता है। विछोह की पीड़ा की व्याख्या करता है सावन यानि सौण। नेगी जी ने न सिर्फ सावन बल्कि बरसात के चारों महीनों की इस पीड़ा को अलग अलग अंदाज में पेश किया है। कभी वह ''गरा रा रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे...'' वाले गीत में पूरी शरारत के साथ 'बोडी और ब्वाडा' की परेशानी के जरिये हम सबकी दुश्वारियों का वर्णन करते हैं तो दूसरी तरह उस विवाहिता के मन के अंदर झांकने के लिये विवश कर देते हैं जिसमें मायके के उसके उल्लास और उमंग से भरे दिन छिपे हैं। जिन्हें वह दर्द के जरिये इस तरह से बाहर निकालती है ... ''सौण का मैना ब्वे कनु  कै  रैणा, कुयेडी  लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालि''। यह दर्द का गीत है। ठंडे दर्द का गीत। सतत चलने वाले दर्द का गीत। इस गीत में ठिठुरन है। पहाड़ में अब भी कई महिलाएं इस दर्द को समझ रही होंगी लेकिन फिर भी उन्हें इसमें अपनत्व लग रहा होगा। आखिर यह उनके मन का गीत है। 
     क फिल्मी गीत है 'हाए हाए ये मजबूरी ये मौसम और ये दूरी तेरी दो टकिये की नौकरी मेरा लाखों का सावन जाए'। यह एक विरहिणी के मन की बात तो कहता है लेकिन चलताऊ अंदाज में। नेगी जी के गीतों में इसी वियोगिनी की दिल की आवाज कुछ इस तरह से निकलती है ..''हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासी...। '' काम की मारामारी, तिस पर घना कोहरा और बारिश तथा साथ में अभावों की जिंदगी। इन सबके मिलन से पैदा होती है 'खुद'। कभी याद आती है मां की तो कभी अपने पिया की जो दूर परदेस में ड्यूटी पर तैनात है। जब 'खुद अपनी पराकाष्ठा' पर पहुंच जाती है तो फिर मन पिया के पास पहुंचने के लिये तड़प उठता है। मुझे लगता है कि पलायन के लिये हम पहाड़ियों की यह 'खुद' भी जिम्मेदार है। नेगी जी के कई गीतों में यह 'खुद' अपने अलग अलग रंग रूप में दिखायी देती है। सावन से पहले जब वह बारिश का आह्वान करते हुए गाते हैं, ''बरखा हे बरखा, तीस जिकुड़ि की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूझै जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजा ...'' तो इसमें एक 'खुद' समायी हुई है जो अलग अंदाज में सामने आकर हमारी यादों के पिटारे को खोल देती है। 

नेगी जी का जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी गांव में हुआ था। जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं मेरे गढ़ रत्न, मेरे भारत रत्न, मेरे सुर सम्राट। आप अपनी गीत परंपरा का शतक पूरा करो। शुभकामनाएं।  फोटो सौजन्य : आफिसियल ग्रुप आफ नरेंद्र सिंह नेगी

        कहते हैं कि जहां न जाए रवि वहां जाए कवि और मैं कहता हूं कि हमारी सोच जहां पर खत्म हो जाती है नेगी जी के गीत हमें उससे आगे तक ले जाते हैं। वह प्रकृति के चितेरे हैं। वह सौंदर्य के पुजारी हैं। शब्द, शिल्प और भाषा में सूक्ष्म कल्पनाओं को पिरोकर उन्होंने हम पहाड़ियों की कोमल भावनाओं पर पंख लगाये हैं। वह मानवतावादी हैं, वह प्रगतिवादी हैं, वह हमारे सांस्कृतिक नायक हैं। वह पिछले 40 से भी अधिक वर्षों से गीत लिख रहे हैं और उन्हें अपनी आवाज दे रहे हैं। इन गीतों में पूरा एक युग समाया हुआ है। ये गीत हर उस व्यक्ति के गीत हैं जिसका पहाड़ से नाता रहा है। हमारी संस्कृति, हमारे समाज, हमारी परंपराओं, हमारी जीवन शैली का दूसरा रूप हैं नेगी जी के गीत। उनके अंतर्मन में पहाड़ बसा है और कंठ में कोयल। इसलिए आज अगर आज कोई एक व्यक्ति समग्र तौर पर पहाड़ का प्रतिनिधित्व करता है तो उस शख्स का नाम है नरेंद्र सिंह नेगी। आज नेगी जी का जन्मदिन है। उनका जन्म 12 अगस्त 1949 को पौड़ी गांव में हुआ था। जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं मेरे गढ़ रत्न, मेरे सुर सम्राट। आप अपनी गीत परंपरा का शतक पूरा करो। हम सब यही दुआएं करते हैं।
आपका धर्मेन्द्र पंत  

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)

------- Follow me on Twitter @DMPant

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

रिंगाल : कलम से लेकर कंडी तक

रिंगाल या रिंगलु
       रिंगाल या रिंगलु। उत्तराखंड के लगभग हर बच्चे से लेकर बड़े तक का रिंगाल से जरूर वास्ता पड़ता है। बचपन में रिंगाल की कलम से लिखना और घर में उससे बनी कई वस्तुओं का उपयोग जैसे सुपु, ड्वारा, कंडी, चटाई, डलिया आदि। बचपन में रिंगाल की कलम से लिखने का बहुत शौक था। हम मानते थे कि बांस से बनी कलम की तुलना में रिंगाल की कलम से अधिक अच्छी लिखावट बनती है। गांव में रिंगाल कम पाया जाता था लेकिन हम किसी भी तरह से रिंगाल ढूंढ ही लेते थे। जब बहुत छोटे थे तब पिताजी चाकू से छीलकर उसकी कलम बनाते थे। मैंने अपने गुरूजी (श्री पंचमदास जी) को भी कई बार स्कूल में बच्चों की कलम बनाते हुए देखा था। रिंगाल से मेरा पहला परिचय कलम ने ही करवाया था और कक्षा पांचवीं तक यह रिश्ता बना रहा। वैसे रिंगाल या बांस से बनी तमाम वस्तुएं हम हर रोज उपयोग करते थे। आज हम 'घसेरी' में इसी रिंगाल पर चर्चा करेंगे जो पहाड़ों में रोजगार का उत्तम साधन बन सकता है। 
          रिंगाल को बौना बांस भी कहा जाता है। बौना बांस मतलब बांस की छोटी प्रजाति। बांस के बारे में हम सभी जानते हैं कि यह बहुत लंबा होता है लेकिन #रिंगाल उसकी तुलना में काफी छोटा होता है। बांस जहां 25 से 30 मीटर तक लंबे होते हैं वहीं रिंगाल की लंबाई पांच से आठ मीटर तक होती है। बांस की तरह यह भी समूह में उगता है। यह मुख्य रूप से उन स्थानों पर उगता है जहां उसके लिये पानी और नमी की उचित व्यवस्था हो। यह विशेषकर 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर उगता है। उत्तराखंड में कई स्थानों पर इसकी व्यावसायिक खेती भी होती है। उत्तराखंड में मुख्य रूप से पांच प्रकार के रिंगाल पाये जाते हैं। इनके पहाड़ी नाम हैं गोलू रिंगाल, देव रिंगाल, थाम, सरारू और भाटपुत्र। इनमें गोलू और देव रिंगाल सबसे अधिक मिलता है। गोलू रिंगाल का वानस्पतिक नाम DREPANOSTACHYUM FALCATUM जबकि देव रिंगाल का THAMNOCALAMUS PATHIFLORUS है। अमेरिका में ARUNDINERIA FALCATA प्रजाति का रिंगाल मिलता है जिसे उत्तराखंड में सरारू नाम से जाना जाता है। इनमें से गोलू रिंगाल अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर मिलता है जबकि देव रिंगाल निचले स्थानों यानि 1000 मीटर की ऊंचाई पर भी पाया जाता है। THAMNOCALAMUS JONSARENSIS यानि थाम भी अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर उगता है। इसे सभी रिंगाल में सबसे मजबूत और टिकाऊ माना जाता है। इसलिए इस रिंगाल की लाठियां बनायी जाती हैं।

बेहद उपयोगी होता है रिंगाल 


सुपु। अनाज से भूसे को अलग करने का उत्तम साधन। फोटो : रविकांत घिल्डियाल
    रिंगाल की कलम का पहले ही जिक्र किया जा चुका है। यह तो इस पौधे का छोटा सा उपयोग है। काश्तकार इससे कई अन्य उपयोगी वस्तुएं तैयार करते हैं। इनमें सुपा या सुपु (अनाज से भूसे को अलग करने के लिये), टोकरी, डोका या ड्वक (घास, चारा, कोदा, झंगोरा जैसे अनाज लाने के लिये), डलिया, बड़ी कंडी, हथकंडी, ड्वारा या नरेला (अनाज रखने के लिये), चटाई, फूलों को इकट्ठा करने के लिये बाल्टी, बक्सा, थाली, फूलदान, कलमदान, कूड़ादान, झाड़ू, ट्रे, पेस्टदान, टेबल लैंप, सोल्टा आदि प्रमुख हैं। घर में चावल साफ करने हैं या झंगोरा सुपु के बिना संभव नहीं हैं। जब चावल ओखली में कूटे जाते हैं तो सुपु की मदद से ही भूसे को अलग किया जाता है। घर में रोटी रखने के लिये अलग से टोकरी होती है जो मुख्य रूप से रिंगाल से ही तैयार की जाती हैं। कंडी से तो कई यादें जुड़ी हैं। खेतों में काम करने वाले के लिये कंडी में खाना रखकर ले जाया जाता है। गांव में 'पैणा' बांटने हैं तो वह भी कंडी में ही रखे जाते हैं। उत्तराखंड में 'दौण कंडी' का प्रचलन वर्षों से चला आ रहा है। कुमांऊ में डलिया को पवित्र माना जाता है। भिटौली त्योहार में मां डलिया में ही बेटी के लिये कपड़े और पकवान रखकर भेजती है। बेटी के घर बच्चा होने पर भी डलिया भेंट करने की परंपरा रही है। 
     कहने का मतलब है कि रिंगाल पहाड़ी लोगों के दैनिक जीवन का अहम अंग रहा है। रिंगाल की पत्तियां भी उपयोगी होती हैं। इनका उपयोग पशुओं के लिये चारे के रूप में किया जाता है। पशु इसकी पत्तियों को बड़े चाव से खाते हैं। खेतों में रिंगाल से बाड़ तैयार की जाती है और सूखने पर इसका उपयोग जलावन के लिये किया जाता है। यहां तक मिट्टी से बने घरों में छत बांस और रिंगाल के बिना तैयार नहीं की जा सकती है। रिंगाल बहुउपयोगी होने के बावजूद सरकारों से उसे शुरू से नजरअंदाज किया। इससे जुड़े कारीगरों को प्रोत्साहित करने की कोशिश नहीं की गयी जबकि यह रोजगार का अच्छा साधन हो सकता था। सरकार को स्थानीय लघु उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये प्रयास करने चाहिए। रिंगाल उद्योग भी इनमें शामिल है। 
     बड़े भाई जितेंद्र मोहन पंत ने बहुत पहले एक कविता लिखी थी। उसमें एक पंक्ति थी 'फिर से तख्ती लिखने को करता है मन'। सच में ढेर सारी यादें जुड़ी हैं रिंगाल की कलम और इससे बनी वस्तुओं से। अभी तो मैं खुद को इन यादों के हवाले कर रहा हूं। आपका  धर्मेन्द्र पंत

© ghaseri.blogspot.in 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

शनिवार, 23 जुलाई 2016

जब लगती थी 'गोठ' और होती थी 'गोठपुजाई'

गोठ। फोटो सौजन्य : नीलांबर नीलू पंत
     बात 1984 की है। दसवीं कक्षा में प्रवेश किया था मतलब अगले साल बोर्ड की परीक्षा देनी थी। इससे छह महीने पहले हालांकि मुझे एक और परीक्षा से गुजरना पड़ा था। उम्र 14 साल, छह महीने लेकिन मैंने गोठ या गोट  लगाने का फैसला किया था। वीरू (चचेरा भाई वीरेंद्र) का साथ था। गांव के दो लड़के शार्गिद बन गये। पिताजी मुझसे सहमत नहीं थे लेकिन सर्दियां शुरू होने पर गांव में अपने दूर के खेतों तक मोल़ (गोबर) मुझे पहुंचाना पड़ता। दीदी की उसी साल शादी हो गयी थी और उसके साथ रहते हुए मोल़ ढोलने (बोरी में भरकर गोबर खेतों तक पहुंचाना) या अन्य कामों में जितना ऐश करना था वह कर लिया था। भैजी के लिये लड़की की तलाश जारी थी और मां पर धीरे धीरे उम्र हावी हो रही थी। मतलब कम से कम इन सर्दियों में तो मुझे ही खेतों तक गोबर पहुंचाना होगा। दूर के खेतों तक गोबर पहुंचाने से बचने का एकमात्र रास्ता सितंबर . अक्तूबर में गोठ लगाना था और इसलिए मैं भावी मेहनत से बचने के लिये अपने फैसले पर अडिग था। 
      मैं अपनी इस कहानी को कुछ आगे बढ़ाने से पहले आपको गोठ के बारे में बता दूं। गोठ या गोट मतलब गोशाला। मैंने गोठ को लेकर फेसबुक के घसेरी ग्रुप में एक पोस्ट डाली थी। इस पर श्रीमती क्षिप्रा पांडेय शर्मा ने बताया कि कुमांऊ में मकान के नीचे के हिस्से को गोठ कहते हैं जबकि श्री विवेक ध्यानी ने कम शब्दों में गोठ को अच्छी तरह से परिभाषित कर दिया। उनके शब्दों में, ''गोट। जहां गावं के कुछ लोग अपने पशुओं को एक साथ अस्थायी तौर पर कुछ दिनों के लिए रखते हैं? '' नीलांबर नीलू पंत ने फोटो उपलब्ध करायी और बताया कि उन्होंने भी गोठ लगायी है और इसमें उन्हें बहुत आनंद आता था। हमारे लिये गोठ का मतलब था खेतों में टिन या कांस से बने पल्ला डालना जो आपके सिर के ऊपर छत का काम करे और फिर ​जहां तक आपका खेत हैं उसमें गाय, बैल, बछड़े, भेड़ बकरियां बांध कर रात भर उनकी रखवाली करना। ये पालतू पशु रात में जितना मूत्र या गोबर करते खेत को उतनी खाद मिलती और गुठेर (गोठ लगाने वाला) के दिल को सुकून। सीधा सा मतलब 'गोबर की पूर्ति के लिये खेतों में पशुओं को बांधना'। पहाड़ों में सितंबर . अक्तूबर में बहुत काम होता है। इस दौरान अमूमन अक्तूबर में गोठ लगायी जाती है। गढ़वाली के मशहूर कवि श्री दीनदयाल सुंद्रियाल 'शैलज' के शब्दों में  ''बांस व घास के पल्लों के नीचे, टांट (बांस से बनाया गया सुरक्षा चक्र) के पीछे भेड़ बकरियों की खुशबू वाली महकती रात और टप टप  बरसात की बूंदों की आवाज़ के आनंद के साथ साथ अचानक बाघ या किसी जंगली जानवर के आने के अंदेशे से उत्पन्न रोमांच वही महसूस कर सकता है जिसने गोठ मे रात बिताई हो।"

गांव में गाय बैलों को बांधने के लिये स्थायी कीला और रस्सी होता है। । गोट के लिये कीले लकड़ियों के बनाये जाते हैं। इनका निचला वाला हिस्सा नुकीला होता है। भीमल की टहनियों को कुछ दिन पानी में भिगोने के बाद उससे मिलने वाले स्योलू से रस्सियां तैयार की जाती थी। 
       गोठ भी दो तरह की होती थी। एक छोटी गोठ यानि एक या दो पल्ले डालना ताकि उसके अंदर दो चारपाई समा जाएं। इस तरह की गोठ में पशुओं के रूप में केवल गाय बैलों को ही रखा जाता था। दूसरी चार से छह पल्लों की बड़ी गोठ। इसमें भेड़ और बकरियां गोठ में रहती थी। तीन पल्ले जमीन से सीधे खड़े करके तीन पल्लों को उसके ऊपर बड़ी कुशलता से रखकर डंडों के सहारे उसे कुछ हद तक झोपड़ी का रूप दे देना। इसमें आगे और दोनों किनारों का हिस्सा खुला रहता था। दोनों किनारों पर एक . एक चारपाई डाल दी जाती थी और बीच में भेड़ बकरियां बांध दी जाती थी। बाकी पशु बाहर खुले में बांधे जाते थे। डर बाघ या सियार से होता था जो भेड़ बकरियों पर ज्यादा घात लगाये रहते थे। भेड़ बकरियों का गोबर ज्यादा उपजाऊ माना जाता है।
     मैंने छोटी तरह की गोठ लगाने की तैयारी की थी। मतलब हमारे पास दो पल्ले थे और भेड़ बकरियां हमारे पास नहीं थी। चार परिवारों के चार लड़के थे। इसका मतलब था कि अगर 28 दिन गोठ लगानी है तो प्रत्येक के खेत में सात दिन गोठ लगेगी। अगर किसी के खेत कम हैं तो वह अपना हिस्सा दूसरे को दे सकता था। गांव बड़ा था और इसलिए गुठेर हम ही नहीं थे। गांव के दूसरे लड़कों और वयस्कों ने भी हमारी तरह समूह बनाकर गोठ लगाने का फैसला किया था। गोठ के लिये सबसे पहला और मुश्किल काम था पशु जुटाना। आप अपने घरों से दुधारू पशुओं या छोटे बछड़ों को नहीं ले जा सकते थे। वैसे गोठ लगाने से पहले एक अदद सांड की तलाश भी होती थी। इससे अपने गांव सहित इधर उधर के गांवों से उन गायों के मिलने की संभावना बढ़ जाती थी जो दुधारू नहीं हों। अधिक पशु होने पर खेत को अधिक खाद मिलती थी लेकिन मेहनत भी उतनी की बढ़ जाती थी।
       जिसके खेत में गोठ लगती थी उसके लिये वह सुबह से लेकर अगले दिन सुबह तक की मेहनत का काम था। पहले उसे सुबह दूसरे के खेत से सभी पशुओं को चराने के लिये ले जाना पड़ता था। पल्ला, चारपाई और बिस्तर उसके खेत तक पहुंचाने में तो सुबह बाकी साथी मदद कर देते थे लेकिन कीला (बड़ी और मोटी खूँटी) और ज्यूड़ा (पशुओं को बांधने की रस्सियां) अपने खेत तक खुद पहुंचानी पड़ती थी। दिन भर गाय बैल चराने के बाद शाम को गोठ के पास पहुंचकर कीला गाड़ने पड़ते थे। कीला गाड़ने के लिये मुंगरू (मोटी लकड़ी से बना, जिसके आगे का हिस्सा मोटा होता है) होता था जिसका खास महत्व होता था। इसे रात को गोठ के पास खड़ा करके रखा जाता था। कहा जाता था कि मुंगरू रखने से भूत पिशाच गोठ में हमला नहीं करते थे। कीला गाड़ने के बाद जो कमजोर या छोटा पशु यानि बछड़ा है तो उसे गोठ (जहां पर पल्ले लगे होते थे) के पास बांधा जाता था जबकि बड़े और ताकतवर पशुओं को थोड़ा दूर। इनमें सांड भी शामिल होता था। सांड की प्रकृति और प्रवृति को देखकर उसे खुला भी छोड़ दिया जाता था। अब इंतजार होता था उस घड़ी का जब गांव से बाकी साथी खाना लेकर आते थे। पेट में चूहे कूद रहे होते थे और जब खाना मिल जाता था तो वह किसी अमृत से कम नहीं लगता था। कई बार गोठ में ही खाना बनाया जाता था। खिचड़ी से लेकर खीर तक। रोटी और सब्जी भी। इसके बाद यदि आसपास में दूसरी गोठ भी होती तो फिर कछड़ी (छोटी बैठक) जम जाती। कई बार कक​ड़ियों की भी चोरी होती और फिर रात में पेट भरा होने के बावजूद भी चाव से ककड़ी खायी जाती। ककड़ी चोरी के भी किस्से हैं। 

भेड़ बकरियों को बांधने के लिये अलग से रस्सी बनायी जाती है। इसे स्थानीय भाषा में तांद कहते हैं। एक तांद में सात आठ बकरियों को बांधा जाता है। गोठ में दो चारपाईयों को कुछ दूरी पर लगाने के बाद उनके बीच में तांद लगायी जाती है। 
      मैंने जब भी इस तरह से इंतजार किया तो अक्सर गोठ के अंदर ही दुबके रहकर पशुओं पर नजर रखता था। भूतों पर विश्वास नहीं करता था इसलिए भूतों से अधिक डर बाघ का रहता था। अगर आ गया तो फिर मेरी पैंट का गीली होना तय था। मेरे साथ ऐसी कोई घटना नहीं घटी लेकिन छोटे भाई बिजू (बिजेंद्र पंत) एक रोमांचक किस्सा सुनाया।  बिजेंद्र के शब्दों में,  ''मैंने 1991 में गोठ लगायी थी जिसमें हम चार पार्टनर थे। बड़ा उत्साह था। रात ढलने को आयी तो चार में से दो जने घर रोटी लाने चले गये और दो गोठ में रहे। रात को खाना खाकर सो गये। सब गहरी नींद में थे तभी रात एक बजे के आसपास अचानक पशुओं की हड़बड़ाहट से नींद खुली। देखा तो सभी पशु सहमे हुए थे। पशुओं की गिनती की तो एक बछड़ा कम निकला। जब तक खेत से दूर उसे ढूंढते तब तक बाघ अपना काम कर चुका था। इसके बाद जैसे तैसे सो गये लेकिन रात के तीन बजे के आसपास हमारा पल्ला हिलने लग गया। कानों में किल​कारियां गूंज रही थी। काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी। जैसे तैसे रात काटी। सुबह हमें बताया गया कि हमने मुंगरू सही नहीं रखा था गोठ के अंदर और इसलिए भूत वहां प्रवेश कर गया था। कहते हैं कि मुंगरू जरूरी होता है गोठ में रक्षा के लिये। इसके बाद हमें कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ। ''
        आखिर में उस दिन का इंतजार रहता था जब 'गोठपुजाई' या 'ग्वठपुजै' होती थी। किसी विशेष दिन गोठ समाप्त होती थी और उस दिन बाकायदा पूजा की जाती थी। मुंगरू को हमेशा देवता की तरह सम्मान दिया जाता था। उस पर पांव नहीं लगाये जाते और आखिरी दिन उसकी पूजा होती। उसे घी दूध से नहलाया जाता था। कई तरह के व्यंजन बनते। श्री दीनदयाल सुंद्रियाल शैलज के अनुसार, ''जब हम बहुत छोटे छोटे थे तो हमारे घर के सयाने गोठ से सुबह घर आते तो हमे गोठ की रोटी का बड़ा इंतज़ार रहता था। बिना किसी शाक सब्जी के बासी रोटी की मिठास का शायद सुबह सुबह की भूख तृप्त होने से संबद्ध होगा पर हमारे लिए तो गोठ की रोटी भगवान के प्रसाद जैसी चीज थी और हम छोटे भाई बहिनो मे इसके लिए लड़ाई भी हो जाती थी लेकिन असली उत्साह और उमंग का अवसर तब आता था जब चौमास समाप्त होने पर गोठ को घर आना होता तो "गोठपुजाई" एक  उत्सव की रात होती थी। उस दिन गोठ की रसोई मे ही सभी संबंधित परिवारों के लिए विविध व्यंजन पकते थे जिसमे दाल के भूड़े व खीर तो अवश्य बनती थी। ये दोनों चीजें मुझे आज भी बहुत प्रिय है।''
       तो ये थी गोठ की कहानी। आपमें से कई भाईयों ने गोठ जरूर लगायी होगी और आपके साथ भी कुछ रोचक किस्से घटित हुए होंगे। यहां टिप्पणी वाले कालम में जरूर साझा करें। आपके किस्सों का इंतजार रहेगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)



Follow me @ Twitter @DMPant
© ghaseri.blogspot.in 
     

बुधवार, 6 जुलाई 2016

गढ़वाल में धर्मशाला जैसा स्टेडियम बन सकता है रांसी

धर्मशाला के एचपीसीए स्टेडियम जैसा खूबसूरत बनने की सारी संभावनाएं मौजूद हैं पौड़ी के रांसी मैदान में। 
     
    र्मशाला के एचपीसीए क्रिकेट स्टेडियम में जब पहली बार गया तो उसकी खूबसूरती ने वास्तव में मन मोह लिया। सामने हिमाच्छादित हिमालय और उसी की एक पहाड़ी पर निर्मित किया गया स्टेडियम। आसपास की भौगोलिक स्थितियों के अलावा मैदान की हरी घास और बेहद व्यवस्थित पवेलियन और रेस्टोरेंट। हिमाचल प्रदेश क्रिकेट संघ के अध्यक्ष, पूर्व में बीसीसीआई सचिव और अब बोर्ड के प्रमुख अनुराग ठाकुर के अच्छे प्रयासों का एक खूबसूरत नमूना।
        इस साल गर्मियों में जब पौड़ी के रांसी मैदान पर गया तो धर्मशाला की यादें ताजा हो गयी। पहाड़ी की चोटी पर स्थित मैदान जिसे प्रकृति से भरपूर रंग मिले हैं। दूर पहाड़ियों में अठखेलियां करते बादल और पास में देवदार जैसे वृक्षों की कतार और उनसे वातावरण में फैली शीतलता। वास्तव में रांसी का यह मैदान किसी का भी मन मोह सकता है। अंतर इतना है कि इसे पिछले कई वर्षों से कछुआ चाल से तैयार किया जा रहा है और चार दशक पहले नींव रखे जाने के बावजूद सुविधाओं के नाम पर यहां कुछ नहीं है। भाई गणेश खुगसाल 'गणी' के साथ जब रांसी मैदान गया तो पहला शब्द मुंह से यही निकला कि 'यह तो गढ़वाल में धर्मशाला जैसा मैदान बन सकता है।' बस रांसी को एक अनुराग ठाकुर की जरूरत है।

रांसी मैदान पर जब मैंने बल्ला थामा तो छोटे बेटे प्रदुल ने एक अच्छी फोटो भी क्लिक कर दी। बाद में गणी भैजी ने भी अपने क्रिकेट कौशल का अच्छा नमूना पेश किया।  

      रांसी मैदान पौड़ी के ऊपर लगभग 7000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। कहा जाता है कि यह एशिया में इतनी अधिक ऊंचाई पर स्थित अकेला स्टेडियम है। हेमवती नंदन बहुगुणा जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब 1974 में उन्होंने इस स्टेडियम की नींव रखी और इसके निर्माण के लिये 12 लाख रूपये मंजूर किये थे। मैदान का निर्माण होने के बाद यहां जिला और राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं का भी आयोजन हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार ने हालांकि बाद में मैदान पर ध्यान नहीं दिया जिससे इसकी स्थिति बिगड़ने लगी। मेजर जनरल (सेवानिवृत) भुवन चंद्र खंडूड़ी जब केंद्र में परिवहन मंत्री थे तब उन्होंने अपने सांसद कोष और केंद्र से रांसी मैदान के नवीनीकरण के लिये पैसे दिये थे। इसके बाद उन्होंने उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने पर भी स्टेडियम के विकास के लिये पांच करोड़ रूपये देने की घोषणा की थी। 

      रांसी मैदान पर अब भी निर्माण कार्य चल रहा है लेकिन उसकी गति बेहद धीमी है। देखकर लगता है कि जैसे किसी को भी इस मैदान की चिंता ही नहीं है। उत्तराखंड सरकार चाहे तो इसको एक बड़े मैदान और खूबसूरत स्टेडियम में बदल सकती है। इस तरह के स्टेडियम के निर्माण और उसमें सुविधाएं प्रदान करने से पर्यटकों को भी लुभाया जा सकता है। भारतीय क्रिकेट बोर्ड यानि बीसीसीआई इस खेल को गांवों में पहुंचाने की बात करता है ताकि अच्छी प्रतिभा उभरकर सामने आ सके। इसके लिये उसे रांसी जैसे मैदानों पर गौर करना होगा। रांसी को अभी एथलेटिक्स या फुटबाल स्टेडियम के तौर पर ​तैयार किया जा रहा है लेकिन इन खेलों के लिये पास में ही स्थित कंडोलिया का मैदान है जिसका नवीनीकरण किया जाना जरूरी है। 

रांसी स्टेडियम में दर्शकों के लिये अभी कुछ भी खास इंतजाम नहीं किये गये हैं। 
     ऐसा लगता है ​कि खूबसूरती तो रांसी के रग रग में भरी है लेकिन उसे सजाने संवारने की जरूरत है। उसे एचपीसीए स्टेडियम की तरह दुल्हन का रूप देने की जरूरत है। बीसीसीआई दस नखरे दिखा सकता है। वह पौड़ी में बड़ा होटल या हवाई पट्टी नहीं होने का बहाना बना सकता है लेकिन हमारी अपनी सरकार तो है। वह चाहे तो रांसी स्टेडियम के​ लिये आदर्श पिता साबित हो सकती है। उसकी खूबसूरती में चार चांद लगा सकती है। काश कि ऐसा हो पाता। अभी तो मैं गणी भाई का आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने मुझे रांसी स्टेडियम के दर्शन कराये। मैं इस मैदान पर क्रिकेट खेल रहे उन तीन . चार युवाओं का आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने मुझे अपने साथ एक खिलाड़ी बनने का मौका दिया। मैं अब कह सकता हूं कि रांसी मैदान पर बल्ला मैंने भी घुमाया और मैंने भी गेंदबाजी की है। उम्मीद यही है कि एक दिन रांसी भी एचपीसीए जैसा खूबसूरत स्टेडियम बनेगा और तब मैं अपने पोते . पोतियों को बड़े शान से बताऊंगा कि 'इस मैदान पर तो मैंने भी क्रिकेट खेली है।' आपका धर्मेन्द्र पंत

© ghaseri.blogspot.in 

मंगलवार, 28 जून 2016

गढ़वाल का कौसानी है खिर्सू

खिर्सू में वन विभाग  का मनोरंजन केंद्र हर सैलानी को लुभाता है। 

      बांज, देवदार, चीड़, बुरांश के पेड़ों से भरे जंगल के बीच बसा छोटा सा गांव जहां शोर के नाम पर सुनाई देता है केवल पक्षियों का कलरव। सामने नजर दौड़ाओं को दिखती है हिमाच्छादित चोटियों की मनोरम श्रृंखला और मौसम ऐसा कि मई . जून में स्वेटर पहनने की नौबत पड़ सकती है। इस जगह का नाम है खिर्सू जो लगभग 1700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और जहां आपको अन्य पर्यटन स्थलों की तरह चकाचौंध तो नहीं मिलेगी लेकिन यहां आकर लगेगा कि आप प्रकृति के बेहद करीब हैं। खिर्सू में उत्तराखंड सरकार के तमाम 'प्रयासों' के बावजूद सुविधाओं का अभाव भी हो सकता है लेकिन प्रकृति का करीबी अहसास आपको इनकी कमी नहीं खलने देगा। 
      खिर्सू के बारे में बचपन से सुना था लेकिन तब यह महज एक गांव हुआ करता था जिसे खास तवज्जो नहीं दी जाती थी। बुवाखाल से पौड़ी अनगिनत बार गया लेकिन कभी खिर्सू का रूख नहीं किया। इस बार जब गर्मियों में पहाड़ दौरे पर निकला तो खिर्सू सूची में पहले स्थान पर था। पौड़ी से महज 19 किमी की दूरी पर स्थित तो फिर जाना तो बनता था। तिस पर गणेश भैजी (श्री गणेश खुगशाल 'गणी') का साथ मिल गया तो फिर यात्रा का आनंद दुगुना हो गया। खिर्सू में वन मनोरंजन केंद्र में 'घसेरी' के एक सुधी पाठक श्री देवेंद्र बिष्ट से भी मुलाकात हुई जो अपने दोस्तों के साथ प्रकृति की गोद में कुछ पल बिताने के लिये यहां पहुंचे थे। 

घसेरी के पाठक देवेंद्र बिष्ट (बायें से दूसरे) अपने साथियों के साथ। उनके पीछे है खिर्सू का ऐतिहासिक स्कूल जिसे अंग्रेजों ने तैयार किया था। गढ़वाल के सबसे पुराने स्कूलों में से एक। 
      खिर्सू असल में एक गांव है जिसे उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पर्यटन स्थल का दर्जा दिया गया। रिपोर्टों के अनुसार इसके विकास पर करोड़ों रूपये खर्च भी हुए लेकिन जमीनी हकीकत अलग तरह की कहानी बयां करती है। पर्यटकों को लुभाने के लिये आज भी खिर्सू में वही सब कुछ है जो प्रकृति की देन है। सरकार कहती है कि यहां जमीन नहीं होने के कारण विकास नहीं हो पा रहा है। यदि किसी तरह के विकास के लिये जंगलों या प्रकृति से छेड़छाड़ होती है तो फिर खिर्सू का वर्तमान स्वरूप ही ठीक है लेकिन इसमें भी काफी सुधार की गुंजाइश है। यहां पार्किंग की उचित व्यवस्था भी की जानी चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि यदि खिर्सू जाएं तो गाड़ी में डीजल या पेट्रोल पर्याप्त मात्रा में हो क्योंकि यह सबसे पास का पेट्रोल पंप पौड़ी में है।

खिर्सू में हैं ठहरने के कम विकल्प


     ब हम खिर्सू में ठहरने की व्यवस्था की बात करें तो विकल्प बहुत कम हैं। इनमें गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस है जिसकी आनलाइन बुकिंग होती है और गर्मियों के समय में इसमें भी आसानी से कमरे नहीं मिलते हैं। यहां कमरों की कीमत 800 से 1600 रुपये प्रति दिन है। वन विभाग का विश्राम भवन है जिसे 1913 में बनाया गया था। इसमें अंग्रेजों के जमाने की साज सज्जा भी दिखायी देती है। हाल में 42 लाख रुपये की लागत से दो बम्बू हट भी बनाये गये हैं। यदि आप वन विभाग में काम करते हैं तो आपको सस्ती दर पर ये कमरे मिल जाएंगे। सरकारी कर्मचारियों के लिये भी कुछ छूट है लेकिन सामान्य नागरिकों अंग्रेजों के जमाने के भवन में एक रात के लिये 1000 रुपये जबकि बम्बू हट में 1250 रुपये खर्च करने होंगे। विदेशी पर्यटकों के लिये यह कीमत दोगुनी क्रमश: 2000 और 2500 रुपये हो जाती है। 

खूबसूरत बंबू हट। इसमें फर्नीचर भी बांस से तैयार किया गया है। 
       इन कमरों की बुकिंग पौड़ी में जिला वन अधिकारी (डीएफओ) कार्यालय से की जाती है। लेकिन यहां ठहरने में भोजन की दिक्कत है क्योंकि यहां गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस की तरह खाने की व्यवस्था नहीं थी। पहले यहां सस्ती दरों पर घर जैसा भोजन भी मिल जाता था लेकिन पता चला कि जो मुख्य खानसामा था उसे कोई वन अधिकारी अपने साथ ही ले गया और तब से भोजन व्यवस्था का काम ठप्प पड़ गया। इनके अलावा एक दो निजी होटल भी हैं।  इनमें बद्री विशाल होटल और होटल ताज हिमालय शामिल है। घसेरी के जरिये मित्र बने देवेंद्र बिष्ट बद्री विशाल में ठहरे थे जहां उन्होंने 1500 रुपये में कमरा लिया था। वे वहां की व्यवस्था से खुश थे। हाल में खिर्सू का दौरा करने वाले श्री रामकृष्ण घिल्डियाल ने बताया कि उन्हें इसी होटल में अच्छा कमरा मिल गया था। यह अलग बात है कि उन्होंने खुद को गढ़वाली के रूप में बेहतर तरीके से पेश किया। यहां पानी की कमी है और सुबह नहाने के लिये गर्म पानी चाहिए तो 30 रुपये देकर गर्म पानी से भरी बाल्टी मिल जाएगी। पौड़ी में ठहरने के लिये अच्छे होटल हैं और यहां ठहरकर भी दिन में खिर्सू का आनंद लिया जा सकता है।

प्रांजल और प्रदुल ने मनोरंजन पार्क में पूरी मस्ती की। 

इन स्थानों की कर सकते हैं सैर 


       खिर्सू एक रमणीक स्थल है। आप जंगल से गुजरती लगभग सुनसान सड़क पर पैदल चलकर आनंद ले सकते हैं। यहां से आप हिमालय की लगभग 300 ज्ञात और अज्ञात चोटियों को निहार सकते हैं। इनके अलावा कुछ ऐसी जगह हैं जहां पर आप कुछ समय बिता सकते हैं। ऐसा ही एक स्थान है वन विहार का मनोरंजन केंद्र या पार्क। जंगल के बीच में पार्क बच्चों को जरूर लुभाता है क्योंकि वह पर झूले भी लगे हुए हैं। यह अलग बात है कि उनका रखरखाव अच्छी तरह से नहीं किया जा रहा है। इसी पार्क में पहले नेचर कैंप भी लगाया जाता था। वहां अब भी इन टैंट के अवशेष देखे जा सकते हैं। इस तरह के कैंप पर्यटकों का ध्यान आकर्षित कर सकते थे। खिर्सू से यदि ट्रैकिंग करनी है तो फिर काफी ऊंचाई पर स्थित फुरकंडा प्वाइंट है। यहां से खिर्सू और आसपास के गांवों का विहंगम दृश्य दिखायी देता है। यहां आप अपनी गाड़ी से भी जा सकते हैं। देवभूमि में देवताओं का दर्शन करने हैं तो घंडियाल मंदिर है जो काफी मशहूर है। खिर्सू से लगभग तीन किमी दूर उल्कागढ़ी में उल्का देवी का मंदिर है। कभी गढ़वाल की राजधानी रही देवलगढ़ यहां से 16 किमी दूर है। इसके अलावा आसपास के कुछ गांव हैं,  जिनका भ्रमण किया जा सकता है। चौखंबा से हिमालय का मनोहारी दृश्य देखा जा सकता है। खिर्सू से चौबट्टा तक जंगल के बीच दो किमी की सड़क जंगल के बीच गुजरती हैं। पर्यटक अक्सर यहां घूमने का आनंद उठाते हैं।  खिर्सू और बुवाखाल के बीच पड़ने वाले कुछ स्थलों से बुरांश का जूस भी खरीदा जा सकता है। 

जंगल में शिविर सैलानियों को जरूर पसंद आएगा। बेहतर रखरखाव नहीं होने के कारण अब ऐसे शिविर नहीं लगाये जाते। टैंट से बने शिविरों की स्थिति बदतर हो रखी है। 

 कब और कैसे जाएं खिर्सू 

     खिर्सू जाना हो तो गर्मियों का मौसम आदर्श होता है। अप्रैल से जून तक क्योंकि इसके बाद बरसात का मौसम शुरू हो जाता है। वैसे तो पहाड़ बरसात में अधिक लुभावने बन जाते हैं लेकिन इस दौरान सड़कें टूटने का खतरा बना रहता है जबकि सर्दियों में ठंड अधिक रहती है और ऐसे में आप जंगल के बीच सड़क पर टहलने के बारे में नहीं सोच सकते हो। 
    यदि आप दिल्ली से जा रहे हैं तो खिर्सू जाने के लिये दो रास्ते हैं। पहला मार्ग कोटद्वार से सतपुली और बुवाखाल होते हुए और दूसरा ऋषिकेश से देवप्रयाग और पौड़ी होते हुए खिर्सू जाता है। कोटद्वार से खिर्सू की दूरी 115 किमी है जबकि ऋषिकेश से 128 किमी। इन दोनों ही स्थानों से खिर्सू पहुंचने में तीन से चार घंटे का समय लगता है। पौड़ी राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 119 से जुड़ा हुआ है। खिर्सू का सबसे करीबी रेलवे स्टेशन कोटद्वार जबकि सबसे करीबी हवाई अड्डा जौली ग्रांट है। जौली ग्रांट से ऋषिकेश, देवप्रयाग और पौड़ी होते हुए खिर्सू पहुंचा जा सकता है। 
   मैंने और मेरे परिवार ने तो खिर्सू भ्रमण का पूरा आनंद लिया। आप भी कुछ दिन खिर्सू में बिता सकते हैं। शहरी कोलाहल से दूर एक शांतिप्रिय जगह। आपका धर्मेन्द्र पंत 

© ghaseri.blogspot.in 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

badge