मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

पहाड़ी कौथिगौं की शान जलेबी की कहानी

       लेबी। सुनकर आ गया न मुंह में पानी। जलेबी यूं तो आम भारतीय पकवान है जो उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक देश के हर राज्य में फैला हुआ है। यह अलग बात है कि उत्तर भारतीय इसके ज्यादा मुरीद हैं और तिस पर भी अगर उत्तराखंड की बात करें तो यहां लगने वाले कौथीग यानि मेलों की कल्पना तो जलेबी के बिना की ही नहीं जा सकती है। अगर आप पहाड़ी हैं तो आप जरूर कौथीग गये होंगे और आपने जलेबी का भी भरपूर आनंद लिया होगा। वही गोल गोल रसीली जलेबी, जो पहाड़ के कौथिगों की पहचान हैं। जलेबी बनते हुए तो आप देख ही रहे हैं लेकिन आज हम घसेरी में बात करेंगे जलेबी के इतिहास की। 
     आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जलेबी भारतीय पकवान नहीं है। भारतीयों का जलेबी से परिचय लगभग 550 साल पहले हुआ था। सच कहूं तो जलेबी का इतिहास और इसके भारत में आने की कहानी भी जलेबी की तरह गोलमोल है। एंग्लो इंडियन शब्दों के ऐतिहासिक शब्दकोष 'होबसन जोबसन' के अनुसार जलेबी शब्द अरबी के जुलाबिया या फारसी के जलिबिया से बना है। ईरान में इसे जुलाबिया कहते हैं। वहां दसवीं शताब्दी की पाक कला से जुड़ी कई किताबों में जुलाबिया का जिक्र है। कहा जाता है कि मध्यपूर्व से ही जलेबी भारत में पहुंची। मध्यपूर्व के देशों में जलेबी को जलाबिया कहा जाता है। इनमें भूमध्य सागर से लगा उत्तर अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया भी शामिल है। लेबनान में जेलाबिया नाम की एक पेस्ट्री भी मिलती है। मध्यकाल की एक पुस्तक 'किताब—अल—तबीक' में जलाबिया नाम की मिठाई का जिक्र किया गया है। इसमें बताया गया है यह पश्चिम एशिया का मिष्ठान है।


        भारत में जलेबी का सबसे पहला जिक्र 1450 में जैन धर्म के संबंध में लिखी गयी एक पुस्तक में मिलता है। कई भारतीयों का मानना है कि जलेबी भारतीय मिष्ठान है। शरदचंद्र पेंढारकर ने बनजारे बहुरूपिये शब्द में जलेबी का प्राचीन भारतीय नाम कुंडलिका बताया है। संस्कृत में इसे सुधा कुंडलिका कहते हैं। रघुनाथकृत ‘भोज कुतूहल’ नामक ग्रंथ में जलेबी बनाने की विधि बतायी गयी है। कहा जाता है कि भारत में पहले जलेबी का नाम ‘जल-वल्लिका’ था।  संस्कृत भाषा में सन 1600 में एक किताब लिखी गयी थी जिसका नाम था 'गुण्यगुणाबोधिनी', इस किताब में भी जलेबी के बारे में बताया गया है। कहने का मतलब यह है कि जलेबी सिर्फ आपके मुंह में ही पानी नहीं आ रहा है असल में यह सदियों से लोगों के मुंह की लार टपका रही है। भारत में भी जगह के हिसाब से जलेबी के नाम में थोड़ा परिवर्तन आ जाता है। जैसे मराठी में जलेबी को जिलबी और बंगाली में जिलपी कहते हैं। जलेबी की तरह की ही एक मिठाई है इमरती। माना जाता है कि इसका पुराना नाम अमृती यानि अमृत के समान मीठा था लेकिन फारसी प्रभाव के कारण इसे इमरती कहा जाने लगा।
       पिताजी ने बचपन में दूध के साथ जलेबी खाना सिखाया था। वह आदत अब भी नहीं छूटी है। मैं तो जा रहा हूं दूध और जलेबी का आनंद लेने। आप भी आर्डर करिये एक किलो जलेबी और फिर बताईये कि आपको जुलाबिया पसंद है या जल वल्लिका या जलेबी।  आपका धर्मेन्द्र पंत  

रविवार, 11 नवंबर 2018

गुणों की खान है मीठा करेला (परमला, ककोड़ा)


           क्या आपको मीठा करेला की सब्जी पसंद है? अगर हां तो बहुत अच्छी बात है और अगर नहीं तो फिर मीठा करेला खाना शुरू कर दें। अगस्त से लेकर नवंबर तक पहाड़ों में कई अन्य तरकारियों की तरह बेल पर लगने वाला मीठा करेला वास्तव में गुणों की खान है। मीठा करेला को उत्तराखंड में कई नामों से जाना जाता है। इसे राम करेला भी कहते हैं। कहते हैं कि भगवान राम ने वनवास के दौरान इसकी सब्जी खायी थी। उन्हें यह बहुत पसंद था और इस कारण मीठा करेला को राम करेला भी कहते हैं। यह भी कहा जाता है कि यह कई बीमारियों में उपयोगी है और इसलिए इसका नाम राम करेला पड़ा।
        मीठा करेला को उत्तराखंड में कई नामों से जाना जाता है जैसे परमला, परबल, परमल, परला, मीठा करेला, राम करेला, गुजकरेला, गुजकरेल, ककोड़ा, काकोड़े, किंकोड़ा, घुनगड़ी, केकुरा आदि। नेपाल में इसे बडेला कहा जाता है। रामकरेला मुख्य रूप से दक्षिण अमेरिकी देशों की सब्जी है, लेकिन वहां इसका आकार थोड़ा बड़ा होता है। यह दक्षिण अमेरिका में एंडीज वाले इलाकों यानि पहाड़ी क्षेत्रों में ही पाया जाता है। वहां स्थानीय भाषाओं में इसे काइवा, अचोचा और पेपिनो कहते हैं। Caihua (Caigua), achuqcha और pepino. इसे slipper gourd, lady's slipper, sparrow gourd और stuffing cucumber भी कहा जाता है। देखा आपने आज जिसे परमला, कंकोड़ा या मीठा करेला कहते हैं असल में उसके ढेरों नाम हैं। इसका वानस्पतिक नाम साइक्लेन्थेरा पेडाटा (Cyclanthera pedata (L.) Schrad) है। मीठा करेला में हल्के कांटे से होते हैं और बचपन में हम इस पर दियासलाई या छोटी लकड़ी से पैर लगाकर खेला भी करते थे।

        मेरे यहां इसे परमला कहते हैं लेकिन मैं मीठा करेला कहकर ही अपनी बात आगे बढ़ाऊंगा। मीठा करेला पर जो शोध किये गये उनसे पता चलता है कि इसको खाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है क्योंकि इसमें एंटी आक्सीडेंट और खून को साफ करने वाले तत्व होते हैं। इसमें पर्याप्त मात्रा में आयरन होता है। इसके अलावा मीठा करेला में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फाइबर आदि भी पाये जाते हैं। 
       मीठा करेला के नाम के साथ करेला जरूर जुड़ा है लेकिन यह कड़वा नहीं बल्कि मीठा होता है। जब छोटा या यूं कहें कि नया होता है तो उसे कच्चा भी खाया जा सकता है लेकिन समय के साथ इसके अंदर काले रंग के बीज बन जाते हैं जिन्हें बाहर निकालकर इसकी सब्जी बनायी जाती है। इसको कच्चा खाने पर कुछ हद तक ककड़ी जैसा स्वाद ही आता है। सबसे अहम बात यह है कि मीठा करेला पर कीट और बीमारियों का प्रकोप नहीं होता है। इसलिए  बीज निकालकर इसे सुखा दिया जाता है जिन्हें पहाड़ी भाषाओं में सुग्सा या सुगुसु कहते हैं। इन सुक्सा को सुरक्षित रखकर अगले कुछ महीनों तक सब्जी बनायी जा सकती है।
    अब तो आप मना नहीं करोगे न मीठा करेला की सब्जी खाने से। खाना जरूर स्वादिष्ट होती है इसकी सब्जी। आपका धर्मेन्द्र पंत 

बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

ककड़ी : जिसमें समायी हैं पहाड़ियों की यादें

     
         कड़ी अपणा घर गौं कि ककड़ी जीन हम चोर भी बणौं, जीन हम थै गाळि भि खलैं पर फिर भि हम थै वा बौत प्यारि छै। हर पहाड़ी कि ककड़ी दगण कुछ खास याद जुड़ि ह्वेली। आवा आज घसेरी दगड़ इनि खास यादु थै कि ताजा कर दौं। 
             ककड़ी चा पिंपरी ह्वा या खरस्याणा पिंगळु यि सब्या हमरि यादु क पिटारम समईं छन। जरा वे दिन थै याद कारदि जब ककड़ी क लगुला पर पिंगला फूल ऐन। वै दिन बटै बधें जांदि छै एक आस। अब ककड़ी लगलि अर इथगा स्वच्छदै गिच म पाणि आंद बैठि जांदू छाई। सुबेर उठि दिखदा छाई कि पिंपरी लगि छा या न। जनि पिंपरी दिखेंदी छै हम चिल्लाण बैठि जांद छाई ''मां देख पिंपरी लगिग्या'' अर मां तुरंत डंटदि छै, उंगळी न कैर वीं जना। मां थै डैर रैंदि छै कि उंगळी कैरि कि कखि पिंपरी सैड़ि न जा। याद छ तुम थै कि हम द्वीं उंगलौं बीच अंग्वठा डाळि बतांदा छाई कि वखम छ ककड़ी लगीं। पिंपरी जब हर दुसरा दिन बड़ी हूंदि छै त हमरि खुशी भि बडदा जांदि छै। यी पिंपरी एक दिन जब हैरि ककड़ी बण जांद छै त सब्या घर वला मिलि बैठि वींथै खांदा छा। ककड़ी पैलि पिछनै कु हिस्सा थोड़ा कटदा छन अर फिर वैथै बाकि हिस्सा म रगणद छन जब तक कि सफेद झाग नि आ जांदू। ब्वलद छन कि यांसै ककड़ी कु कड़ुपन दूर ह्वेंजांद। लूण दगण ककड़ी खाणौ अपणु अलग हि आनंद छ।



    ककड़ी खाण म मजा औंदु पर ककड़ी चोरी करणौं एक अलग तरौ रोमांच छ। दुसरों कि न अपणि ककड़ी भि चोरी कै खाणि। ककड़ि चोरि करणि भि एक कला छ अर यांक भि कुछ कायदा कानून छा। जनकि चप्पल—जुता पैलि उतार दीणा, फुफसाट ज्यादा नि करणि, कंडली की झसाक चुपचाप कै सैणी। स्कूल जांद दा या गोर चरांद दां पता चैलि जांदू छाई कि कैकि ककड़ी लगीं छ। जब गोट लगदि छै त रात म चोरि कि ककड़ी खाणौं अलग आनंद आंदू छाई। ककड़ी चोरि हूण पर गाळि भी खूब सुणेंदिन अर घारम पिटै भि हूंदा छाई। हर गौं म एक द्वी इना जरूर हूंदा छाई जो ककड़ी चोरि करण म माहिर छा। ब्वनौ मतलब यौछ कि वो ककड़ी चोर क रूप म फेमस हूंदा छाई। भले ब्वलद छन कि चोर गीज़ू कखडी बिटी, बाग गीज़ू बखरी बिटी, पर या बात इक्का दुक्का ककड़ी चोरू पर हि फिट बैठ द। 

वीडियो भी देखें 


            जैं ककड़ी दगण हमरि इथगा याद जुड़ि छन वींक बारम कुछ औरि बता भि जाण जदौं। हमर पहाड़ै ककड़ी अपणा खास स्वाद क कारण अलग पैचाण रखद। ककड़ी कु वानस्पतिक नाम कुकुमिस सैटिवस छ। हिन्दी म ये खुणि खीरा ब्वलदन। अपणि य ककड़ी गुणों कि खान छ। ककड़ी म 95 प्रतिशत पाणि हूंद। ये मा विटामिन ए, बी, सी अर के खूब पये जांद अर यी वजह छ कि ककड़ी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढांद। ककड़ी पिशाब क रोग दूर करद। ये कि तासीर ठंडी हूंद अर यो पुटगै जलन, पित्त या निंद नि आण जन रोगु म भि फैदा पहुचांद। 
             त कन लगी मी दगण तुमथै ककड़ी स्वाद। जरूर बतायां। तुमरू दगड्या धर्मेन्द्र पंत 

मंगलवार, 18 सितंबर 2018

मेरी चिली यात्रा (3) : एंडीज में एक दिन


   एंडीज पास में हो, ज्वालामुखी हों और 5000 मीटर से भी अधिक ऊंचाई पर झीलें हो तो किसी का भी दिल मचल जाएगा फिर मैं तो भूगोल का विद्यार्थी भी रहा हूं। चिली के उत्तरी भाग में स्थित शहर कोपियापो से अगर एक दिन मैंने अटाकामा मरूस्थल में बिताया तो दूसरे दिन एंडीज की एक श्रेणी पर। एंडीज को यूं तो सैंटियागो से ही देख लिया था लेकिन उसकी गोदी में एक दिन बिताना सच में अद्भुत अहसास था। मैं हीरो मोटोकार्प के अपने साथी कुणाल जोशी का आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने हमारी बात सुनी और एंडीज में स्थित नेवादो ट्रेस क्रूस नेशनल पार्क तथा उसके पास स्थित झील लागुना सैंटा रोसा और सालार डि मरिकुंगा तक जाने की योजना थी। सालार डि मरिकुंगा में ही दुनिया का सबसे ऊंचाई पर स्थित सक्रिय ज्वालामुखी और चिली का सबसे ऊंचा शिखर नेवादो ओजोस डेल सलादो है जिसकी ऊंचाई 6893 मीटर है।
     कोपियापो से नेवादो ट्रेस क्रूस की दूरी लगभग 196 किलोमीटर है। हमें होटल में ही अटाकामा रैली कार्यक्रम से जुड़ी एक स्थानीय महिला अधिकारी ने तमाम हिदायतें दे दी थी। एंडीज में हमें क्या करना है और क्या नहीं करना है। फिर रास्ते भर में हमारा गाइड और ड्राइवर राबर्टो वेरगारा भी हमें सतर्क करता रहा। अमूमन 3000 मीटर के बाद सांस लेने में दिक्कत आ सकती थी और हमें 5000 मीटर तक जाना था लेकिन मुझ पहाड़ी को क्या चिंता। सच में मैं काफी उत्साहित था। जिस एंडीज के बारे में पढ़ा लिखा था आज मैं उसी को आलिंगन करने जा रहा हूं। आज वही एंडीज मुझे अपने आगोश में लेगा। पहाड़ी और बर्फीले रास्तों के लिये उपयुक्त दो गाड़ियों में हम पांच लोग सुबह सात बजे एंडीज के लिये रवाना हो गये। एक गाड़ी में हम तीन भारतीय मैं, कुणाल जोशी और हिन्दुस्तान टाइम्स से जुड़े पत्रकार राजेश पनसारे थे तो दूसरी गाड़ी में पेरू के पत्रकार पाब्लो बरमुडेज और कोलंबिया के रूबेन गोंजालेज सवार थे। तेजी से भागती हमारी गाड़ी अब एक घाटी से होकर गुजर रही थी। वहां हम थे, सड़क थी और सुनसान पहाड़ थे जिन्हें अटाकामा मरूस्थल का ही हिस्सा माना जाता है।
     म पहले पड़ाव के लिये जहां पर रूके उसके बारे में राबर्टो ने बताया कि यह भुतहा कस्बा है 1860 के आसपास काफी चहलकदमी रहती थी। चिली के इन क्षेत्रों में काफी मात्रा खनिज पदार्थ पाये जाते हैं। इनमें सोना चांदी भी शामिल है। यहां के लोगों का भी मुख्य व्यवसाय खनन से ही जुड़ा था लेकिन बीसवीं सदी के शुरू में आयी मंदी के कारण उन्हें यह जगह छोड़नी पड़ी। पिछले लगभग 100 साल से यह जगह भुतहा बनी हुई है। यहां मकानों के अवशेष याद दिलाते हैं कि यहां कभी इंसान रहा करते थे। हमारा अगला पड़ाव काफी मनोरम था। यहां पर जिस पहली चीज ने मुझे लुभाया वह थी कांस या कुश जैसी घास। राबर्टों ने हमें घास नहीं छूने की हिदायत दी क्योंकि उसके धारदार पत्तों से हाथ कटने का डर था। यहीं पर हमने अपना नाश्ता भी किया और फिर हमने घोड़ों का एक झुंड भी देखा। ये एक तरह से जंगली घोड़े थे और राबर्टो ने बताया कि जब स्थानीय निवासियों को इनकी जरूरत पड़ती है तब वे इन्हें पकड़ ले जाते हैं। विशेषकर मांस के लिये इनका उपयोग किया जाता है। शायद ये घोड़े इंसान की फितरत जानते हैं और इसलिए जब हम उनकी तरफ बढ़े तो बिदककर भाग गये।
     कुछ देर तक हमने दूसरे साथियों का इंतजार किया और फिर निकल पड़े। धीरे धीरे एंडीज हमारे पास आ रहा था। दुनिया की सबसे लंबी पर्वत श्रृंखला जो दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप के पूरे पश्चिमी क्षेत्र में उत्तर से लेकर दक्षिण तक लगभग 7000 किलोमीटर तक फैली। अपना हिमालय लगभग 2500 किमी तक फैला है। अब बर्फ हमारा आलिंगन करने लग गयी थी। रास्ते में लगे विभिन्न साइन बोर्ड से हमें पता चल जाता कि अब हम कितनी ऊंचाई पर पहुंच गये हैं। इसके साथ ही हमारे गाइड की हिदायतें भी शुरू हो जाती। मुझे इसकी परवाह नहीं थी। मुझे तो बस ज्वालामुखी देखना था। हमने चिली के सीमा कार्यालय से थोड़ा आगे रास्ता बदला और नेवादो ट्रेस क्रूस की तरफ बढ़ने लगे। लेकिन यह क्या आगे तो रास्ता बर्फ से सटा पड़ा था। लगता था कि रात को ही बर्फवारी हुई थी। हमारे आगे एक ट्रक रास्ता साफ कर रहा था। अमूमन यहां गर्मियों में ही पर्यटक आते हैं और तब बर्फ नहीं पड़ती है। ज्वालामुखी 12 से 15 किमी दूर था लेकिन इस ट्रक के पीछे चलने का मतलब था कि हमें वहां पहुंचने में काफी समय लग जाएगा। अपने गाइड से सलाह ली और उसने बताया कि अर्जेंटीना की सीमा पर कोई जल प्रपात है और उसे देखने जाया जा सकता है। पास में सालार डि मरिकुंगा पर्वत था। चारों तरफ बर्फ बिछी हुई है। इसी के उस पार ज्वालामुखी और झील थी लेकिन मुझे उन्हें देखने का मौका नहीं मिला। उत्तरी चिली में स्थित एंडीज पर्वत श्रृंखला का नाम प्रसिद्ध भूविज्ञानी इग्नेसी डोमियको के नाम पर कार्डिलेरा डोमियको रखा गया है। डोमियको पोलैंड में जन्मे थे लेकिन बाद में उन्होंने चिली को ही अपना घर बना दिया था। उन्होंने इस क्षेत्र में काफी शोध किये थे।  
     मने वापस लौटकर पहले लंच किया। मेरे लिये घास फूस यानि शाकाहारी भोजन की व्यवस्था होटल ने ही कर दी थी। अब हम अर्जेंटीना की तरफ बढ़ रहे थे और मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था। अभी चढ़ाई पर कुछ ही किलोमीटर आगे बढ़े थे कि बर्फ का एक टीला ही सड़क पर छाती फैलाये बैठा था। मतलब आगे जाने की योजना भी रद्द। इस बीच मेरे साथियों पर ऊंचाई का असर दिखने लग गया था। सरदर्द उनमें से एक है। गाइड की हिदायत के बावजूद मैं नीचे उतरा। यहां से अर्जेंटीना इसके बिल्कुल पास में है। इस पहाड़ी के पार अर्जेंटीना की सीमा दिख जाएगी। वही अर्जेंटीना जिसकी धरती पर डियगो माराडोना जैसे दिग्गज फुटबालर का जन्म हुआ। जो लियोनेल मेस्सी की जन्मस्थली है। यह गैब्रियला सबातीन का देश भी है। टेनिस खिलाड़ी सबातीनी जिसने एक जमाने में अपनी सुंदरता से दुनिया भर के युवाओं को अपना दीवाना बनाया था और सच कहूं तो उनमें से एक मैं भी था। यहां पर कार्लोस से मैंने खुद का एक वीडियो भी बनवाया। 
     एंडीज के एक खास जीव विकुना ने यहां पर दर्शन देकर हमारा यहां तक पहुंचना सार्थक कर दिया। विकुना लामा प्रजाति का ही जीव है जिसकी ऊन से बना कोट बेहद महंगा होता है। ऊन, खाल और मांस के लिये विकुना का शिकार किया जाने लगा जिसके कारण 1974 में इनकी संख्या केवल छह हजार रह गयी थी। आखिर में इसे संरक्षित जीव की श्रेणी में रखा गया और इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिले। आज विकुना की संख्या बढकर 35 हजार पर पहुंच गयी है। वापस लौटते समय हमें घाटियों में एक और जीव दिखा जिसे स्थानीय भाषा विस्काचा कहा जाता है। यह गिलहरी और खरगोश के मिश्रण वाला जीव है और मांस के लिये इसका शिकार किये जाने के कारण यह भी अब संरक्षित श्रेणी में आता था। शाम को जब हम होटल लौटे तो हमारे पास एंडीज की ढेर सारी यादें थी। ऐसी यादें जो ताउम्र हमारे साथ बनी रहेंगी। इस पर मैंने एक वीडियो भी तैयार किया है। उम्मीद है वह आपको पसंद आएगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 





































  समाप्त 

रविवार, 16 सितंबर 2018

मेरी चिली यात्रा (2) : जब धरती के मंगल ग्रह पर पड़े मेरे कदम

अटाकामा की सैर रोमांचक और अविश्मरणीय रही

       सेंटियागो से शाम सवा छह बजे हमें कोपियापो के लिये उड़ान पकड़नी थी। हवाई अड्डे पर पहुंचे तो स्थानीय विमान कंपनी लैटम के कर्मचारियों से बोर्डिंग पास हासिल करने के लिये भी बहस करनी पड़ी। असल में टिकट ज्यादा संख्या में बिक गये थे और सीटें कम थी। ऐसा भारत में भी होता है। हमें एक दिन बाद यात्रा करने की सलाह दी गयी और आखिर में शीर्ष अधिकारियों से बात करने पर ही हमें बोर्डिंग पास मिल पाये। वैसे इसका एक कारण यह भी था कि हम थोड़ी देर से पहुंचे थे लेकिन इतनी भी देर नहीं हुई थी कि हमें बोर्डिंग पास ही नहीं मिल पाये। बहरहाल जब हम कोपियापो हवाई अड्डे पर पहुंचे तो अंधेरा हो चुका था और ठंड काफी थी। कोपियापो शहर से हवाई अड्डा काफी दूर है और हम लगभग डेढ़ घंटे बाद अपने होटल पहुंचे। रात्रि भोज तैयार था लेकिन 'डिनर हॉल' में जाने के बाद मैं समझ गया कि यहां मुझे स्वदेश से लाये भोजन पर ही अधिक आश्रित रहना होगा। अगले दिन सुबह लेकर अटाकामा मरूस्थल में काफी अंदर तक जाने और रैली कवर करने का कार्यक्रम था। 
     अब आपको अटाकामा मरूस्थल लेकर चलता हूं। यह दुनिया का बेजोड़ स्थान है। इसलिए पहले इसके बारे में जान लेते हैं। धरती पर बसी एक और धरती। यह वाक्य अगर पृथ्वी के किसी एक स्थान पर सटीक बैठता है तो वह दक्षिण अमेरिकी देश चिली का अटाकामा मरूस्थल। दुनिया में जीवन के लिये जिन कुछ स्थानों की परिस्थितियां सबसे भीषण हैं उनमें अटाकामा मरूस्थल को सबसे ऊपर रखा जाता है। यह दुनिया का सबसे शुष्क स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि बेहद कड़ी परिस्थितियों में जीने वाला कोई सूक्ष्म जीव ही यहां जीवित रह सकता है। कहते हैं कि अगर आपको अटाकामा मरूस्थल में जीवन दिख गया तो फिर आपको उससे भी मुश्किल परिस्थितियों में भी जीवन मिल सकता है फिर चाहे वह मंगल ग्रह ही क्यों न हो। जी हां अटाकामा मरूस्थल की तमाम परिस्थितियां मंगल ग्रह से मिलती हैं और इसलिए अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा यहां प्रयोग कर रही है और मंगल ग्रह पर आधारित हालीवुड की फिल्मों और धारावाहिकों के फिल्मांकन के लिये यह आदर्श स्थल है। 
     अटाकामा मरूस्थल चिली के उत्तरी क्षेत्र में लगभग 105,000 एक लाख पांच हजार वर्ग मीटर क्षेत्र में फैला है। नासा और हालीवुड के बाद अब कार और बाइक रैली के शौकीनों को भी अटाकामा लुभा रहा है। यहां पर हर साल अटाकामा रैली का आयोजन किया जाता है जिसमें इस साल भारत से हीरो मोटोस्पोटर्स टीम रैली की टीम ने हिस्सा लिया था। मैं इसी अटाकामा रैली को कवर करने के लिये ही चिली गया था और सौभाग्य से मुझे मरूस्थल में जाने और इसे समझने का अवसर मिला।
     म कोपियापो में अपने होटल से सुबह नौ बजे अटाकामा की सैर के लिये निकले। सुबह के समय अटाकामा के कुछ हिस्सों में धुंध छायी रहती है जिसे स्थानीय भाषा में कैमनचका कहते हैं। असल में अटाकामा के एक तरफ प्रशांत महासागर और दूसरी तरफ एंडीज पर्वतमाला है। अटाकामा की भौगोलिक परिस्थितियां इस तरह से हैं कि यहां आर्दता लगभग न के बराबर है और यही वजह है कि यहां साल में एक या दो मिलीमीटर बारिश ही होती है। प्रशांत महासागर की हम्बोल्ट धारा इस क्षेत्र में बादल बनने से रोकती है। कहा जाता है कि 1571 से लेकर 1970 यानि 400 वर्षों तक अटाकामा मरूस्थल के कई क्षेत्रों में बारिश की एक बूंद भी नहीं गिरी थी। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार यहां लगभग एक लाख 20 हजार वर्षों से यहां की कई नदियां सूखी पड़ी हैं। ऐसे में यह धुंध आश्चर्यजनक है लेकिन कुछ क्षेत्रों के लिये यह धुंध वरदान है क्योंकि यह उन क्षेत्रों को नमी प्रदान करती है और ऐसा ही एक क्षेत्र कोपियापो भी है।
   दमदार गाड़ी और अटाकामा मरूस्थल से अच्छी तरह से परिचित स्थानीय चालक के साथ हम सैर पर निकले। कोई सड़क नहीं और आपको पहाड़, घाटी और रेत के टीलों यानि ड्यून से होकर गुजरना है। रोमांच की यह पराकाष्ठा होती है और मैंने भी उस कुशल ड्राइवर के हाथों खुद को सौंपकर इस सफर का पूरा लुत्फ उठाया। आसमान अब साफ हो चुका था स्वच्छ नीला आकाश दिख रहा था। कहते हैं कि जितना स्वच्छ और नीला आकाश अटाकामा और उसके आसपास के क्षेत्रों में दिखता है वैसा दुनिया में शायद ही कहीं दूसरी जगह देखने को मिले। यही वजह है कि अटाकामा दुनिया भर के खगोलशास्त्रियों को भी अपनी तरफ आकर्षित करता है। अटाकामा मरूस्थल विश्व के उन कुछेक स्थानों में से एक है जहां वर्ष में 300 से भी अधिक दिन स्वच्छ आकाश दिखता है। यहां प्रकाश संबंधी प्रदूषण भी नहीं होता और ऊंचाई वाले स्थल होने के कारण इस रेगिस्तान में दुनिया का सबसे बड़ा जमीनी टेलीस्कोप अलमा स्थापित किया गया है जहां रेडियो टेलीस्कोप से ली गयी तस्वीरों की मदद से तारों के निर्माण का अध्ययन किया जाता है। इसके अलावा यहां कई अन्य बेधशालाएं यानि अब्ज़र्वटोरी भी हैं।
     रास्ते में हमें सौर ऊर्जा का एक बहुत बड़ा प्लांट भी दिखा जिसमें हजारों पैनल लगे हुए थे। बाद में पता चला कि चिली की 30 प्रतिशत बिजली का उत्पादन अटाकामा मरूस्थल में लगे इन सोलर पावर प्लांट से होता है। आखिर में पहाड़ी पर चढ़ती हमारी गाड़ी एक स्थान पर रूक गयी। पीछे से कुछ अन्य गाड़ियां आ रही थी जो इसी स्थान पर रूकी। आगे ड्यून यानि रेत के टीले थे जो वास्तव मनोरम दृश्य पैदा कर रहे थे। 
   इन्हीं में से एक टीले से रैली को गुजरना था। सभी को पहली बाइक का इंतजार था। इसके बाद लगभग 40 मिनट तक हमने बाइकर्स को इस भीषण मरूस्थल में अपनी कला का अद्भुत प्रदर्शन करते हुए देखा। 
     ब बात करते हैं अटाकामा मरूस्थल और मंगल ग्रह में समानता की। अटाकामा मरूस्थल के एंटोफगास्ता क्षेत्र की मिट्टी और मंगल ग्रह की मिट्टी बहुत समानता है। इस मरूस्थल के युंगे क्षेत्र को पृथ्वी में अपनी तरह की विशिष्ट जगह माना जाता है जिसमें नासा भविष्य में मंगल ग्रह के मिशन को लेकर पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से परीक्षण कर रहा है। अटाकामा में एक और स्थल मारिया इलेना है जिसे युंगे से अधिक शुष्क है और वह वहां की परिस्थितियां मंगल ग्रह के सबसे ज्यादा अनुकूल हैं। नासा का एक दल पिछले साल भी अटाकामा मरूस्थल में गया था। उन्होंने वहां परीक्षण किये जिनका उपयोग एक दिन किसी अन्य दुनिया में जीवन के लक्षणों की खोज में किया जा सकता है। मंगल ग्रह पर भेजे गये यान फीनिक्स मार्श लैंडर ने लाल ग्रह के उस स्थान पर पर्कोरेट्स पदार्थ पाया था जहां सबसे पहले पानी मिला था। पर्कोरेट्स अटाकामा मरूस्थल में भी पाया जाता है। हालीवुड फिल्मों में मंगल ग्रह से जुड़े दृश्यों के फिल्मांकन के लिये भी अटाकामा मरूस्थल का उपयोग किया जाता रहा है। इनमें टेलीविजन सीरीज ‘स्पेस ओडेसी : वॉयेज टू द प्लेनेट्स’ भी शामिल है।
     अटाकामा मरूस्थल के बारे में कहा जाता है कि यहां कोई जिद्दी पौधा या जीव ही जीवित रह सकता है। इस मरूस्थल के कई क्षेत्रों में तो वनस्पति और जीव मिलते ही नहीं हैं। मैं जिस क्षेत्र में गया था वहां कुछ जिद्दी घास देखने को मिली थी। एंडीज पर्वत की निचली घाटियों के हिस्से को भी अटाकामा मरूस्थल का हिस्सा माना जाता है जहां हमने गिलहरी और खरगोश के मिश्रण वाला जीव देखा था जिसे स्थानीय भाषा में विस्काचा कहते हैं लेकिन मरूस्थल के मुख्य भाग में मुझे कोई जीव नहीं दिखा। समुद्र के पास वाले हिस्से में छिपकली प्रजाति के कुछ जीव जरूर मिलते हैं लेकिन मैं उन क्षेत्रों की सैर नहीं कर पाया। वैसे यह मरूस्थल तांबे और अन्य खनिजों से समृद्ध है और यहां सोडियम नाइट्रेट बहुतायत में मिलता है।
     मरूस्थल के टेढ़े मेढ़े रास्तों से होकर पहाड़ियों पर चढ़ने से अधिक रोमांच उतरने में आया लेकिन ड्राइवर इतना कुशल था कि हमें खास झटके नहीं लगे। कभी अटाकामा जाओ तो अपने साथ पर्याप्त मात्रा में पानी लेकर जाना चाहिए। हमारे पास पानी की बोतलें थी। मैं कुछ सेब खरीदकर भी ले गया जिनका स्वाद अटाकामा ने चार गुना बढ़ा दिया था। उस दिन मरूस्थल में इन सेब के सहारे मेरा पूरा दिन अच्छी तरह से निकल गया था। सुबह भी फल तथा कार्न फ्लैक्स का नाश्ता कयिा था और दिन सेब के साथ कट गया था। शाम के लिये तो मेरे पास स्वदेशी भोजन था ही।
     यह थी दुनिया के अनोखे मरूस्थल अटाकामा की छोटी सी कहानी। आपको कैसी लगी जरूर बतायें। आपका धर्मेन्द्र पंत 
















                                                             क्रमश: 

badge