बुधवार, 27 जनवरी 2016

तीलू रौतेली ..वर्षों पहले बन गयी थी लक्ष्मीबाई


जणदादेवी में तीलू रौतेली की प्रतिमा। फोटो..रविकांत घिल्डियाल
       झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, दिल्ली की रजिया सुल्ताना, बीजापुर की चांदबीबी, मराठा महारानी ताराबाई, चंदेल की रानी दुर्गावती आदि के बारे में आपने सुना होगा लेकिन आज मैं आपका परिचय गढ़वाल की एक ऐसी वीरांगना से करवा रहा हूं जो केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी थी और सात साल तक जिसने अपने दुश्मन राजाओं को छठी का दूध याद दिलाया था। गढ़वाल की इस वीरांगना का नाम था 'तीलू रौतेली'। मेरे गांव स्योली के पास स्थित जणदादेवी में इस वीरांगना की प्रतिमा लगी है जो लोगों उनके वीरता, संकल्प और साहस की याद दिलाती है। मेरे गांव के सरहद से ही लगा गांव है गुराड जहां तीलू रौतेली का जन्म हुआ था। पिताजी श्री राजाराम पंत को गढ़वाल और उसके इतिहास की अच्छी जानकारी थी और उन्हीं से मैंने सबसे पहले तीलू रौतेली की कहानी सुनी थी। 
    तीलू रौतेली का जन्म कब हुआ। इसको लेकर कोई तिथि स्पष्ट नहीं है। गढ़वाल में आठ अगस्त को उनकी जयंती मनायी जाती है और यह माना जाता है कि उनका जन्म आठ अगस्त 1661 को हुआ था। उस समय गढ़वाल में पृथ्वीशाह का राज था। इसके विपरीत जिस कैंत्यूरी राजा धाम शाही की सेना के साथ तीलू रौतेली ने युद्ध किया था उसने इससे पहले गढ़वाल के राजा मानशाह पर आक्रमण किया था जिसके कारण तीलू रौतेली को अपने पिता, भाईयों और मंगेतर की जान गंवानी पड़ी थी। पंडित हरिकृष्णा रतूड़ी ने 'गढ़वाल का इतिहास' नामक पुस्तक में लिखा है कि राजा मानशाह 1591 से 1610 तक गढ़वाल राजा रहे और 19 साल राज करने के बाद 34 साल की उम्र में वह स्वर्ग भी सिधार गये थे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तीलू रौतेली का जन्म ईस्वी सन 1600 के बाद हुआ था। गढ़वाल में तीलू रौतेली को लेकर जो लोककथा प्रचलित हैं मैं यहां पर उसका ही वर्णन कर रहा हूं।

वीरता की पर्याय बन गयी थी गुराड तल्ला की तीलू 

      तीलू रौतेली की वीरता का किस्सा सुनने से पहले उनके पिता थोकदार भूपसिंह गोर्ला के बारे में जानना जरूरी है। एक वीर पुरूष जिन्हें गढ़वाल के राजा ने चौंदकोट परगना के गुराड गांव की थोकदारी दी थी। उनके दो जुड़वां बेटे थे भगतू और पर्त्वा या पथ्वा। ये दोनों भी अपने पिताजी की तरह वीर थे। एक समय था जबकि गढ़वाल और कुमांऊ में कत्यूरी राजाओं की तूती बोलती थी लेकिन बाद में वह पूर्वी क्षेत्र तक सी​मित रह गये थे। गढ़वाल के राजा और कत्यूरी राजाओं के बीच तब युद्ध आम माना जाता था। भूप​सिंह एक बार जब निजी काम से गढ़वाल के राजा से मिलने के लिये गये तो उन्होंने उन्हें कैत्यूरी राजा पर आक्रमण करने का भी आदेश दिया। इस बीच बिंदुआ कैंत्यूरा ने चौंदकोट क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। भगतू और पथ्वा ने इस जंग में उसका डटकर सामना किया और आखिर में बिंदुआ कैंत्यूरा को जान बचाकर भागना पड़ा। इन दोनों भाईयों के शरीर पर कुल मिलाकर 42 घाव हुए थे और राजा ने उनकी वीरता से खुश होकर उन्हें 42 गांव पुरस्कार में दे दिये थे। 
     भगतू और पथ्वा की छोटी बहन थी तीलू रौतेली जिसने बचपन से ही तलवार और बंदूक चलाना सीख लिया था। छोटी उम्र में ही तीलू की सगाई ईड़ा के भुप्पा नेगी से तय कर दी गयी थी लेकिन शादी होने से पहले ही उनका मंगेतर युद्ध में वीर गति का प्राप्त हो गया था। तीलू ने इसके बाद शादी नहीं करने का फैसला किया था। इस बीच कैत्यूरी राजा धामशाही ने अपनी सेना फिर से मजबूत की और गढ़वाल पर हमला बोल दिया। खैरागढ़ में यह युद्ध लड़ा गया। मानशाह और उनकी सेना ने धामशाही की सेना का डटकर सामना किया लेकिन आखिर में उन्हें चौंदकोट गढ़ी में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद भूपसिंह और उनके दोनों बेटों भगतू और पथ्वा ने मोर्चा संभाला।  भूपसिंह सरैंखेत या सराईखेत और उनके दोनों बेटे कांडा में युद्ध में मारे गये।
       सर्दियों के समय में कांडा में बड़े कौथिग यानि मेले का आयोजन होता था और परंपरा के अनुसार भूपसिंह का परिवार उसमें हिस्सा लेता था। तीलू ने भी अपनी मां से कहा कि वह कौथिग जाना चाहती है। इस पर उसकी मां ने कहा, ''कौथिग जाने के बजाय तुझे अपने पिता, भाईयों और मंगेतर की मौत का बदला लेना चाहिए। अगर तू धामशाही से बदला लेने में सफल रही तो जग में तेरा नाम अमर हो जाएगा। कौथिग का विचार छोड़ और युद्ध की तैयारी कर। '' मां की बातों ने तीलू में भी बदले की आग भड़का दी और उन्होंने उसी समय घोषणा कर दी कि वह धाम शाही से बदला लेने के बाद ही कांडा कौथिग जाएगी। उन्होंने क्षेत्र के सभी युवाओं से युद्ध में शामिल होने का आह्वान किया और अपनी सेना तैयार कर दी। तीलू ने सेनापति की पोशाक धारण की। उनके हाथों में चमचमाती तलवार थी। उनके साथ ही उनकी दोनों सहेलियों बेल्लु और रक्की  यानि पत्तू भी सैनिकों की पोशाक पहनकर तैयार हो गयी। उन्होंने पहले अपनी कुल देवी राजराजेश्वरी देवी की पूजा की और फिर काले रंग की घोड़ी 'बिंदुली' पर सवार तीलू, उनकी सहेलियां और सेना रणक्षेत्र के लिये निकल पड़ी। हुड़की वादक घिमंडू भी उत्साहवर्धन के लिये उनके साथ में था।
तीलू रौतेली गुराड तल्ला की रहने वाली थी।
गांव में उनकी यह प्रतिमा गुराड की ऐतिहासिक
विरासत की याद दिलाती है। फोटो : सुनील रावत।
 
       तीलू ने खैरागढ़ (वर्तमान में कालागढ़) से अपने अभियान की शुरूआत की और इसके बाद लगभग सात साल तक वह अधिकतर समय युद्ध में ही व्यस्त रही। उन्होंने दो दिन तक चली जंग के बाद खैरागढ़ को कैत्यूरी सेना से मुक्त कराया था। वह जहां भी गयी स्थानीय लोगों और वहां के समुदाय प्रमुखों का तीलू को भरपूर समर्थन मिला। असल में धाम शाही क्रूर राजा था और वह जनता पर अनाप शनाप कर लगाता रहता था। इससे जनता त्रस्त थी और उन्हें तीलू के रूप में नया सहारा मिल गया था। तीलू ने खैरागढ़ के बाद टकोलीखाल में मोर्चा संभाला और वहां बांज की ओट से स्वयं विरोधी सेना पर गोलियां बरसायी। कैत्यूरी सेना का नेतृत्व कर रहा बिंदुआ कैंत्यूरा को जान बचाकर भागना पड़ा। इसके बाद उन्होंने भौण (इडियाकोट) पर अपना कब्जा जमाया। तीलू जहां भी जाती वहां स्थानीय देवी या देवता की पूजा जरूर करती थी और वहीं पर लोगों का उन्हें समर्थन भी मिलता था। उन्होंने सल्ट महादेव को विरोधी सेना से मुक्त कराया लेकिन भिलण भौण में उन्हें कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। भिलण भौण के युद्ध में उनकी दोनों सहेलियां बेल्लु और रक्की वीरगति को प्राप्त हो गयी। तीलू इससे काफी दुखी थी लेकिन इससे उनके अंदर की ज्वाला और धधकने लगी। उन्होंने जदाल्यूं की तरफ कूच किया और फिर चौखुटिया में गढ़वाल की सीमा को तय की। इसके बाद सराईखेत और कालिंका खाल में भी उन्होंने कैत्यूरी सेना को छठी का दूध याद दिलाया। सराईखेत को जीतकर उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया लेकिन यहां युद्ध में उनकी प्रिय घोड़ी बिंदुली को जान गंवानी पड़ी। बीरोंखाल के युद्ध के बाद उन्होंने वहीं विश्राम किया।
    तीलू रौतेली ने गढ़वाल की सीमा तय कर दी थी। इसके बाद उन्होंने कांड़ागढ़ लौटने का फैसला किया लेकिन शत्रु के कुछ सैनिक उनके पीछे लगे रहे। तीलू और उनकी सेना ने तल्ला कांडा में पूर्वी नयार के किनारे में अपना शिविर लगाया। रात्रि के समय में उन्होंने सभी सैनिकों को सोने का आदेश दे दिया। चांदनी रात थी और पास में नयार बह रही थी। गर्मियों का समय था और तीलू सोने से पहले नहाना चाहती थी। उन्होंने अपने सा​थी सैनिकों और अंगरक्षकों को नहीं जगाया और अकेले ही नयार में नहाने चली गयी। तीलू पर नहाते समय ही एक कत्यूरी सैनिक रामू रजवार ने पीछे से तलवार से हमला किया। उनकी चीख सुनकर सैनिक जब तक वहां पहुंचते तब तक वह स्वर्ग सिधार चुकी थी। तीलू रौतेली की उम्र तब केवल 22 वर्ष की थी, लेकिन वह इतिहास में अपना नाम अमर कर गयी।
      तीलू रौतेली की याद में गढ़वाल में रणभूत नचाया जाता है। डा. शिवानंद नौटियाल ने अपनी पुस्तक 'गढ़वाल के लोकनृत्य' में लिखा है, '' जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों  के रण भूत /पश्वा जैसे शिब्बू पोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु-पत्तू सखियाँ, नेगी सरदार आदि के पश्वाओं को भी नचाया जाता है। सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं। ''
      महान वीरांगना तीलू रौतेली को शत शत नमन।
     आपका धर्मेन्द्र पंत


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शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

रिपोर्ट : घसेरी बनी लखपति और जीता चांदी का मुकुट

घसेरी प्रतियोगिता की विजेता रैजा देवी। साथ में महान गायक नरेंद्र सिंह नेगी और प्रतियोगिता के आयोजक।
                                                                                                                                   सभी फोटो : अभिनव कलूड़ा
    राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की सौंदर्य प्रतियोगिताएं होती रहती हैं लेकिन घास काटने की अनोखी 'श्रम सौंदर्य' प्रतियोगिता सुनकर थोड़ा अजीब लगता है। उत्तराखंड में हालांकि पिछले दिनों इसी तरह की अनोखी ‘श्रम सौंदर्य’ प्रतियोगिता आयोजित की गयी जिसमें घास काटने के अपने कौशल का अद्भुत नमूना पेश करके पहले स्थान पर रहने वाली महिला को न सिर्फ एक लाख रूपये की नकद पुरस्कार राशि बल्कि चांदी का मुकट पहनाकर भी सम्मानित किया गया। 'घसेरी' के लिये इस अनोखी लेकिन सराहनीय घसेरी प्रतियोगिता की रिपोर्ट वरिष्ठ पत्रकार ---- अभिनव कलूड़ा ---- ने भेजी है। 
      उत्तराखंड के टिहरी जिले के दुर्गम भिलंगना ब्लॉक के कोठियाड़ा गांव में  पांच और छह जनवरी 2016 को किया गया। शुरू में घास काटने की इस प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसमें 112 गांवों की 637 महिलाओं ने हिस्सा लिया। इस ब्लॉक में कुल 185 गांव हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के उन्नयन के लिए काम कर रहे चेतना आंदोलन ने पर्यावरण और पशु स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए इस अनोखी प्रतियोगिता का आयोजन किया। 
      प्रतियोगिता के लिए कड़े नियम बनाए गए थे। इसका पहला चरण सभी प्रतिभागी गांवों में आयोजित किया गया और हर गांव से तीन सर्वश्रेष्ठ महिलाओं का चयन किया गया। उसके बाद क्षेत्र पंचायत स्तर पर प्रतियोगिता हुई और अंत में चुनकर आयी तीन महिलाओं के बीच अंतिम दौर की प्रतियोगिता आयोजित की गयी। अंतिम दौर में नियम कड़े किए गए थे। प्रतिभागी महिला को निर्धारित स्थान पर खुद घास काटने वाले क्षेत्र का चयन करना था। उसे दो मिनट में काटे गए घास को निर्णायक मंडल को सौंपना था। निर्णायक मंडल ने घास की गुणवत्ता तथा पारिस्थितिकी के अनुकूल उसकी विशेषता के आधार पर घास की पहचान की और फिर उसका तोल किया। अंत में घास की गुणवत्ता के बारे में तीनों महिलाओं की जानकारी की परीक्षा ली गयी। निर्णायक मंडल में उत्तराखंड के मशहूर लोकगायक नरेंद्रसिंह नेगी, राज्य सरकार में महिला सामाख्या निदेशक गीता गैरोला तथा सामाजिक कार्यकर्ता रमा मंमगाई शामिल थीं।

पहले तीन स्थानों पर रहने वाली रैजा देवी (बीच में), जसोदा देवी और अबली देवी। 
       घास काटने की इतनी कड़ी परीक्षा से गुजरने के बाद पहला स्थान 36 वर्षीय रैजा देवी ने हासिल किया। उन्होंने विभिन्न मानदंडों के आधार पर 100 अंकों में से 81.11 प्रतिशत अंक प्राप्त किए। इसके लिये उन्हें एक लाख रुपए नकद तथा 16 तोला चांदी का मुकुट पहनाकर सम्मानित किया गया। रैजा देवी अमरसर बासर की रहने वाली है। उनके दो बच्चे हैं और दोनों गांव की स्कूल में पढते हैं। मल्ड नैलचामी की 42 वर्षीय जसोदा देवी (79.50 प्रतिशत अंक) ने दूसरे स्थान पर रही। उन्हें 51 हजार रुपए और 13 तोला चांदी का मुकुट पहनाया गया। तीसरा स्थान हासिल करने वाली 32 वर्षीय अबली देवी (70.10 प्रतिशत अंक) को 21 हजार रुपए और 10 तोला चांदी का मुकुट पहनाया गया। 
       प्रतियोगिता के आयोजक त्रेपन सिंह चौहान ने बताया ''इस प्रतियोगिता में औषधीय गुण, पर्यावरण के अनुकूल तथा पौष्टिक घास की पहचान रखने और सबसे तेज गति से घास काटने वाली महिला को सम्मानित किया गया। ..... उत्तराखण्ड में तो घसियारी ही किसान भी है। एक किसान को पानी, पशु और मेहनत ही जिन्दा रख सकता है, तभी वह अपने खेतों को उपजाऊ बनाकर अच्छी पैदावार ले पाता है। घसियारियों की जिन्दगी सामूहिकता के बिना चलना संम्भव नहीं, क्योंकि खेती, जंगल से पंजार आदि जीवन को चलाने वाले तमाम काम समाज के सामूहिक सहयोग के बिना सम्पादित नहीं किये जा सकते। इस सामूहिकता के दम पर ही पहाड़ी समाज की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा जीवित है। यह पहाड़ घासियारियों के बूते ही साँस ले रहा है।'' 
      आयोजक चेतना आंदोलन के अनुसार इस प्रतियोगिता पर कुल दो लाख 30 हजार रुपए का खर्च आया है। संगठन की योजना अब हर साल घसेरी प्रतियोगिता का आयोजन करना है ताकि घास काटने वाली महिलाओं को सामाजिक स्तर पर सम्मान मिले और उनके श्रम को पहचान मिल सके।

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

पहाड की पलटा प्रथा यानि पड्याली



                                                    ---- विवेक जोशी की कलम से ----
      साथी हाथ बढ़ाना रे ..कई प्रथाओं से शायद रचेता को ये प्रेरणा मिली होगी ..उल्लास , समन्वय , सौहार्द इससे पनपता है ..एकला चलो रे वाली डगर मुश्किल भरी होती है और समाज के बिना मानव को जंगली समझो। 
      ऐसी ही एक प्रथा है पहाड़ों में 'पलटा देना' जिसे कुछ 'पड्याली' भी कहा जाता है यानि अहसान चुकाना या फिर कहो मिलजुलकर एक दूसरे के काम आना है। गौशाला  का गोबर (मौ या मौल) घर से काफी दूर घंटों में पहुँच जाना वह भी बिना मजदूर लगाये इसी प्रथा से संभव है। मंडुआ से लेकर गेंहू या धान के खेत में निराई गुड़ाई भी मिलकर हो जाती है। एक बैल होते हुए भी जुताई में दूसरे बैल का उपलब्ध हो जाना संभव नहीं होता अगर ये प्रथा नहीं होती। इसके बिना एक गृहणी का पेड़ की कटाई या घास को घर लाना संभव नहीं था। न ही फिर रोपाई हो पाती और ना फसलों की कटाई और व्यापक संदर्भ में कहूं तो जनेऊ और शादी जैसे काम नहीं निभ पाते। 
     संस्कारों के वक्त अपने बर्तनों से दूसरों का काम चलाने से लेकर अपने वहाँ मेहमानों को ठहराने का आनंद ही कुछ और है। और इसका श्रेय जाता है इसी प्रथा को। मनीआर्डर अर्थव्यवस्था के चलते जब पहाड़ के अधिकाँश मर्द मैदानों या फ़ौज में काम करने को बाध्य थे तब भी उस वक्त किसी काम का ना रुकना इसी हाथ बंटाने की वजह से संभव था। उस समय जबकि परिवहन के साधन ना के बराबर थे तब सोलह संस्कार निभाने वाली देवभूमि में हर धर्म, कर्म को अंजाम देना मुश्किल हो जाता अगर यह प्रथा ना होती खासकर जब भौगौलिक स्थिति दुर्गम हो और आर्थिक संसाधन सीमित लेकिन सारे कामकाज सहजता से निभते चले गए इसी प्रथा के कारण। 
     अहसान चुकाने की भावना वह भी बढ़ा चढ़ा कर इसका मिनी रूप आज भी ज़िंदा है जब पैंचा लाकर उसे लौटाते वक्त उससे अधिक दिया जता है या फिर खाली बर्तन नहीं लौटाया जाता। इस पहलू के अलावा इस प्रथा के भीतर उल्लास छिपा है और मेरी समझ में समूचे गाँव के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने बाने को संजोये रखने में इस प्रथा का अप्रत्यक्ष हाथ है। संसाधनों के बेहतर उपयोग को इससे बेहतर कोई प्रथा नहीं समझा सकती और पूरी तन्मयता के साथ दूसरे के लिए हर्षोल्लास के वातावरण में काम करना वाकई किसी वेद के ज्ञान से कम नहीं है क्योंकि स्वस्थ मानसिक और शारीरिक विकास के लिए यह एक टानिक का काम करता है। 
      मित्र गोविंद प्रसाद बहुगुणा के अनुसार ''गढ़वाल में इसको 'पड्याली' बोलते हैं पहले सारे खेतीबाड़ी के काम पारस्परिक सहयोग से होते थे। शादी व्याह में भी कोई मजदूर नहीं रखता था यहां तक कि किसी गांव से कोई रामलीला देखने आपके गांव आये तो उनके भोजन की व्यवस्था उसी गांव के लोग करते थे जहां रामलीला हो होती थी। 'मलार्त' खेतों तक गोबर पहुँचाने को कहते हैं।  लुंग और रोपणी में भी पड्याल प्रथा खूब प्रचलित थी, ऐसे सामुदायिक कार्यों में कामकरने वालों को नाश्ता गहत की भरी रोटी का करवाते थे। कहाँ गए वे दिन। ''
     सच में कहां गये वे दिन?

लेखक परिचय : विवेक जोशी वरिष्ठ पत्रकार है और वर्तमान में हिन्दी समाचार एजेंसी पीटीआई भाषा में समाचार संपादक पद पर कार्यरत हैं। जोशी जी पहाड़ और वहां के जीवन के बारे में लगातार लिखते रहे हैं। 

रविवार, 3 जनवरी 2016

देवताओं का प्रिय, उत्तराखंड का राज्य पुष्प ..ब्रह्म कमल

  अद्भुत, अद्धितीय, अनुपम, अनोखा, अप्रतिम, अनोखा, विलक्षण, देवताओं का ​प्रिय और उत्तराखंड का राज्य पुष्प। अगर आप 'ब्रह्म कमल' की तारीफ में कुछ लिखना चाहेंगे तो विशेषण कम पड़ जाएंगे। एक ऐसा पुष्प जो साल में केवल एक बार खिलता है। एक ऐसा पुष्प जो अपनी विरादरी के अन्य फूलों से विपरीत सूर्यास्त के बाद खिलकर अपने सौंदर्य और सुगंध से पूरे वातावरण को मदहोश कर देता है। एक बेहद दुर्लभ पुष्प जो देवताओं को भी प्रिय है। हिमालय में फूलों का राजा क्योंकि भारत में इसकी जो 61 प्रजातियां पायी जाती हैं उनमें से अकेली 58 हिमालय में मिलती हैं। हिमालय के अलावा यह फूल उत्तरी म्यांमा और दक्षिण पश्चिम चीन में भी पाया जाता है।  उत्तराखंड में यह फूल कई स्थानों पर पाया जाता है लेकिन फूलों की घाटी, केदारनाथ, हेमकुंड, रूपकुंड, पिंडारी, चिफला आदि जगहों पर आप आसानी से इस दिव्य फूल के दर्शन कर सकते हैं।
    एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भले ही यह कमल की तरह दिखता है लेकिन पानी में नहीं ​बल्कि जमीन पर उगता है। अमूमन ब्रह्म कमल 3000 से 5000 मीटर की ऊंचाई पर मिलता है। इसे कई अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे कि हिमालच प्रदेश में दूधाफूल, कश्मीर में गलगल, श्रीलंका में कदुफूल और जापान में गेक्का विजिन जिसका शाब्दिक अर्थ है चांदनी रात की खूबसूरत स्त्री।  चीन में इसे तानहुआयिझियान कहते हैं जिसका अर्थ है प्रभावशाली लेकिन कम समय तक ख्याति रखने वाला।  इसका वानस्पति नाम  साउसुरिया ओबुवालाटा है। वैसे कुछ लोग दावा करते हैं कि आर्किड कैक्टस प्रजाति का फूल जिसका वानस्पतिक नाम इपिफीलम ओक्सीपेटालम है, वह असल में ब्रह्म कमल है। ये सभी ब्रह्म कमल की ही प्रजातियां हैं जो रात में खिलती हैं और इस तरह के फूल को आप घरों में भी उगा सकते हैं लेकिन उत्तराखंड का जो ब्रह्म कमल है वह साउसुरिया ओबवालाटा है। यह फूल  बरसात के दिनों में जुलाई से लेकर सितंबर अक्तूबर तक ही खिलता है।

ब्रहमा का सृजन है ब्रह्म कमल

     ब्रह्म कमल से जुड़ी कई धार्मिक मान्यताएं और गा​थाएं हैं। माना जाता है कि इसका सृजन स्वयं ब्रहमा ने किया था। इसके पीछे भी एक पौराणिक कहानी है। कहा जाता है कि माता पार्वती ने जब गणेश का सृजन किया तो तब भगवान शिव बाहर गये हुए थे। माता पार्वती स्नान कर रही थी और उन्होंने गणेश को घर के बाहर ​खड़ा करके आदेश दिया कि वह किसी को भी अंदर नहीं आने दें। तभी भगवान शिव पधार गये। गणेश ने उन्हें अंदर नहीं जाने दिया और क्रोध में शिव ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। माता पार्वती के आने के बाद उन्हें असलियत का पता चला। माता पार्वती के आग्रह पर ब्रहमा ने ब्रह्म कमल का सृजन किया जिसकी मदद से हाथी का सिर गणेश के धड़ पर जोड़ा गया। ब्रह्मा अपने चार हाथों में से एक हाथ में सफेद पुष्प लिये हुए हैं। यह ब्रहम कमल ही है। यह भी कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु हिमालय क्षेत्र में आये थे तो उन्होंने भगवान शिव को 1000 ब्रह्म कमल चढ़ाये थे।
     पृथ्वी पर ब्रह्म कमल के आगमन से भी एक कहानी जुड़ी है। भगवान राम और रावण की सेना के बीच युद्ध चल रहा था। इस युद्ध में एक बार लक्ष्मण मूर्छित हो गये थे। हनुमान हिमालय पर्वत से संजीवनी लेकर गये और लक्ष्मण को होश आ गया। इससे भगवान राम के साथ देवता भी खुश हो गये। उन्होंने आकाश से पुष्प वर्षा की। यह कोई और पुष्प नहीं बल्कि ब्रह्म कमल था। इस दौरान ये पुष्प फूलों की घाटी पर भी पड़ा जहां इसने अपनी जड़े जमा दी और फिर यह हिमालय में यत्र तत्र फैल गया।
     भीम और हनुमान के मिलन से भी ब्रह्म कमल का जोड़ा जाता है। महाभारत से पहले जब पांडव वनों में अपने दिन गुजार रहे थे तब हिमालय प्रवास के दौरान एक दिन  द्रौपदी इसकी सुंगध से मदहोश हो गयी और उन्होंने भीम को यह पुष्प लाने के लिये कहा। भीम पुष्प की खोज में निकल पड़े। रास्ते में उन्हें अपनी पूंछ फैलाये हनुमान मिले। भीम ने कड़े शब्दों में रास्ते से हट जाने को कहा। हनुमान ने भीम को अपनी शक्ति का परिचय दिया और जब भीम को अपनी गलती का अहसास हुआ तो उन्हें बताया कि ब्रह्म कमल बद्रीनाथ में मिलेगा।
     ब्रह्म कमल साल में एक बार और वह भी रात में चंद घंटों के लिये खिलता है। कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति इसे खिलता हुआ देखता है उसकी मनोकामना पूरी होती है। कहने का मतलब है कि ब्रह्म कमल को खिलता हुआ देखना बेहद पुण्य माना जाता है। बद्रीनाथ और केदारनाथ सहित उत्तराखंड के कई मंदिरों में इस फूल को चढ़ाने का बड़ा महत्व माना जाता है। इससे ब्रह्म कमल के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है क्योंकि चढ़ावे के लिये इसका बद्रीनाथ और केदारनाथ क्षेत्र में अंधाधुंध दोहन किया जाता है। हेमकुंड साहिब में इसका दोहन हो रहा है। पर्यावरण में आ रहे बदलावों का भी इस पुष्प पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। ब्रह्म कमल मां नंदादेवी का भी प्रिय पुष्प है। नंदाष्टमी के समय इसे तोड़ा जाता है लेकिन इसमें भी नियमों का पालन करना पड़ता है। पिथौरागढ़ में 35 किमी के दुर्गम रास्ते से होकर 17000 फीट की उंचाई पर स्थित हीरामणि कुंड से ब्रह्म कमल लाकर मां नंदा को अर्पित किया जाता है। यहां ब्रह्मकमल हर तीसरे साल नंदादेवी पर्वत शृंखला से लाया जाता है। नंदा अष्टमी के दिन देवताओं पर चढ़ाये गये ब्रह्म कमल के फूलों को प्रसाद के रूप में भी बांटा जाता है।

औषधीय गुण भी हैं ब्रह्म कमल में

    ब्रह्म कमल औषधीय गुणों से भी भरपूर है। इसके अंदर से निकलने वाले पानी को अमृत कहा जाता है क्योंकि इसके सेवन से व्यक्ति एकदम से स्पूर्त हो जाता है और उसकी थकान मिट जाती है। ब्रह्म कमल के फूलों की राख को शहद के साथ मिलाकर खाने से यकृत की वृद्धि रोकने में मदद मिलती है। इसे मिर्गी के दौरे रोकने में भी सहायक माना जाता है और घाव भरने में भी इससे मदद मिलती है। इसे जीवाणुरोधी माना जाता है और इसका इस्तेमाल सर्दी-ज़ुकाम, हड्डी के दर्द आदि में भी किया जाता है। लोग इसके कपड़ों के बीच डालकर रखते हैं। इसकी मदहोश करने वाली सुगंध से कपड़े महकते रहते हैं और उन पर कीड़े भी नहीं लगते। मूत्र संबंधी रोगों में भी इसका उपयोग किया जाता है। भोटिया जनजाति के लोग तो इसे अपने घरों में लटकाकर रखते हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह बीमारियों को आने से रोकता है। वियतनामी लोग इसका सूप बनाकर टानिक के रूप में पीते हैं। तिब्बती लोग इसका उपयोग लकवा और दिमागी रोगों के लिये करते हैं। यह जलोदर (एक रोग जिसमें पेट में पानी जमा हो जाता है) को दूर करने में भी उपयोगी है।

घर में उगाईये ब्रह्म कमल

      ब्रह्म कमल की कुछ प्रजातियों को आप घर में भी उगा सकते हैं। इसकी पत्ती को तने सहित काटकर पानी में डुबोकर रखा जाता है। लगभग तीन सप्ताह में इसमें जड़ें आ जाती हैं जिसे किसी गमले में मिट्टी डालकर लगाया जा सकता है। इसका तना काटकर मिट्टी में रोपने पर भी नये पौधा तैयार हो जाता है। असल में इपिफीलम ओक्सीपेटालम श्रेणी के पौधे को उगाना आसान होता है जो हिमालय के अलावा देश के कई अन्य हिस्सों में भी पाया जाता है।
     ब्रह्म कमल का संरक्षण हालांकि जरूरी है। आप इसे देवताओं को अर्पित करिये लेकिन इसकी सीमा तय होनी चाहिए। अगर इसको बचाये रखने के प्रयास नहीं किये गये तो उत्तराखंड का राज्य पुष्प विलुप्त होने की कगार पर पहुंच सकता है। तब आप इसे देवकोप कहेंगे लेकिन उससे बचाव के उपाय अभी से शुरू कर देने चाहिए। आपका धर्मेन्द्र पंत


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