दीनदयाल सुंदरियाल 'शैलज'
उत्तराखंड के पौड़ी जिले के पोखड़ा ब्लाक स्थित कुई गांव का विहंगम दृश्य |
यह मेरा गाँव कुई है जो पोखड़ा ब्लॉक मे पट्टी किंमगडीगाड (चौंदकोट) क्षेत्र का सात गाँव सुंदरियाल फाट (कुई, मजगाँव, किलवास, भटोडू (भरतपुर), कोलखंडी (सुंदरई), नौल्यू, डबरा) का सबसे बड़ा गाँव है। प्रसिद्ध घुमंतू लेखक राहुल सांकृत्यायन की "मेरी हिमालय यात्रा" के अनुसार सुंदरियाल ब्राह्मण कर्नाटक प्रदेश से उत्तराखंड मे आए हैं। हो सकता है कि बद्रीनाथ धाम कि यात्रा मे आए कोई पूर्वज मंदिर मे ही पूजा अर्चना या अन्य कोई सेवा मे बद्रीनाथ क्षेत्र मे बस गए हो जिन्हें बाद मे मंदिर प्रशासन व गढ़ नरेश ने सुंदरई (चौंदकोट गढ़ी के दक्षिण का इलाका) और आस पास बसने के लिए जगह दी हो। इस धारणा को इसलिए बल मिलता है कि कुई समेत सुंदरियाल जाती के सभी गाँव को “गूँठ” गाँव कहा जाता है अर्थात वे राजा व मंदिर कर से मुक्त गाँव थे। इन गाँवो को "बद्रीनाथ चढ़े" गाँव भी कहते थे।
एक धारणा ये भी है कि चौंदकोट गढ़ी के थोकदार गोरला रावत, व अन्य राजपूत सिपहासालार गोसाईं लोगों के साथ पुरोहित कार्यों के लिए राज दरबार ने सुंदरियाल ब्राह्मणों को सुंदरई गाँव मे बसाया था। इस बात कि पुष्टि इससे भी होती है कि आसपास के गाँव, दांथा, मालकोट, चमनाऊ, सौंडल आदि गाँव मे राजपूत परिवारों मे सुंदरियाल आज भी पुरोहित का काम सम्पन्न कर रहे हैं। मूल रूप से सुंदरई गाँव (जहां अब खेत हैं) में बसे परिवार किसी दुर्घटना के बाद कुई-मजगांव मे बस गए फिर वहाँ से उपरोक्त अन्य गावों के अलावा ढूंगा, एरोली, पढेरगाँव (तलाई) तथा गुज़ड़ू इलाके मे डूंगरी, पंजेरा, बसोली आदि जगहों पर जाकर बस गए।
एक धारणा ये भी है कि चौंदकोट गढ़ी के थोकदार गोरला रावत, व अन्य राजपूत सिपहासालार गोसाईं लोगों के साथ पुरोहित कार्यों के लिए राज दरबार ने सुंदरियाल ब्राह्मणों को सुंदरई गाँव मे बसाया था। इस बात कि पुष्टि इससे भी होती है कि आसपास के गाँव, दांथा, मालकोट, चमनाऊ, सौंडल आदि गाँव मे राजपूत परिवारों मे सुंदरियाल आज भी पुरोहित का काम सम्पन्न कर रहे हैं। मूल रूप से सुंदरई गाँव (जहां अब खेत हैं) में बसे परिवार किसी दुर्घटना के बाद कुई-मजगांव मे बस गए फिर वहाँ से उपरोक्त अन्य गावों के अलावा ढूंगा, एरोली, पढेरगाँव (तलाई) तथा गुज़ड़ू इलाके मे डूंगरी, पंजेरा, बसोली आदि जगहों पर जाकर बस गए।
गांव के खेतों में 'पयां' के फूलों की बहार और गांव की गलियां |
प्रकृति का वरदान है मेरा गांव
मेरे गाँव के उत्तर मे अमेली पर्वत श्रेणी है जिसके मूल मे चौंदकोट गढ़ी के किले के भग्नावशेष आज भी मौजूद हैं। चौंदकोट गढ़ी गढ़वाल की 52 गढ़ों मे से एक है जो इस क्षेत्र के गढ़ाधिपतियों व थोकदारों का किला रहा होगा। बचपन मे बड़े बूढ़ों से सुना था की 7000 फीट ऊंचे इस किले से नयार नदी की निचली मैदानी भाग (राइसेरा व जूनिसेरा) तक एक भूमिगत सुरंग भी थी जिसे युद्ध काल मे सुरक्षित रास्ते के रूप मे प्रयोग किया जाता रहा होगा। चौंदकोट क्षेत्र मे 16वीं शताब्दी मे गोरला थोकदारों व उनकी वंशज वीरांगना तीलू रौतेली ने भी इस गढ़ी से युद्ध संचालन किया होगा जिसके पवाड़े हमने बचपन मे सुने हैं।
कुई के पूर्व मे गाँव दांथा-मालकोट की धार है व सामने सूदूर दीवा पर्वत श्रृंखला का विहंगम दृश्य नजर आता है जो सीमांत कुमाऊं तक फैला है। दक्षिण दिशा मे कोलगाड़-पिंगलपाखा (छेतर पर्वत माला) तथा पश्चिम में रिंगवाड़स्यु-मवाल्स्यू पट्टी का इलाका है जो गाँव के ठीक ऊपर चौतरा (चबूतरा की तरह) की धार से दिख जाता है। यहा से पौड़ी-बूबाखाल की पहाड़ियों के अलावा हिमालय की बर्फीली चोटियों के दर्शन भी हो जाते है। रिंगवाड़स्यु में बिछखोली व मवालस्यू मे चुरेड़गाँव भी सुंदरियाल गाँव हैं जो मूल रूप से कुई से गए हैं।
पहाड़ों में अभी कई गांव पानी की समस्या से जूझ रहे हैं लेकिन हमारे गांववासी सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें कभी ऐसी परेशानी से नहीं जूझना पड़ा। साठ के दशक तक हमारे गाँव के चारों ओर पानी के लगभग एक दर्जन स्रोत थे जो अब घटकर छह रह गए है फिर भी भीषण गर्मियों मे भी हमारे गाँव मे पानी की कमी नहीं होती। दूरस्थ स्रोतों से लाया गया पानी कुई को रास नहीं आता इसीलिए यहां सारी सरकारी पेयजल योजनाएं कुछ समय बाद ही दम तोड़ गई। हमारा गाँव मोटर मार्ग से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। गाँव के ऊपर चौबट्टाखाल – दमदेवल तथा नीचे से चौबट्टाखाल-पोखड़ा मोटर मार्ग है। इसके अतिरिक्त गाँव से होकर चौबट्टाखाल–दांथा जीप रोड बनी है। गाँव का मुख्य बाज़ार चौबट्टाखाल लगभग एक किलोमीटर दूर है। चौबट्टाखाल में इंटर कालेज और डिग्री कालेज होेने से आसपास के अन्य गांवों सहित हमारे गांव को भी फायदा हुआ है।
कुई के पूर्व मे गाँव दांथा-मालकोट की धार है व सामने सूदूर दीवा पर्वत श्रृंखला का विहंगम दृश्य नजर आता है जो सीमांत कुमाऊं तक फैला है। दक्षिण दिशा मे कोलगाड़-पिंगलपाखा (छेतर पर्वत माला) तथा पश्चिम में रिंगवाड़स्यु-मवाल्स्यू पट्टी का इलाका है जो गाँव के ठीक ऊपर चौतरा (चबूतरा की तरह) की धार से दिख जाता है। यहा से पौड़ी-बूबाखाल की पहाड़ियों के अलावा हिमालय की बर्फीली चोटियों के दर्शन भी हो जाते है। रिंगवाड़स्यु में बिछखोली व मवालस्यू मे चुरेड़गाँव भी सुंदरियाल गाँव हैं जो मूल रूप से कुई से गए हैं।
पहाड़ों में अभी कई गांव पानी की समस्या से जूझ रहे हैं लेकिन हमारे गांववासी सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें कभी ऐसी परेशानी से नहीं जूझना पड़ा। साठ के दशक तक हमारे गाँव के चारों ओर पानी के लगभग एक दर्जन स्रोत थे जो अब घटकर छह रह गए है फिर भी भीषण गर्मियों मे भी हमारे गाँव मे पानी की कमी नहीं होती। दूरस्थ स्रोतों से लाया गया पानी कुई को रास नहीं आता इसीलिए यहां सारी सरकारी पेयजल योजनाएं कुछ समय बाद ही दम तोड़ गई। हमारा गाँव मोटर मार्ग से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। गाँव के ऊपर चौबट्टाखाल – दमदेवल तथा नीचे से चौबट्टाखाल-पोखड़ा मोटर मार्ग है। इसके अतिरिक्त गाँव से होकर चौबट्टाखाल–दांथा जीप रोड बनी है। गाँव का मुख्य बाज़ार चौबट्टाखाल लगभग एक किलोमीटर दूर है। चौबट्टाखाल में इंटर कालेज और डिग्री कालेज होेने से आसपास के अन्य गांवों सहित हमारे गांव को भी फायदा हुआ है।
गांव में रामलीला का मंचन। गांव के ऊपर स्थित काली मां का मंदिर। सभी फोटो : दीनदयाल सुंदरियाल 'शैलज' |
पलायन और सरकारी उपेक्षा का दर्द भी झेल रहा है कुई
प्राकृतिक सुंदरता व तमाम सुविधावों के बावजूद असिंचित कृषि भूमि, रोजगार की कमी, जीविका के पुराने जमाने के संसाधनों के लुप्तप्राय होने, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव तथा आधुनिकता की प्रतिस्पर्धी दौड़ से पलायन की मार हमारे गाँव को भी झेलनी पड़ी है। सन 1960–70 के दौरान लगभग 85-90 परिवार वाले गाँव में अब मात्र 40-42 परिवार रह गए है। इनमे से भी 10-12 परिवार गाँव से हरिद्वार, देहारादून, ऋषिकेश जाने को तैयार बैठे हैं। गाँव के प्राइमरी स्कूल मे घटते बच्चों की संख्या से स्कूल बंद होने के कगार पर है। गाँव के अधिकतर परिवार देहारादून, दिल्ली, मुंबई, जैसे शहरों मे स्थायी रूप से रहने लगे हैं। गॉंव के बीच खंडहर होते मकान चिंता का विषय तो है ही, गाँव की सुंदरता को भी दाग लगा रहे हैं।
उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी गावों की तरह मेरा गाँव भी सरकारी उपेक्षा ओर ग्रामवासियों की उदासीनता के कारण उजड़ रहा है। गर्मियों की छुट्टियों मे बेशक कुछ दिन रौनक होती है पर पर अधिकतर लोग गाँव मे किसी शादी ब्याह अथवा देवी देवता के पूजन के लिए ही आते है। कुई मे जेठ 17 गते हर साल श्री बदरीनाथ जी का भंडारा होता है जिसमें भाग लेने कभी कभी कुछ परिवार परदेश से आ जाते है। यह परम्परा अगली पीढ़ी भी निभाएगी या नहीं इसमे संदेह है। वर्ष 2014 मे गाँव मे 11 साल बाद रामलीला का आयोजन हुआ जिसमे नई पीढ़ी के बच्चों ने बड़े उल्लास से भाग लिया। मै इसे भविष्य के लिए शुभ संकेत मानता हूँ।
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उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी गावों की तरह मेरा गाँव भी सरकारी उपेक्षा ओर ग्रामवासियों की उदासीनता के कारण उजड़ रहा है। गर्मियों की छुट्टियों मे बेशक कुछ दिन रौनक होती है पर पर अधिकतर लोग गाँव मे किसी शादी ब्याह अथवा देवी देवता के पूजन के लिए ही आते है। कुई मे जेठ 17 गते हर साल श्री बदरीनाथ जी का भंडारा होता है जिसमें भाग लेने कभी कभी कुछ परिवार परदेश से आ जाते है। यह परम्परा अगली पीढ़ी भी निभाएगी या नहीं इसमे संदेह है। वर्ष 2014 मे गाँव मे 11 साल बाद रामलीला का आयोजन हुआ जिसमे नई पीढ़ी के बच्चों ने बड़े उल्लास से भाग लिया। मै इसे भविष्य के लिए शुभ संकेत मानता हूँ।
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