रविवार, 17 मई 2015

आओ चलें नीलांग घाटी

      हते हैं कि अगर आपने पहाड़ और पठार के मिलन का खूबसूरत नजारा देखना है तो नीलांग घाटी जाइये। यदि आपकी किस्मत अच्छी रही तो यहां आपको कस्तूरी ​मृग और हिमालयी नीली भेड़ यानि भराल भी दिख जाएगा। हिम तेंदुआ भी आपको अपने दर्शन देकर कृतार्थ कर सकता है। यहां से आपको तिब्बत के  पठार की झलक भी देखने को मिल जाएगी। पर्यावरण के लिहाज से तो यह उत्तम जगह है ही। कभी तिब्बतियों और उत्तराखंड की भोटिया जाति के लिये ऐतिहासिक व्यापारिक मार्ग रही नीलांग घाटी जाने के लिये अब तक सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि चीन की सीमा के करीब होने के कारण भारत सरकार ने यहां जाने पर रोक लगा रखी थी। भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के बाद इसे बंद कर दिया गया था। केवल सेना और भारत तिब्बत सीमा पुलिस के जवान ही यहां दिखते थे लेकिन अब नीलांग घाटी को आम जनता के लिये भी खोल दिया गया है। यदि आप विदेशी हैं तो आपको सरकार के अगले आदेश तक इंतजार करना पड़ेगा। विदेशी पर्यटकों के लिये यह स्थान अब भी प्रतिबंधित है। 
नीलांग घाटी में लकड़ी से बना पुराना व्यापारिक मार्ग.... 
यह फोटो सर्वे आफ इंडिया से लिया गया था लेकिन एक मित्र ने 
लिखा है कि उनके बड़े भाई  तिलक सोनी ने इसे कैमरे में कैद किया था।
     नीलांग घाटी लगभग 11,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है और पर्यटन के लिहाज से यह बेहद अहम स्थान है। यही वजह है कि उत्तराखंड सरकार ने 53 साल बाद इसे खोलने का फैसला किया। उत्तराखंड के वन मंत्री दिनेश अग्रवाल के शब्दों में, '' नीलांग घाटी को खोल देने से राज्य को न सिर्फ अतिरिक्त राजस्व मिलेगा बल्कि इससे स्थानीय लोगों के लिये रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। साथ ही पर्यटकों को खूबसूरत जगह देखने को मिलेगी। ''  यह घाटी गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क का ही हिस्सा है और यहां केवल दिन के समय जाया जा सकता है। अभी एक दिन में केवल छह जीप को ही नीलांग घाटी तक जाने की अनुमति मिली है। इस तरह से एक दिन में तीन दर्जन पर्यटक ही इस सुरम्य घाटी का आनंद उठा पाएंगे।

नीलांग घाटी का इतिहास

     भारत . चीन युद्ध से पहले नीलांग घाटी सीमा पार व्यापार के हिसाब से महत्वपूर्ण जगह थी। यह रेशम के व्यापारियों का मुख्य मार्ग हुआ करता था। हजारों साल पहले व्यापारी जिन मार्गों और पुलों का उपयोग किया करते थे, उनमें से कुछ भी यहां मौजूद हैं। इनमें जाह्नवी नदी के किनारे बना पुल भी शामिल है। इसी क्षेत्र में लाल देवता का मंदिर भी है। कहा जाता है कि भोटिया लोग तिब्बत जाने से पहले इस मंदिर में पूजा करते थे।
     माना जाता था कि एक समय नीलांग घाटी में तिब्बती घुसपैठियों का दबदबा था। यहां के स्थानों के नामों से भी इसकी पुष्टि होती है। नीलांग घाटी को भी तिब्बती लोग 'चोनशा' कहा करते थे। इसमें नीलांग और जादुंग नाम के दो गांव पड़ते थे। एक अंग्रेज ए गेर्राड ने 1820 में इसे 'चुनसाखागो' जबकि 1850 के दशक के आसपास इस क्षेत्र के चप्पे चप्पे से वाकिफ रहे एफ विल्सन ने 'चुंगसा खागा' नाम से उल्लखित किया है। नीले पहाड़ों के कारण स्थानीय लोग इसे नीलांग नाम से जानते थे। एक अन्य अग्रेंज जे बी फ्रेजर ने सबसे पहले इस क्षेत्र में जाने का प्रयास किया था। वह गंगोत्री तक गये थे लेकिन उन्होंने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति से लोगों को परिचित कराया था। उन्होंने नीलांग यानि चोनशा और उस क्षेत्र के 'जाध भोटिया' निवासियों के बारे में लिखा था। रिकार्डों के अनुसार 'सर्वे आफ इंडिया' के कैप्टेन जान हडसन और लेफ्टिनेंट जेम्स हरबर्ट पहले यूरोपीय थे जो गोमुख तक गये थे। वे 31 मई 1817 को वहां पहुंचे थे। लेफ्टिनेंट हरबर्ट दो साल बाद फिर से इस क्षेत्र के बारे में पता करने के लिये निकले थे और आखिर में 13 सितंबर 1817 को नीलांग पहुंचने में सफल रहे थे। 
     विल्सन को 1850 के आसपास टेहरी के राजा ने इस क्षेत्र को बसाने की जिम्मेदारी भी सौंपी थी। कहते हैं कि अंग्रेजों को डर था कि रूसी सेना इस मार्ग से आक्रमण कर सकती है और इसलिए विल्सन वहां जासूसी का काम भी करते थे। वह किसी भी विदेशी के वहां पहुंचने पर उसकी पूरी जानकारी ब्रिटिश सरकार को देते थे। विल्सन ने इस क्षेत्र में कई पुल बनाये थे तथा हर्सिल और नीलांग के बीच मार्ग तैयार करवाया था। उन्होंने यहां के अनुभवों पर एक किताब 'माउंटेनियर' भी लिखी थी। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण से जुड़े सी एल ​ग्रीसबाक ने 1882 और 1883 में नीलांग घाटी का दौरा करके यहां के विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने 'जियोलोजी आफ द सेंट्रल हिमालय' में लिखा है कि जब वह नीलांग गये तब वहां के स्थानीय निवासियों जाध और तिब्बती लोगों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे। 1930 के दशक में इस पूरे क्षेत्र का मानचित्र तैयार कर दिया गया था।  ब्रिटिश खोजकर्ता जे बी औडेन (महान कवि विस्टन ह्यूज औडेन के छोटे भाई) 1939 में भागीरथी की सहायक नदियों की खोज करते हुए नीलांग घाटी तक पहुंच गये थे। उन्होंने बाद में यहां का मानचित्र तैयार करवाने में अहम भूमिका निभायी।
    नीलांग घाटी से जुड़ी एक दिलचस्प घटना भी है। आस्ट्रिया के दो पर्वतारोही हेनरिच हेरर और पीटर आफशेनेटर दुनिया की नौंवी सबसे ऊंची चोटी नांगा पर्वत पर चढ़ाई करने के लिये भारत आये थे लेकिन तभी 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश सरकार ने इन दोनों पर्वतारोहियों को देहरादून में कैद रखा। परिजनों ने भी उनका साथ नहीं दिया और यहां तक कि हेरर की गर्भवती पत्नी इंग्रिड ने आस्ट्रिया से ही उनके लिये तलाक के कागज भेज दिये थे। हेरर और आफशेनेटर 1944 में जेल से भागने में कामयाब रहे। वे छिपते छुपाते नीलांग घाटी होकर तिब्बत पहुंच गये। हेरर वहां दलाई लामा के गुरू भी रहे। बाद में उन्होंने जेल से छूटने और फिर हिमालय के कठिन रास्तों, नीलांग घाटी आदि से होते हुए तिब्बत तक पहुंचने और वहां बिताये गये दिनों पर एक किताब लिखी जिसका नाम था, 'सेवन एयर्स इन तिब्बत'। बाद में 1997 में इसी नाम से एक फिल्म भी बनी थी।

कैसे जाएं नीलांग घाटी

   नीलांग घाटी के पर्यटकों के लिये खुल जाने के बाद यह सवाल सभी के मन में कुलबुलाएगा कि आखिर यहां कैसे पहुंचा जा सकता है। आपको दिल्ली से गंगोत्री तक जाने का ही मार्ग पकड़ना है। दिल्ली से इसके लिये दो रास्ते हैं। पहला हरिद्वार से नरेंद्रनगर, टेहरी, धरासू, उत्तरकाशी, भटवाड़ी, गंगनानी और हर्सिल से होकर जाता है। देहरादून से मंसूरी, चंबा और टेहरी होते हुए भी नीलांग घाटी तक पहुंचा जा सकता है। भैरवगढ़ी से नीलांग घाटी 25 किमी दूरी पर स्थित है। भैरवगढ़ी से वन विभाग से पंजीकृत सफारी जिप्सी पर्यटकों को घाटी तक पहुंचाएगी। एक जिप्सी में केवल छह व्यक्ति ही बैठ सकते हैं।
(नोट : मैं अभी तक नीलांग घाटी नहीं गया हूं। मैंने विभिन्न स्रोतों से यह जानकारी जुटायी है। आप इसे समृद्ध कर सकते हैं। कृपया नीलांग घाटी के बारे में किसी भी तरह की जानकारी नीचे टिप्पणी वाले कालम में जरूर साझा करें। आपकी टिप्पणियों का तहेदिल से स्वागत है।)
  
आपका धर्मेन्द्र पंत

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गुरुवार, 7 मई 2015

कभी पहाड़ी शादियों की पहचान था सरौं या छोलिया नृत्य

                                      धर्मेन्द्र पंत
  रौं या छोलिया उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक नृत्य है जो वीर रस, शौर्य, श्रृंगार रस, खुशी, गौरव, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और चपलता का प्रतीक है। तलवार और ढाल के साथ किये जाने वाला यह नृत्य युद्ध में जीत के बाद किया जाता था। इस नृत्य में ढोल-दमाऊं की भूमिका अहम होती है। इसके अलावा मसकबीन, नगाड़े, झंकोरा, कैंसाल और रणसिंगा आदि वाद्य यंत्रों का भी उपयोग किया जाता है। एक समय सरौं नृत्य पहाड़ी शादियों का अहम अंग हुआ करता था। अस्सी के दशक तक भी इसका उत्तराखंड में प्रचलन था लेकिन अब यह कला धीरे धीरे खत्म होती जा रही है। पहाड़ों में इसके बहुत कम कलाकार रह गये हैं। किसी समय सरौं या छोलिया इनके कलाकारों का आजीविका का साधन हुआ करता था लेकिन पहाड़ों में आधुनिकता के वास का कुप्रभाव जिन कई लोक परंपराओं पर पड़ा है उनमें सरौं छोलिया नृत्य भी शामिल है।
सरौं नृत्य। चित्र... धर्मेंद्र पंत
   सरौं या छोलिया नृत्य उत्तराखंड के सबसे पुराने नृत्यों में शामिल है। इसे पांडव नृत्य का हिस्सा भी माना जाता है। सरौं या छोलिया के बारे में कहा जाता है कि कोई राजा जब किसी दूसरे राजा की बेटी से जबर्दस्ती विवाह करने की कोशिश करता था तो वह अपने सैनिकों के साथ वहां पहुंचता था जिनके हाथों में तलवार और ढाल होती थी ताकि युद्ध होने की स्थिति में इनका उपयोग किया जा सके। सैनिकों को युद्ध में प्रोत्साहित करने के लिये ढोल दमाऊं, नगाड़े, मसकबीन, तुरही, रणसिंघा आदि का प्रयोग किया जाता था। कुमांऊ में छोलिया के बारे में कहा जाता है कि सबसे पहले राजा सोमचंद के विवाह में यह नृत्य किया गया था। बद्रीदत्त पांडे की पुस्तक 'कुमाऊं का इतिहास' में कहा गया है कि राजा सोमचंद के 700वीं ईस्वी सन में गद्दी में बैठे थे। लगभग यही वह दौर था जबकि गढ़वाल में पंवार वंश का उदय हुआ था। इसलिए यह कह सकते हैं सरौं या छोलिया नृत्य का इतिहास 1000 साल से भी अधिक पुराना है और सैकड़ों वर्षों से यह पहाड़ी संस्कृति का अहम अंग रहा है। 
     तब किसी राजा की पुत्री का वरण करने के लिये जब कोई अन्य राजा अपने घर से निकलता था तो सफेद ध्वज आगे रखता था लेकिन दोनों ध्वजों के बीच तलवार और ढाल से लैस सैनिक हुआ करते थे। सारे वाद्य यंत्र होते थे। तब सैनिक आपस में ही युद्ध कला का अभ्यास करते हुए चलते होंगे जिसने बाद में नृत्य का रूप ले लिया। आज भी पहाड़ों की शादियों में ध्वज ले जाने की परंपरा है। जब दूल्हा अपने घर से निकलकर दुल्हन के घर जाता है तो आगे सफेद रंग का ध्वज (निशाण) होता और पीछे लाल रंग का। यह प्रथा भी सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। निशाण का मतलब है निशान या फिर संकेत। इसका संदेश यह होता है कि हम आपकी पुत्री का वरण करने आये हैं और शांति के साथ विवाह संपन्न करवाना चाहते हैं। इसलिए सफेद ध्वज आगे रहता है। लाल रंग का ध्वज इस संदेश के साथ जाता था कि ​शादी के लिये वे युद्ध करने के लिये भी तैयार हैं। जब विवाह संपन्न हो जाता है तो फिर घर वापसी के ​समय लाल रंग का निशाण आगे और सफेद रंग का पीछे होता है। लाल रंग का ध्वज तब इसलिए आगे रखा जाता है जिसका मतलब यह होता है कि वे विजेता बनकर लौटे हैं और दुल्हन को साथ लेकर आ रहे हैं। पुराने जमाने से यह प्रथा चल रही है।




    सकी पूरी संभावना है कि समय के साथ सरौं या छोलिया नृत्य में भी बदलाव आए होंगे लेकिन युद्ध से संबंध होने के कारण इसमें केवल पुरूष ही भाग लेते हैं। इसमें मुख्यत: दो नर्तक होते हैं लेकिन कई अवसरों पर एक से अधिक नर्तक भी बड़ी खूबसूरती से इसका प्रदर्शन करते हैं। इन नर्तकों ने रंग बिरंगी पोशाक पहनी होती है। चूड़ीदार सलवार, लंबा घेरेवाला चोला, सिर पर पगड़ी, कमर में बेल्ट, दोनों कंधों से बंधे हुए लंबे मफलर, पैंरों में घुंघरू, कानों में बालियां और चेहरे पर चंदन व सिंदूर से किया गया श्रृंगार। नर्तक एक दूसरे को छकाने, तलवारबाजी और उसे बड़ी कुशलता से ढाल से टकराने का शानदार प्रदर्शन करते हैं। इस दौरान उनके चेहर के हाव भाव भी देखने लायक होते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि मानो वे एक दूसरे को चिढ़ाकर उसे उकसा रहे हैं। पहले नर्तकों, जिन्हें छौल्यार कहा जाता है, के लिये पैसे फेंके जाते थे तो वे उसे नृत्य करते हुए बड़ी कुशलता से तलवार से उठा देते थे।
    सरौं या छोलिया नृत्य हमारी अपनी पंरपरा का हिस्सा रही हैं। इनका लुप्त होने की स्थिति में पहुंचना वास्तव में दुखद है। उत्तराखंड सरकार को भी इसके लिये भी प्रयास करने चाहिए। मुझे 2013 में दिल्ली के मावलंकर हाल में एक गढ़वाली कार्यक्रम के दौरान आखिरी बार सरौं देखने का मौका मिला था। यहां जिस वीडियो का लिंक (क्लिक करें) दिया गया है मैंने वह उसी दौरान तैयार किया था। यह मोबाइल से बनाया था इसलिए इसकी क्वालिटी अच्छी नहीं है। फिर भी यह हमें अपनी परंपराओं की याद दिलाता है और आनंद की अनुभूति कराता है। आपका धर्मेन्द्र पंत


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