कहते हैं कि अगर आपने पहाड़ और पठार के मिलन का खूबसूरत नजारा देखना है तो नीलांग घाटी जाइये। यदि आपकी किस्मत अच्छी रही तो यहां आपको कस्तूरी मृग और हिमालयी नीली भेड़ यानि भराल भी दिख जाएगा। हिम तेंदुआ भी आपको अपने दर्शन देकर कृतार्थ कर सकता है। यहां से आपको तिब्बत के पठार की झलक भी देखने को मिल जाएगी। पर्यावरण के लिहाज से तो यह उत्तम जगह है ही। कभी तिब्बतियों और उत्तराखंड की भोटिया जाति के लिये ऐतिहासिक व्यापारिक मार्ग रही नीलांग घाटी जाने के लिये अब तक सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि चीन की सीमा के करीब होने के कारण भारत सरकार ने यहां जाने पर रोक लगा रखी थी। भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के बाद इसे बंद कर दिया गया था। केवल सेना और भारत तिब्बत सीमा पुलिस के जवान ही यहां दिखते थे लेकिन अब नीलांग घाटी को आम जनता के लिये भी खोल दिया गया है। यदि आप विदेशी हैं तो आपको सरकार के अगले आदेश तक इंतजार करना पड़ेगा। विदेशी पर्यटकों के लिये यह स्थान अब भी प्रतिबंधित है।
नीलांग घाटी में लकड़ी से बना पुराना व्यापारिक मार्ग.... यह फोटो सर्वे आफ इंडिया से लिया गया था लेकिन एक मित्र ने लिखा है कि उनके बड़े भाई तिलक सोनी ने इसे कैमरे में कैद किया था। |
नीलांग घाटी लगभग 11,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है और पर्यटन के लिहाज से यह बेहद अहम स्थान है। यही वजह है कि उत्तराखंड सरकार ने 53 साल बाद इसे खोलने का फैसला किया। उत्तराखंड के वन मंत्री दिनेश अग्रवाल के शब्दों में, '' नीलांग घाटी को खोल देने से राज्य को न सिर्फ अतिरिक्त राजस्व मिलेगा बल्कि इससे स्थानीय लोगों के लिये रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। साथ ही पर्यटकों को खूबसूरत जगह देखने को मिलेगी। '' यह घाटी गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क का ही हिस्सा है और यहां केवल दिन के समय जाया जा सकता है। अभी एक दिन में केवल छह जीप को ही नीलांग घाटी तक जाने की अनुमति मिली है। इस तरह से एक दिन में तीन दर्जन पर्यटक ही इस सुरम्य घाटी का आनंद उठा पाएंगे।
नीलांग घाटी का इतिहास
भारत . चीन युद्ध से पहले नीलांग घाटी सीमा पार व्यापार के हिसाब से महत्वपूर्ण जगह थी। यह रेशम के व्यापारियों का मुख्य मार्ग हुआ करता था। हजारों साल पहले व्यापारी जिन मार्गों और पुलों का उपयोग किया करते थे, उनमें से कुछ भी यहां मौजूद हैं। इनमें जाह्नवी नदी के किनारे बना पुल भी शामिल है। इसी क्षेत्र में लाल देवता का मंदिर भी है। कहा जाता है कि भोटिया लोग तिब्बत जाने से पहले इस मंदिर में पूजा करते थे।
माना जाता था कि एक समय नीलांग घाटी में तिब्बती घुसपैठियों का दबदबा था। यहां के स्थानों के नामों से भी इसकी पुष्टि होती है। नीलांग घाटी को भी तिब्बती लोग 'चोनशा' कहा करते थे। इसमें नीलांग और जादुंग नाम के दो गांव पड़ते थे। एक अंग्रेज ए गेर्राड ने 1820 में इसे 'चुनसाखागो' जबकि 1850 के दशक के आसपास इस क्षेत्र के चप्पे चप्पे से वाकिफ रहे एफ विल्सन ने 'चुंगसा खागा' नाम से उल्लखित किया है। नीले पहाड़ों के कारण स्थानीय लोग इसे नीलांग नाम से जानते थे। एक अन्य अग्रेंज जे बी फ्रेजर ने सबसे पहले इस क्षेत्र में जाने का प्रयास किया था। वह गंगोत्री तक गये थे लेकिन उन्होंने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति से लोगों को परिचित कराया था। उन्होंने नीलांग यानि चोनशा और उस क्षेत्र के 'जाध भोटिया' निवासियों के बारे में लिखा था। रिकार्डों के अनुसार 'सर्वे आफ इंडिया' के कैप्टेन जान हडसन और लेफ्टिनेंट जेम्स हरबर्ट पहले यूरोपीय थे जो गोमुख तक गये थे। वे 31 मई 1817 को वहां पहुंचे थे। लेफ्टिनेंट हरबर्ट दो साल बाद फिर से इस क्षेत्र के बारे में पता करने के लिये निकले थे और आखिर में 13 सितंबर 1817 को नीलांग पहुंचने में सफल रहे थे।
विल्सन को 1850 के आसपास टेहरी के राजा ने इस क्षेत्र को बसाने की जिम्मेदारी भी सौंपी थी। कहते हैं कि अंग्रेजों को डर था कि रूसी सेना इस मार्ग से आक्रमण कर सकती है और इसलिए विल्सन वहां जासूसी का काम भी करते थे। वह किसी भी विदेशी के वहां पहुंचने पर उसकी पूरी जानकारी ब्रिटिश सरकार को देते थे। विल्सन ने इस क्षेत्र में कई पुल बनाये थे तथा हर्सिल और नीलांग के बीच मार्ग तैयार करवाया था। उन्होंने यहां के अनुभवों पर एक किताब 'माउंटेनियर' भी लिखी थी। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण से जुड़े सी एल ग्रीसबाक ने 1882 और 1883 में नीलांग घाटी का दौरा करके यहां के विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने 'जियोलोजी आफ द सेंट्रल हिमालय' में लिखा है कि जब वह नीलांग गये तब वहां के स्थानीय निवासियों जाध और तिब्बती लोगों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं थे। 1930 के दशक में इस पूरे क्षेत्र का मानचित्र तैयार कर दिया गया था। ब्रिटिश खोजकर्ता जे बी औडेन (महान कवि विस्टन ह्यूज औडेन के छोटे भाई) 1939 में भागीरथी की सहायक नदियों की खोज करते हुए नीलांग घाटी तक पहुंच गये थे। उन्होंने बाद में यहां का मानचित्र तैयार करवाने में अहम भूमिका निभायी।
नीलांग घाटी से जुड़ी एक दिलचस्प घटना भी है। आस्ट्रिया के दो पर्वतारोही हेनरिच हेरर और पीटर आफशेनेटर दुनिया की नौंवी सबसे ऊंची चोटी नांगा पर्वत पर चढ़ाई करने के लिये भारत आये थे लेकिन तभी 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश सरकार ने इन दोनों पर्वतारोहियों को देहरादून में कैद रखा। परिजनों ने भी उनका साथ नहीं दिया और यहां तक कि हेरर की गर्भवती पत्नी इंग्रिड ने आस्ट्रिया से ही उनके लिये तलाक के कागज भेज दिये थे। हेरर और आफशेनेटर 1944 में जेल से भागने में कामयाब रहे। वे छिपते छुपाते नीलांग घाटी होकर तिब्बत पहुंच गये। हेरर वहां दलाई लामा के गुरू भी रहे। बाद में उन्होंने जेल से छूटने और फिर हिमालय के कठिन रास्तों, नीलांग घाटी आदि से होते हुए तिब्बत तक पहुंचने और वहां बिताये गये दिनों पर एक किताब लिखी जिसका नाम था, 'सेवन एयर्स इन तिब्बत'। बाद में 1997 में इसी नाम से एक फिल्म भी बनी थी।
नीलांग घाटी से जुड़ी एक दिलचस्प घटना भी है। आस्ट्रिया के दो पर्वतारोही हेनरिच हेरर और पीटर आफशेनेटर दुनिया की नौंवी सबसे ऊंची चोटी नांगा पर्वत पर चढ़ाई करने के लिये भारत आये थे लेकिन तभी 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश सरकार ने इन दोनों पर्वतारोहियों को देहरादून में कैद रखा। परिजनों ने भी उनका साथ नहीं दिया और यहां तक कि हेरर की गर्भवती पत्नी इंग्रिड ने आस्ट्रिया से ही उनके लिये तलाक के कागज भेज दिये थे। हेरर और आफशेनेटर 1944 में जेल से भागने में कामयाब रहे। वे छिपते छुपाते नीलांग घाटी होकर तिब्बत पहुंच गये। हेरर वहां दलाई लामा के गुरू भी रहे। बाद में उन्होंने जेल से छूटने और फिर हिमालय के कठिन रास्तों, नीलांग घाटी आदि से होते हुए तिब्बत तक पहुंचने और वहां बिताये गये दिनों पर एक किताब लिखी जिसका नाम था, 'सेवन एयर्स इन तिब्बत'। बाद में 1997 में इसी नाम से एक फिल्म भी बनी थी।
कैसे जाएं नीलांग घाटी
नीलांग घाटी के पर्यटकों के लिये खुल जाने के बाद यह सवाल सभी के मन में कुलबुलाएगा कि आखिर यहां कैसे पहुंचा जा सकता है। आपको दिल्ली से गंगोत्री तक जाने का ही मार्ग पकड़ना है। दिल्ली से इसके लिये दो रास्ते हैं। पहला हरिद्वार से नरेंद्रनगर, टेहरी, धरासू, उत्तरकाशी, भटवाड़ी, गंगनानी और हर्सिल से होकर जाता है। देहरादून से मंसूरी, चंबा और टेहरी होते हुए भी नीलांग घाटी तक पहुंचा जा सकता है। भैरवगढ़ी से नीलांग घाटी 25 किमी दूरी पर स्थित है। भैरवगढ़ी से वन विभाग से पंजीकृत सफारी जिप्सी पर्यटकों को घाटी तक पहुंचाएगी। एक जिप्सी में केवल छह व्यक्ति ही बैठ सकते हैं।
(नोट : मैं अभी तक नीलांग घाटी नहीं गया हूं। मैंने विभिन्न स्रोतों से यह जानकारी जुटायी है। आप इसे समृद्ध कर सकते हैं। कृपया नीलांग घाटी के बारे में किसी भी तरह की जानकारी नीचे टिप्पणी वाले कालम में जरूर साझा करें। आपकी टिप्पणियों का तहेदिल से स्वागत है।)
आपका धर्मेन्द्र पंत
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