बुधवार, 28 मार्च 2018

उत्तराखंड की शादियों का अहम अंग है 'बान'


     क्या आपने कभी सोचा है कि उत्तराखंड की शादियों में 'बान' क्यों दिये जाते हैं? यह हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति ​का हिस्सा है जो वर्षों से उत्तराखंड की शादियों का अहम अंग बना हुआ। इसके बिना शादी की रस्म पूरी होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। बान या बाना यानि हल्दी हाथ की रस्म लड़की के साथ लड़के को भी निभानी पड़ती है।  उत्तराखंड में परंपरागत ढोल दमौ और मसकबीन की धुन के बीच बान दिये जाते हैं और  स्नान कराया जाता है।
         बान क्यों दिये जाते हैं? इसका सामाजिक, सांस्कृतिक, पारंप​रिक पहलू हो सकता है लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक सत्य भी छिपा हुआ है। इस पर हम आगे बात करेंगे। पहले आपका परिचय बान से करवा देता हूं। 'बान' बारात जाने से पहले की रस्म है जो दूल्हा और दुल्हन दोनों के घरों में लगभग एक समय में निभायी जाती है। इसमें हल्दी, सुमैया, कच्चुर, चंदन आदि को कूटकर मिश्रण बनाया जाता है। इसे फिर सात पुड़ियों में रखा जाता है जिनमें दूब को डुबाकर उसे दूल्हा या दुल्हन के पांव से लेकर सिर तक यानि पांव, घुटना, हाथ, कंधा और सिर को स्पर्श करके अपने सिर पर रखना होता है। ऐसा पांच या सात बार करना होता है। घर के सदस्य, रिश्तेदार आदि 'बान' देते हैं।


      आचार्य चंद्रप्रकाश थपलियाल ने बान के बारे में बताया, “ बाना (बान) में मुख्य रूप से कच्ची हल्दी, दही, सरसों का तेल, जिराळु, सुमैया, चंदन, दूब का उपयोग किया जाता है। जिस तरह से सात फेरे और सात बचन होते हैं उसी तरह से बाना भी सात ही दिये जाते हैं। यह अलग बात है कि आजकल केवल फोटो खिंचवाने के लिये बाना दिये जा रहे हैं और इसलिए एक, तीन या पांच बार ही बाना देने का रिवाज शुरू हो गया है।’’
       'बान' अमूमन ओखली के पास दिये जाते हैं। दूल्हा या दुल्हन को चौकी (चौक या चौकली) पर बिठाया जाता है। पांच कन्यायें ओखली में सभी चीजों को कूटती हैं। इसके बाद दूल्हा या दुल्हन उसे तांबे की थाली या परात में रखी पुड़ियों में रखते हैं। सबसे पहले पंडित जी बान देते हैं। उसके बाद पांचों कन्यायें तथा बाद में मां—पिताजी, घर के अन्य सदस्य, रिश्तेदार और गांव वाले।  बान देते समय गांव की कुछ महिलाएं मंगल गान भी करती हैं। गढ़वाल और कुमांऊ में अलग अलग मंगल गान का प्रचलन है। जैसे 'दे द्यावा ब्रह्मा जी हल्दी को बान' या 'उमटण दइए मइए मैल छूटाइय'। जब दुल्हन को बान दिये जाते हैं तो माहौल थोड़ा गमगीन होता है। स्वाभाविक है बेटी की बिदाई का गम सभी को सालता है। इस बीच हालांकि जीजा—साली, देवर—भाभी आदि के बीच खूब हंसी ठिठोली भी चलती है। एक दूसरे पर हल्दी लगाकर मजाक किया जाता है।
       अब वही सवाल कि आखिर बान क्यों दिये जाते हैं? माना जाता है कि बान नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने, ग्रह और नजर दोष के निवारण के लिये दिये जाते हैं। हल्दी शुभ होती है और हल्दी से शुभकार्य की शुरुआत करना अच्छा माना जाता है।
        हल्दी हाथ यानि बान का वैज्ञानिक पहलू भी है। आयुर्वेद में हल्दी को औषधि का दर्जा दिया गया है। इस कारण हल्दी हमारी त्वचा के लिए एक तरह से प्राकृतिक का वरदान के समान है। हल्दी के लगाने से त्वचा संबंधी अनेक बीमारियां से छुटकारा पाया जाता है।
       हल्दी का लेप शरीर की कोशिकीय संरचना को इस तरह से फैलाता है, कि इसके हर दरार और छिद्र में ऊर्जा भर सके। हल्दी इस काम में भौतिक रूप से मदद करती है। हल्दी प्राकृतिक एंटी-बायटिक होती है। हल्दी का स्नान दूल्हा और दुल्हन को तमाम रोगों से बचाने में सहायक होता है। इससे त्वचा में भी निखार आता है।
       शादी के समय घर में कई तरह के मेहमान आते हैं जिससे नकारात्मक ऊर्जा फैलने की आशंका रहती है। इसका दूल्हा या दुल्हन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। हल्दी के बारे में कहा जाता है कि वह घर में और दूल्हे या दुल्हन के अंदर नकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करने से रोकती है। हल्दी नकारात्मक ऊर्जा नष्ट करके सकारात्मक ऊर्जा का सृजन करने में सहायक होती है।
       यह थी बान की कहानी। आपको कैसी लगी जरूर बताईये और 'घसेरी' के वीडियो चैनल को भी जरूर सब्सक्राइब करिये। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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मंगलवार, 20 मार्च 2018

यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि इसमें जल्दी आ

चित्र साभार : राजीव विश्वकर्मा 
       उत्तराखंड वर्तमान समय में पलायन की सबसे भीषण मार झेल रहा है लेकिन इसकी शुरुआत कई दशक पहले हो गयी थी जब पहाड़ के युवा ने आजीविका की खातिर मैदानों की तरफ कदम बढ़ाये थे। इसके बाद शहरों का आकर्षण बढ़ता गया तथा उत्तराखंड के युवा देहरादून, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई आदि शहरों में नौकरी करने लगे। सेना में नौकरी तब भी और आज भी एक आकर्षण था। सेना से सेवानिवृत होने के बाद मैदानी भागों विशेषकर देहरादून, कोटद्वार, बरेली आदि शहरों में बसने की प्रवृति भी बढ़ी। पहले केवल युवा नौकरी के लिये पलायन करते थे लेकिन बाद में उनके साथ परिवार के अन्य सदस्य भी शहरों की तरफ कूच करने लग गये। परिणाम गांव खाली होने लगे और आज स्थिति​ यह बन चुकी है कि उत्तराखंड के कई गांव महज कागजों में सिमट गये हैं। 
         उत्तराखंड का गठन नौ नवंबर 2000 को हुआ। उम्मीद थी कि पहाड़ की जवानी और पानी थामने के जिस वादे के साथ उत्तराखंड बना था वह पूरा होगा लेकिन हुआ इसका उलटा। इसके बाद पलायन तेजी से बढ़ा। कहते हैं कि 'जहां न जाए रवि, वहां पहुंचे कवि'। गढ़वाली और हिन्दी के कवि श्री जितेंद्र मोहन पंत ने अपनी युवावस्था में ही उत्तराखंड से हो रहे पलायन को भांप लिया था। पलायन पर उन्होंने 1980 में यह कविता लिखी थी जो आज भी प्रासंगिक है। उम्मीद है कि 'घसेरी' के पाठक इसका मर्म समझेंगे। 

                 यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि इसमें जल्दी आ 

            (उत्तराखंड से हो रहे पलायन पर अस्सी के दशक में लिखी गयी लंबी कविता)


                                             .... जितेंद्र मोहन पंत 

      (1)
रे पंछी तू किधर तड़पता इस उपवन के। 
तू तो तड़पाता है सबको, दरश न देके।।
अन्य सभी प्राणी उपवन में हैं तेरे संग के।
तू कहां भिन्न है सबसे, किस रंग में रंग के।। 
रे पंछी .......

आ जल्दी से दे दर्श इन्हें ना किसी से डर के। 
तू नहीं मिला तो ये भी रह जाएंगे मरके।। 
जगा मोह को मन में लाकर मोहक बनके। 
मन में बसे हैं तेरे तो आ मनवर मन के।। 
रे पंछी .......

ना विदेश को पग धर, आ घर को मुड़के।
बैठ घोंसले में आकर तीव्र गति से उड़ के।। 
मिल इन सबसे, सभी राह कंटक दमन के। 
हो हर्षित, ला खुशियों के दिन इस चमन के।। 
रे पंछी.........

कहां किनारे पड़ा हुआ है किस सिन्ध के। 
स्वच्छंद विचरण करता था अब कहां है बंधके।। 
किस पिंजड़ें में पड़ा हुआ है, स्वच्छंद वन के।
रे पंछी तू किधर तड़पता इस उपवन के।। 
   (2)
तेरा उपवन सूख गया है, इसे सींच दे। 
सूखे तरुओं में नीर बहा, नव—प्राण खींच दे।। 
बिन तेरे, ना रही तरू तृणों में हरियाली। 
इन्हें हरित कर आ दौड़कर वन के माली।। 
इन तरुओं को और जीर्ण हड्डी न बना दे।
गिने चुने ना बना इन्हें, तू बना घना दे।। 
सूखी तृणों को अब न बना, बना हरी घास दे।
दूर भगा पतझड़ को, अब ला मधुमास दे।। 
इनमें हरियाली कर निर्मित नव पत्रों को। 
कलियों को दे जन्म, बना इनसे कुसुमों को।। 

       (3)
ना अधिक सताओ अब ना सहन करूंगा पीरा।
दर्शन दो भगवान मुझे, मैं दासी मीरा।। 
बन कृष्ण इस घर में फिर से रास रचा दो।
ये त्यागत संसार, अमृत दे इन्हें बचा दो।। 
मुझे शरण दो, शरणज शिवि तुम बन जाओ। 
जगा मोह को मन में एक मोहक बन जाओ।। 
अब तो मैंने मन हृदय में रखा था धीरा। 
तुम बिन सभी भये हैं दुर्बल शरीरा।। 

   (4)
एक उपवन में हम सबका है एक बसेरा।
इस से हुआ शुरू है हम सबका ही सवेरा।। 
जननी, जन्मभूमि आदि से दूर क्यों भागा।
इन सबका मिलता था प्यार, क्यों इसको त्यागा।। 
यह जन्मभूमि, यह मातृभूमि, इसमें जल्दी आ।
मात—तात, भाई—बहन, सभी के संग आ।। 
मोह उत्पन्न कर फिर से, अब बन इन सबका।
दे इन्हें प्यार, ले इनसे प्यार जैसे पहले का।।



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