सोमवार, 24 अक्तूबर 2016

बीसीसीआई सदस्य हैं झारखंड और छत्तीसगढ़, फिर उत्तराखंड क्यों नहीं?

   वंबर 2000 में तीन नये राज्यों का गठन हुआ था। छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और झारखंड। उत्तराखंड नौ नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग होकर भारत का 27वां राज्य बना था। उत्तरप्रदेश तब भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड यानि बीसीसीआई से मान्यता प्राप्त सदस्य था और इसलिए उत्तराखंड को मान्यता नहीं दी गयी। यही स्थिति एक नवंबर 2000 को अस्तित्व में आये छत्तीसगढ़ की थी जो मध्यप्रदेश से अलग हुआ था। झारखंड का मामला भिन्न था। जब झारखंड राज्य बना था तब बीसीसीआई अध्यक्ष एसी मुथैया ने बिहार क्रिकेट संघ को मान्यता दी थी लेकिन  इसके कुछ महीने बाद जगमोहन डालमिया बोर्ड अध्यक्ष बन गये और उन्होंने बिहार की मान्यता समाप्त करके झारखंड राज्य क्रिकेट संघ को बीसीसीआई का सदस्य बना दिया। झारखंड की टीम नवंबर 2004 से रणजी ट्राफी में भी खेल रही है। छत्तीसगढ़ भी एसोसिएट सदस्य बन गया और 2016 में उसे पूर्ण सदस्य की मान्यता मिल गयी। छत्तीसगढ़ की टीम इस साल से रणजी ट्राफी में भी खेल रही है। 
       अब 15 दिन के अंदर अस्तित्व में आने वाले तीन राज्यों में से केवल उत्तराखंड ही बच गया है जिसे कि बीसीसीआई से मान्यता नहीं मिली है। उत्तराखंड की तरफ से प्रयास भी किये गये लेकिन इस पहाड़ी राज्य से एक नहीं पांच संघ थे ... उत्तराखंड क्रिकेट संघ, यूनाईटेड क्रिकेट संघ, अभिमन्यु क्रिकेट संघ, उत्तरांचल क्रिकेट एसोसिएशन और क्रिकेट एसोसिएशन आॅफ उत्तरांचल। हर कोई चाहता था कि उसके संघ को मान्यता मिले। कई संघ होने के कारण बीसीसीआई ने भी दिलचस्पी नहीं दिखायी और उत्तराखंड क्रिकेट की स्थिति बिहार जैसी हो गयी। बिहार में भी तीन क्रिकेट संस्थाओं में आपस में धींगामुश्ती चल रही है। बीसीसीआई से मान्यता हासिल करने की खातिर जनवरी 2015 में उत्तराखंड क्रिकेट संघ, अभिमन्यु क्रिकेट संघ और यूनाईटेड क्रिकेट संघ ने एक मंच पर आने का फैसला किया। इस बैठक में उत्तरांचल क्रिकेट एसोसिएशन और क्रिकेट एसोसिएशन आॅफ उत्तरांचल (उत्तराखंड) ने हिस्सा नहीं लिया। बीसीसीआई ने बिहार और उत्तराखंड को मान्यता देने के लिये अगस्त 2015 में एक तदर्थ समिति बनायी। पंजाब क्रिकेट संघ के एम पी पांडोव उत्तराखंड के लिये बने पैनल के अध्यक्ष थे। उत्तराखंड में इसके बाद भी उत्तराखंड क्रिकेट संघ यानि यूसीए और क्रिकेट एसोसिएशन आफ उत्तराखंड में आपस में ठनी रही और राज्य के क्रिकेटरों को दूसरे राज्यों विशेषकर दिल्ली से खेलने के लिये मजबूर होना पड़ा। 
       उच्चतम न्यायालय के कड़े रूख और न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिये बीसीसीआई पर हर तरह से दबाव बनाने के बाद अब उत्तराखंड को मान्यता मिलने की उम्मीद फिर से बन गयी है। लोढ़ा समिति की सिफारिशों के अनुसार प्रत्येक राज्य को बीसीसीआई में एक मत का अधिकार होना चाहिए। ऐसे में उत्तराखंड का दावा मजबूत बनता है। अभी तक महाराष्ट्र और गुजरात में तीन . तीन क्रिकेट संघ हैं और वहां के खिलाड़ियों को न सिर्फ रणजी बल्कि अच्छे प्रदर्शन के दम पर राष्ट्रीय टीम में भी जगह बनाने का भरपूर मौका मिलता है। उत्तराखंड, बिहार तथा पूर्वोत्तर में असम और त्रिपुरा को छोड़कर बाकी राज्यों में क्रिकेट संघ को मान्यता नहीं है। पूर्वोत्तर के राज्यों का क्रिकेट से ज्यादा लगाव नहीं है लेकिन उत्तराखंड और बिहार के खिलाड़ी दूसरे राज्यों से खेलने के लिये मजबूर हैं। 
      उत्तराखंड के क्रिकेटरों ने राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक अपनी छाप छोड़ी है। महेंद्र सिंह धोनी के नाम से भले ही कौन परिचित नहीें होगा। वह कुमांऊ के रहने वाले हैं लेकिन उनकी परवरिश झारखंड में हुई। वह पहले बिहार और फिर झारखंड की तरफ से खेले। वह खुद को झारखंड का ही मानते हैं। भारतीय टीम में शामिल एक अन्य खिलाड़ी मनीष पांडे कर्नाटक की तरफ से खेलते हैं लेकिन उनका जन्म नैनीताल में हुआ और बचपन भी यहीं बीता था। 
       दिल्ली की रणजी टीम में उत्तराखंड के कई खिलाड़ी खेलते रहे हैं। एक समय में एन एस नेगी और कुलदीप रावत दिल्ली का टीम का हिस्सा थे। दिल्ली की वर्तमान टीम में खेलने वाले उन्मुक्त चंद, रिषभ पंत, पवन सुयाल और पवन नेगी सभी उत्तराखंड से संबंध रखते हैं। उन्मुक्त ने वर्तमान रणजी सत्र के पहले दो मैचों में दिल्ली टीम की कप्तानी भी की थी। रिषभ बेहतरीन विकेटकीपर बल्लेबाज हैं और इस 18 वर्षीय खिलाड़ी को भारतीय क्रिकेट का अगला उभरता सितारा माना जा रहा है। महाराष्ट्र के खिलाफ उन्होंने तिहरा शतक भी जमाया था। वह उस भारत अंडर . 19 टीम के भी सदस्य थे जो जूनियर विश्व कप में खेली थी। पवन सुयाल बहुत अच्छे तेज गेंदबाज हैं तथा आईपीएल में मुंबई इंडियन्स की तरफ से खेलते हैं। पवन नेगी बायें हाथ का स्पिनर होने के साथ निचले क्रम के अच्छे बल्लेबाज भी है। वह भारत की तरफ से एक टी20 अंतरराष्ट्रीय मैच भी खेल चुके हैं। नेगी आईपीएल में चेन्नई सुपरकिंग्स और दिल्ली डेयरडेविल्स की तरफ से खेलते रहे हैं। 
       जम्मू कश्मीर के विकेटकीपर बल्लेबाज पुनीत बिष्ट भी उत्तराखंड के हैं। वह पहले दिल्ली की तरफ से खेलते थे लेकिन इस सत्र में जम्मू कश्मीर की तरफ से खेल रहे हैं। हिमाचल प्रदेश की टीम में रोबिन बिष्ट हैं जो पहले राजस्थान की तरफ से खेलते थे। उन्होंने 2011.12 सत्र में रणजी ट्राफी में सर्वाधिक रन बनाये थे और तब महान सुनील गावस्कर ने भी उनकी तारीफ की थी। रोबिन उत्तराखंड के रहने वाले हैं। उनके छोटे भाई चेतन बिष्ट अब भी राजस्थान के विकेटकीपर बल्लेबाज हैं। राजस्थान की रणजी टीम में ही युवा बल्लेबाज सिद्धांत डोभाल शामिल हैं। सिद्धांत के पिता संजय डोभाल दिल्ली के नामी कोच हैं और द्वारका में अपनी क्रिकेट अकादमी भी चलाते हैं। राजस्थान की टीम में ही कभी नवीन नेगी विकेटकीपर बल्लेबाज हुआ करते थे। उत्तरप्रदेश से दिग्विजय सिंह रावत ने छह प्रथम श्रेणी मैच खेले थे। वे भी उत्तराखंड के हैं। उत्तराखंड के कई युवा क्रिकेटर भी विभिन्न राज्यों की जूनियर टीमों में खेल रहे हैं। इनमें दिल्ली की टीम के सदस्य अनुज रावत और मयंक रावत प्रमुख हैं। 
       पंजाब के पूर्व तेज गेंदबाज अमित उनियाल पौड़ी जिले के सांगुड़ा गांव के रहने वाले हैं। वह पंजाब की तरफ से 28 रणजी मैच खेलने के अलावा राजस्थान रायल्स के लिये आईपीएल में भी खेले थे। अमित अब चंडीगढ़ में कोचिंग अकादमी चलाते हैं। पिछले दिनों भारतीय टीम में जगह बनाने वाले तेज गेंदबाज बरिंदर सरां  उन्हीं के शिष्य हैं।  क्रिकेट पर बाकी चर्चा फिर कभी। आपका धर्मेन्द्र पंत 
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शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

जौनसार के दो गांवों के बीच होता है अद्भुत 'गागली युद्ध'

       त्तराखंड के गढ़वाल मंडल का एक क्षेत्र है जौनसार जहां जौनसारी भाषा बोली जाती है। यह पूरा क्षेत्र भी उत्तराखंड के तमाम अन्य क्षेत्रों की तरह अपनी अनूठी परंपराओं के लिये विख्यात है। मसलन जब देश भर में दशहरा पूरे धूमधाम से मनाया जाता है तब यहां पाइंता पर्व मनाया जाता है और इस दौरान जौनसार बावर के दो गांवों उत्पाल्टा और कुरोली के बीच युद्ध होता है जिसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। अरबी के पत्तों और डंठलों से होने वाले इस अनोखे युद्ध को देखने के लिये दूरदराज के गांवों के लोग भी आते हैं तथा शुरूआत से लेकर अंत तक इसमें संघर्ष के साथ मनोरंजन का पुट भरा रहता है।

गागली युद्ध का यह वीडियो श्री जितेंद्र लखेड़ा ने उपलब्ध कराया है

        दशहरे के दिन पूरे भारत में रावण दहन किया जाता है लेकिन यहां ऐसी कोई परंपरा नहीं है। पिछले 200 से भी अधिक वर्षों से इस अवसर पर उत्पाल्टा व कुरोली गांवों के बीच दशहरे के दिन गागली युद्ध होता है। ढोल—नगाड़ों की थाप, रणसिंघा की रणभेरी समान ध्वनि के बीच दोनों गांवों के लोग देवधार के जंगल में पहुंचते हैं जहां उनके बीच अरबी के डंठलों और पत्तों से युद्ध होता है। जौनसारी भाषा में अरबी को गागली कहते हैं और इसलिए इसे 'गागली युद्ध' कहा जाता है। युद्ध के लिये एक महीने पहले से ही तैयारी कर ली जाती है। अरबी के डंठलों को काटकर सुखाया जाता है। युद्ध के दिन दोनों पक्ष अपने शौर्य का भरपूर प्रदर्शन करते हैं। हंसी ठिठोली भी चलती है। लगभग एक घंटे के युद्ध के बाद दोनों पक्ष आपस में गले मिलते हैं। एक दूसरे को पाइंता पर्व की बधाई देते हैं और फिर उत्पाल्टा गांव के सार्वजनिक स्थल पर तांदी, हारूल, रासो जैसे नृत्यों से समां बांधा जाता है। इन नृत्यों में दोनों गांव के बच्चों से लेकर महिलाएं और पुरूष सभी हिस्सा लेते हैं। इसके साथ ही लोग अपने स्थानीय देवताओं महासू, चालदा, शिलगुर, विजट, परशुराम आदि के मंदिरों में पूजा करते हैं। उत्पाल्टा और कुरोली के अलावा अन्य गांवों के लोग भी इस दिन पाइंता पर्व मनाते हैं और अपने इन इष्टदेवों के मंदिरों में जाकर परिवार की खुशहाली के लिये कामना करते हैं। 

पश्चाताप के लिये होता है 'गागली युद्ध'


      गागली युद्ध से एक कहानी जुड़ी है। स्थानीय किवदंतियों के अनुसार रानी और मुन्नी नाम की दो बहनें थी। दोनों ही एक साथ कुएं या तालाब में पानी भरने के लिये जाती थी। एक दिन रानी की पानी भरते समय कुएं में गिरने से मौत हो गयी। मुन्नी तुरंत ही घर पहुंची और उसने गांव वालों को सारी घटना विस्तार से बता दी। गांव वालों ने मुन्नी पर ही आरोप लगा दिया कि उसने रानी को धक्का देकर कुंए में फेंका। मुन्नी की किसी से नहीं सुनी। उसे दोषी मान लिया गया। वह पहले ही अपनी सहेली की मौत से सदमे में थी और गांव वालों के आरोपों से दुखी होकर उसने भी कुएं में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। ग्रामीणों को बाद में अपनी गलती का अहसास हुआ। अब पछतावा करने के अलावा कुछ नहीं बचा था। उन्हें रानी और मुन्नी के श्राप का डर सताने लगा। ऐसे में वे महासू देवता की शरण में गये। देवता ने उन्हें दशहरे के दिन दोनों बहनों की मूर्तियां बनाकर कुएं में विसर्जित करने की सलाह दी। तब से ही पश्चाताप के रूप में गागली युद्ध होता है। इससे दो दिन पहले रानी और मुन्नी की मूर्तियां तैयार करके उनकी पूजा होती है और पाइंता यानि दशहरे के दिन उन्हें कुएं में विसर्जित कर दिया जाता है। 
       उत्तराखंड का हर क्षेत्र ऐसी ही दिलचस्प कहानियों और प​रपंराओं से समृद्ध है। 'घसेरी' के पाठकों से गुजारिश है कि ऐसी परंपराओं को आम लोगों तक पहुंचाने के लिये अपना सहयोग करें। आप घसेरी के लिये इन विषयों पर लिख सकते हैं। यदि गागली युद्ध के बारे में अधिक जानकारी या चित्र हों तो उन्हें भी भेज सकते हैं। पहाड़ से जुड़ा ऐसे किसी विषय पर लिखकर आप मुझे चित्र सहित dmpant@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

विनती

                       ... जितेंद्र मोहन पंत ...

     
          नंदा देवी त्वसे विनती च मेरी
          आज शरणम अयूं छौं मी तेरी 
          मेरी मनोकामना पूरी कैरी
          नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

                  भारत का लोग मां जागरूक ह्वेन
                  मिलिकै देश थै एैथर बढ़ैन
                  इनु मंत्र मां आज यूं फर फेरी
                  नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

          जात पांत हमसे दूर मां रावू
          हिन्दू . मुस्लिम थै भाई बणावू
          सबु की जात मां भारतीय कैरी 
          नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी

                 भेदभाव थै मां जड़ से ​मिटै दे
                 विकास का बीज मां देश म ब्वे दे
                 तू इतनी कृपा मां हम पर कैरी 
                  नंदा देवी त्वेसे विनती च मेरी। 

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 कवि का परिचय
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जितेंद्र मोहन पंत। जन्म 31 दिसंबर 1961 को गढ़वाल के स्योली गांव में। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक। इसी दौरान 1978 से 1982 तक पहाड़ और वहां के जीवन पर कई कविताएं लिखी। यह विनती भी सत्तर के दशक के आखिरी दौर में लिखी थी। बाद में सेना के शिक्षा विभाग कार्यरत रहे। 11 मई 1999 को 37 साल की उम्र में निधन। 
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