शनिवार, 18 जून 2016

गढ़वाली लेखन में नयी क्रांति है 'धाद'


            ढ़वाली में पत्र—पत्रिकाओं के प्रकाशन की परंपरा 100 साल से भी पुरानी है। गढ़वाली में लेखन की शुरुआत अनुवाद से हुई थी और बाद में 1905 में देहरादून से 'गढ़वाली' नाम की पत्रिका के प्रकाशन से कविता और साहित्य लेखन भी होने लगा। बाद में गढ़वाली में कुछ अन्य पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ लेकिन इनमें से अधिकतर लंबे समय तक नहीं चल पायी। ऐसी ही एक पत्रिका थी 'धाद' जिसका प्रकाशन श्री लोकेश नवानी और श्री जगदीश बडोला के प्रयासों फरवरी 1987 में शुरू हुआ था। श्री नवानी और श्री बडोला दोनों ही सरकारी कर्मचारी थे। यही वजह थी कि 'धाद' का पंजीकरण श्री बडोला जी की धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बडोला के नाम से किया गया। वह इस पत्रिका की संस्थापक संपादक भी हैं। 'धाद' से तब कई गढ़वाली लोग जुड़े। बाद में पत्रिका तो बंद हो गयी लेकिन 1991 में 'धाद' ने एक सामाजिक संगठन का रूप ले लिया। 
           अब वरिष्ठ पत्रकार, कवि और लेखक श्री गणेश खुगशाल 'गणी' के प्रयासों से 'धाद' पत्रिका का अगस्त 2015 से फिर से प्रकाशन शुरू हुआ है। इसे नये कलेवर, नये स्वरूप और वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर प्रकाशित किया जा रहा है। यह पत्रिका पूरी तरह से गढ़वाली भाषा में है और इसमें गढ़वाली साहित्य के अलावा वहां की संस्कृति और परंपराओं का समावेश किया जा रहा है। ऐसे समय में जबकि यूनेस्को जैसी संस्था ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गढ़वाली भाषा पर खतरा मंडरा रहा है तब श्री गणेश खुगशाल 'गणी' का प्रयास वास्तव में सराहनीय है क्योंकि किसी भी भाषा के प्रचार और प्रसार में उसकी पत्रिकाएं अहम भूमिकाएं निभाती हैं। गढ़वाली में पिछले कुछ समय से ऐसी पत्रिकाओं की कमी महसूस हो रही थी जिसे अब पूरे शान से 'धाद' पूरी कर रही है। गढ़वाली में 'धाद' किसी को आवाज देना, पुकारना या सार्वजनिक कार्यों के लिये आम आदमी का आहवान करना होता है और 'धाद' अब पूरे मनोयोग से धाद लगा रही है। 

गणेश खुगशाल 'गणी'
संपादक 'धाद'
       पत्रिका के संपादक श्री गणेश खुगशाल 'गणी' ने प्रवेशांक के संपादकीय में भी लिखा था, ''या धाद वीं भाषै धाद छ, जैं भाषा गीत गाणौं ग्वारा सात समोदर पार बिटि औंणा छन। य वीं भाषा बोलदरों की धाद छ जैं भाषा बोलदरा सात समोदर पार जैकि बि अपणी बोलि भाषै बात कना छन। य वीं भाषा धाद छ ज्व सिर्फ बोले नि जांदी, जैं भाषा मा खूब लिखेंदु बी छ, पढेन्दु बी छ अर सोचेन्दु बि छ। य धाद वीं भाषा मा छ जैं भाषा मा एक सब्द खुणि दर्जनों सब्द छन अर तौ सब्दु की सामर्थ्य अदभुत छ। यना लौकिक सब्द दुन्या कि कै भाषा मा नि मिलदा। जैं भाषा की अपणी संस्कृति अपणो संस्कार अपणी लोक विरासत छ वींई भाषा धाद छ य। य धाद गढ़वल़ि लोक संचेतना, संवाद अर सृजन को दस्तावेज छ। ''
            'धाद' का प्रत्येक अंक अपने आप में विशिष्ट बनाने का प्रयास किया गया है। पत्रिका के अब तक दस अंक आये हैं जिनमें से प्रत्येक को एक खास विषय वस्तु पर केंद्रित किया गया है। अगस्त 2015 में प्रवेशांक के बाद इसके अगले अंक लोक उत्सव व परंपरा, गढ़वाल मा रामलीला की परंपरा, 15 बरसौ उत्तराखंड, उत्तराखंड का लोक संसाधन, गढ़वाली कविता ब्याली, आज अर भोल, डांडों की माया अर माया का डांडा, मेरो पिया होरी को खेलइया, गढ़वाल म थौल कौथीग और पोस्टर मा गढ़वलि कविता पर आधारित हैं। गंगा दशहरा करीब है और इसलिए अगला अंक गंगा और उसके महत्व पर केंद्रित होगा। यह अंक जल्द ही आपके हाथों में होगा। पत्रिका में देश और विदेश में गढ़वाल और गढ़वाली से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों की संक्षिप्त रिपोर्ट भी पेश की जा रही है। कुल मिलाकर गढ़वाली भाषा की यह संपूर्ण पत्रिका बनकर उभर रही है जिसमें कई ऐसे लेखक जुड़ रहे हैं जो अब तक केवल हिन्दी और अंग्रेजी में ही लेखन कार्य करते थे। असल में धाद ने गढ़वाली लेखन में नयी क्रांति की शुरुआत कर दी है। 'धाद' पत्रिका गढ़वाल के पुराने और नये लेखकों के लिये मंच बन गयी है। लेखक, कवि और शिक्षक मनोहर मनु 'धाद' के प्रवेशांक से लेकर अब तक के प्रत्येक अंक की समीक्षा पूरे मनोयोग से अपने फेसबुक पेज पर करते रहे हैं। 

           धाद के बारे में अन्य संक्षिप्त जानकारी यहां दी जा रही है।    
              मूल्य: 20 रुपए
              वार्षिक सदस्यता : 220 रुपये 
        मुख्य संपर्क :
              गणेश खुगशाल ‘गणी’,
              126 विकास मार्ग,पौड़ी 246001
              मोबाइलः 09412079537
              मेल: dhad.garhwali@gmail.com 
       दिल्ली संपर्क : 
              ए—162/यूजी—4, दिलशाद कालोनी,
              दिल्ली —110 095
               मोबाइल : 09013285624
          किसी भी पत्रिका में विज्ञापनों की भूमिका अहम होती है। श्री गणेश खुगशाल 'गणी' धाद के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं लेकिन 'धाद' पूरे जोशोखरोश से लगती रहे इसके लिये पत्रिका में विज्ञापनों का होना भी जरूरी है। मेरी व्यक्तिगत राय है कि इसके लिये देश और विदेशों में बसे हर उत्तराखंडी से सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है। आपके सहयोग से उत्तराखंड के विकास का दस्तावेज तैयार होगा वहीं लोकभाषा के संरक्षण और सवंर्धन अभियान को भी ताकत मिलेगी। इसलिए मैं यहां पर पत्रिका के विज्ञापन की दरें भी दे रहा हूूं। 

                      'धाद' की विज्ञापन दरें 


           अंतिम आवरण (रंगीन)          : 25,000 रुपये
           दूसरा/तीसरा आवरण (रंगीन) : 20,000 रुपये 
           पूरा पृष्ठ (ब्लैक एंड व्हाइट)    : 10,000 रुपये 
           आधा पृष्ठ (ब्लैक एंड व्हाइट) :  6,000 रुपये 
           चौथाई पृष्ठ (ब्लैक एंड व्हाइट):  3,000 रुपये 
           सेंटर स्प्रेड (ब्लैक एंड व्हाइट) : 18,000 रुपये 
           सेंटर स्प्रेड (आर्ट पेपर रंगीन) : 35,000 रुपये 

         भाषाओं को बचाना हमारा सांस्कृतिक दायित्व है और वर्तमान समय में 'धाद' उत्तराखंडी लोकभाषा का प्रतिनिधित्व करती है। उम्मीद है कि आप 'धाद' से जुड़ेंगे और उसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान देंगे। आपका धर्मेन्द्र पंत।

3 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut acha ....
    Uttarakhand Bhasha or Sanskriti "Garhwal" ko lupt hone s bachane k liye sarahniya kaarya h apka ......

    जवाब देंहटाएं
  2. 'धाद' की वार्षिक सदस्यता आनलाइन भी हासिल की जा सकती है। इसके 12 अंकों की कीमत 220 रूपये हैं। वार्षिक सदस्यता के लिये लिंक है http://www.culturaltrends.in/product/dhad-magazine

    जवाब देंहटाएं
  3. , श्रीमान जी,मी भी गढ़वाली मा कविता भेजणु चांदु।

    जवाब देंहटाएं

badge