मंगलवार, 28 जून 2016

गढ़वाल का कौसानी है खिर्सू

खिर्सू में वन विभाग  का मनोरंजन केंद्र हर सैलानी को लुभाता है। 

      बांज, देवदार, चीड़, बुरांश के पेड़ों से भरे जंगल के बीच बसा छोटा सा गांव जहां शोर के नाम पर सुनाई देता है केवल पक्षियों का कलरव। सामने नजर दौड़ाओं को दिखती है हिमाच्छादित चोटियों की मनोरम श्रृंखला और मौसम ऐसा कि मई . जून में स्वेटर पहनने की नौबत पड़ सकती है। इस जगह का नाम है खिर्सू जो लगभग 1700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और जहां आपको अन्य पर्यटन स्थलों की तरह चकाचौंध तो नहीं मिलेगी लेकिन यहां आकर लगेगा कि आप प्रकृति के बेहद करीब हैं। खिर्सू में उत्तराखंड सरकार के तमाम 'प्रयासों' के बावजूद सुविधाओं का अभाव भी हो सकता है लेकिन प्रकृति का करीबी अहसास आपको इनकी कमी नहीं खलने देगा। 
      खिर्सू के बारे में बचपन से सुना था लेकिन तब यह महज एक गांव हुआ करता था जिसे खास तवज्जो नहीं दी जाती थी। बुवाखाल से पौड़ी अनगिनत बार गया लेकिन कभी खिर्सू का रूख नहीं किया। इस बार जब गर्मियों में पहाड़ दौरे पर निकला तो खिर्सू सूची में पहले स्थान पर था। पौड़ी से महज 19 किमी की दूरी पर स्थित तो फिर जाना तो बनता था। तिस पर गणेश भैजी (श्री गणेश खुगशाल 'गणी') का साथ मिल गया तो फिर यात्रा का आनंद दुगुना हो गया। खिर्सू में वन मनोरंजन केंद्र में 'घसेरी' के एक सुधी पाठक श्री देवेंद्र बिष्ट से भी मुलाकात हुई जो अपने दोस्तों के साथ प्रकृति की गोद में कुछ पल बिताने के लिये यहां पहुंचे थे। 

घसेरी के पाठक देवेंद्र बिष्ट (बायें से दूसरे) अपने साथियों के साथ। उनके पीछे है खिर्सू का ऐतिहासिक स्कूल जिसे अंग्रेजों ने तैयार किया था। गढ़वाल के सबसे पुराने स्कूलों में से एक। 
      खिर्सू असल में एक गांव है जिसे उत्तराखंड राज्य बनने के बाद पर्यटन स्थल का दर्जा दिया गया। रिपोर्टों के अनुसार इसके विकास पर करोड़ों रूपये खर्च भी हुए लेकिन जमीनी हकीकत अलग तरह की कहानी बयां करती है। पर्यटकों को लुभाने के लिये आज भी खिर्सू में वही सब कुछ है जो प्रकृति की देन है। सरकार कहती है कि यहां जमीन नहीं होने के कारण विकास नहीं हो पा रहा है। यदि किसी तरह के विकास के लिये जंगलों या प्रकृति से छेड़छाड़ होती है तो फिर खिर्सू का वर्तमान स्वरूप ही ठीक है लेकिन इसमें भी काफी सुधार की गुंजाइश है। यहां पार्किंग की उचित व्यवस्था भी की जानी चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि यदि खिर्सू जाएं तो गाड़ी में डीजल या पेट्रोल पर्याप्त मात्रा में हो क्योंकि यह सबसे पास का पेट्रोल पंप पौड़ी में है।

खिर्सू में हैं ठहरने के कम विकल्प


     ब हम खिर्सू में ठहरने की व्यवस्था की बात करें तो विकल्प बहुत कम हैं। इनमें गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस है जिसकी आनलाइन बुकिंग होती है और गर्मियों के समय में इसमें भी आसानी से कमरे नहीं मिलते हैं। यहां कमरों की कीमत 800 से 1600 रुपये प्रति दिन है। वन विभाग का विश्राम भवन है जिसे 1913 में बनाया गया था। इसमें अंग्रेजों के जमाने की साज सज्जा भी दिखायी देती है। हाल में 42 लाख रुपये की लागत से दो बम्बू हट भी बनाये गये हैं। यदि आप वन विभाग में काम करते हैं तो आपको सस्ती दर पर ये कमरे मिल जाएंगे। सरकारी कर्मचारियों के लिये भी कुछ छूट है लेकिन सामान्य नागरिकों अंग्रेजों के जमाने के भवन में एक रात के लिये 1000 रुपये जबकि बम्बू हट में 1250 रुपये खर्च करने होंगे। विदेशी पर्यटकों के लिये यह कीमत दोगुनी क्रमश: 2000 और 2500 रुपये हो जाती है। 

खूबसूरत बंबू हट। इसमें फर्नीचर भी बांस से तैयार किया गया है। 
       इन कमरों की बुकिंग पौड़ी में जिला वन अधिकारी (डीएफओ) कार्यालय से की जाती है। लेकिन यहां ठहरने में भोजन की दिक्कत है क्योंकि यहां गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस की तरह खाने की व्यवस्था नहीं थी। पहले यहां सस्ती दरों पर घर जैसा भोजन भी मिल जाता था लेकिन पता चला कि जो मुख्य खानसामा था उसे कोई वन अधिकारी अपने साथ ही ले गया और तब से भोजन व्यवस्था का काम ठप्प पड़ गया। इनके अलावा एक दो निजी होटल भी हैं।  इनमें बद्री विशाल होटल और होटल ताज हिमालय शामिल है। घसेरी के जरिये मित्र बने देवेंद्र बिष्ट बद्री विशाल में ठहरे थे जहां उन्होंने 1500 रुपये में कमरा लिया था। वे वहां की व्यवस्था से खुश थे। हाल में खिर्सू का दौरा करने वाले श्री रामकृष्ण घिल्डियाल ने बताया कि उन्हें इसी होटल में अच्छा कमरा मिल गया था। यह अलग बात है कि उन्होंने खुद को गढ़वाली के रूप में बेहतर तरीके से पेश किया। यहां पानी की कमी है और सुबह नहाने के लिये गर्म पानी चाहिए तो 30 रुपये देकर गर्म पानी से भरी बाल्टी मिल जाएगी। पौड़ी में ठहरने के लिये अच्छे होटल हैं और यहां ठहरकर भी दिन में खिर्सू का आनंद लिया जा सकता है।

प्रांजल और प्रदुल ने मनोरंजन पार्क में पूरी मस्ती की। 

इन स्थानों की कर सकते हैं सैर 


       खिर्सू एक रमणीक स्थल है। आप जंगल से गुजरती लगभग सुनसान सड़क पर पैदल चलकर आनंद ले सकते हैं। यहां से आप हिमालय की लगभग 300 ज्ञात और अज्ञात चोटियों को निहार सकते हैं। इनके अलावा कुछ ऐसी जगह हैं जहां पर आप कुछ समय बिता सकते हैं। ऐसा ही एक स्थान है वन विहार का मनोरंजन केंद्र या पार्क। जंगल के बीच में पार्क बच्चों को जरूर लुभाता है क्योंकि वह पर झूले भी लगे हुए हैं। यह अलग बात है कि उनका रखरखाव अच्छी तरह से नहीं किया जा रहा है। इसी पार्क में पहले नेचर कैंप भी लगाया जाता था। वहां अब भी इन टैंट के अवशेष देखे जा सकते हैं। इस तरह के कैंप पर्यटकों का ध्यान आकर्षित कर सकते थे। खिर्सू से यदि ट्रैकिंग करनी है तो फिर काफी ऊंचाई पर स्थित फुरकंडा प्वाइंट है। यहां से खिर्सू और आसपास के गांवों का विहंगम दृश्य दिखायी देता है। यहां आप अपनी गाड़ी से भी जा सकते हैं। देवभूमि में देवताओं का दर्शन करने हैं तो घंडियाल मंदिर है जो काफी मशहूर है। खिर्सू से लगभग तीन किमी दूर उल्कागढ़ी में उल्का देवी का मंदिर है। कभी गढ़वाल की राजधानी रही देवलगढ़ यहां से 16 किमी दूर है। इसके अलावा आसपास के कुछ गांव हैं,  जिनका भ्रमण किया जा सकता है। चौखंबा से हिमालय का मनोहारी दृश्य देखा जा सकता है। खिर्सू से चौबट्टा तक जंगल के बीच दो किमी की सड़क जंगल के बीच गुजरती हैं। पर्यटक अक्सर यहां घूमने का आनंद उठाते हैं।  खिर्सू और बुवाखाल के बीच पड़ने वाले कुछ स्थलों से बुरांश का जूस भी खरीदा जा सकता है। 

जंगल में शिविर सैलानियों को जरूर पसंद आएगा। बेहतर रखरखाव नहीं होने के कारण अब ऐसे शिविर नहीं लगाये जाते। टैंट से बने शिविरों की स्थिति बदतर हो रखी है। 

 कब और कैसे जाएं खिर्सू 

     खिर्सू जाना हो तो गर्मियों का मौसम आदर्श होता है। अप्रैल से जून तक क्योंकि इसके बाद बरसात का मौसम शुरू हो जाता है। वैसे तो पहाड़ बरसात में अधिक लुभावने बन जाते हैं लेकिन इस दौरान सड़कें टूटने का खतरा बना रहता है जबकि सर्दियों में ठंड अधिक रहती है और ऐसे में आप जंगल के बीच सड़क पर टहलने के बारे में नहीं सोच सकते हो। 
    यदि आप दिल्ली से जा रहे हैं तो खिर्सू जाने के लिये दो रास्ते हैं। पहला मार्ग कोटद्वार से सतपुली और बुवाखाल होते हुए और दूसरा ऋषिकेश से देवप्रयाग और पौड़ी होते हुए खिर्सू जाता है। कोटद्वार से खिर्सू की दूरी 115 किमी है जबकि ऋषिकेश से 128 किमी। इन दोनों ही स्थानों से खिर्सू पहुंचने में तीन से चार घंटे का समय लगता है। पौड़ी राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 119 से जुड़ा हुआ है। खिर्सू का सबसे करीबी रेलवे स्टेशन कोटद्वार जबकि सबसे करीबी हवाई अड्डा जौली ग्रांट है। जौली ग्रांट से ऋषिकेश, देवप्रयाग और पौड़ी होते हुए खिर्सू पहुंचा जा सकता है। 
   मैंने और मेरे परिवार ने तो खिर्सू भ्रमण का पूरा आनंद लिया। आप भी कुछ दिन खिर्सू में बिता सकते हैं। शहरी कोलाहल से दूर एक शांतिप्रिय जगह। आपका धर्मेन्द्र पंत 

© ghaseri.blogspot.in 

------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

शनिवार, 18 जून 2016

गढ़वाली लेखन में नयी क्रांति है 'धाद'


            ढ़वाली में पत्र—पत्रिकाओं के प्रकाशन की परंपरा 100 साल से भी पुरानी है। गढ़वाली में लेखन की शुरुआत अनुवाद से हुई थी और बाद में 1905 में देहरादून से 'गढ़वाली' नाम की पत्रिका के प्रकाशन से कविता और साहित्य लेखन भी होने लगा। बाद में गढ़वाली में कुछ अन्य पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ लेकिन इनमें से अधिकतर लंबे समय तक नहीं चल पायी। ऐसी ही एक पत्रिका थी 'धाद' जिसका प्रकाशन श्री लोकेश नवानी और श्री जगदीश बडोला के प्रयासों फरवरी 1987 में शुरू हुआ था। श्री नवानी और श्री बडोला दोनों ही सरकारी कर्मचारी थे। यही वजह थी कि 'धाद' का पंजीकरण श्री बडोला जी की धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बडोला के नाम से किया गया। वह इस पत्रिका की संस्थापक संपादक भी हैं। 'धाद' से तब कई गढ़वाली लोग जुड़े। बाद में पत्रिका तो बंद हो गयी लेकिन 1991 में 'धाद' ने एक सामाजिक संगठन का रूप ले लिया। 
           अब वरिष्ठ पत्रकार, कवि और लेखक श्री गणेश खुगशाल 'गणी' के प्रयासों से 'धाद' पत्रिका का अगस्त 2015 से फिर से प्रकाशन शुरू हुआ है। इसे नये कलेवर, नये स्वरूप और वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर प्रकाशित किया जा रहा है। यह पत्रिका पूरी तरह से गढ़वाली भाषा में है और इसमें गढ़वाली साहित्य के अलावा वहां की संस्कृति और परंपराओं का समावेश किया जा रहा है। ऐसे समय में जबकि यूनेस्को जैसी संस्था ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गढ़वाली भाषा पर खतरा मंडरा रहा है तब श्री गणेश खुगशाल 'गणी' का प्रयास वास्तव में सराहनीय है क्योंकि किसी भी भाषा के प्रचार और प्रसार में उसकी पत्रिकाएं अहम भूमिकाएं निभाती हैं। गढ़वाली में पिछले कुछ समय से ऐसी पत्रिकाओं की कमी महसूस हो रही थी जिसे अब पूरे शान से 'धाद' पूरी कर रही है। गढ़वाली में 'धाद' किसी को आवाज देना, पुकारना या सार्वजनिक कार्यों के लिये आम आदमी का आहवान करना होता है और 'धाद' अब पूरे मनोयोग से धाद लगा रही है। 

गणेश खुगशाल 'गणी'
संपादक 'धाद'
       पत्रिका के संपादक श्री गणेश खुगशाल 'गणी' ने प्रवेशांक के संपादकीय में भी लिखा था, ''या धाद वीं भाषै धाद छ, जैं भाषा गीत गाणौं ग्वारा सात समोदर पार बिटि औंणा छन। य वीं भाषा बोलदरों की धाद छ जैं भाषा बोलदरा सात समोदर पार जैकि बि अपणी बोलि भाषै बात कना छन। य वीं भाषा धाद छ ज्व सिर्फ बोले नि जांदी, जैं भाषा मा खूब लिखेंदु बी छ, पढेन्दु बी छ अर सोचेन्दु बि छ। य धाद वीं भाषा मा छ जैं भाषा मा एक सब्द खुणि दर्जनों सब्द छन अर तौ सब्दु की सामर्थ्य अदभुत छ। यना लौकिक सब्द दुन्या कि कै भाषा मा नि मिलदा। जैं भाषा की अपणी संस्कृति अपणो संस्कार अपणी लोक विरासत छ वींई भाषा धाद छ य। य धाद गढ़वल़ि लोक संचेतना, संवाद अर सृजन को दस्तावेज छ। ''
            'धाद' का प्रत्येक अंक अपने आप में विशिष्ट बनाने का प्रयास किया गया है। पत्रिका के अब तक दस अंक आये हैं जिनमें से प्रत्येक को एक खास विषय वस्तु पर केंद्रित किया गया है। अगस्त 2015 में प्रवेशांक के बाद इसके अगले अंक लोक उत्सव व परंपरा, गढ़वाल मा रामलीला की परंपरा, 15 बरसौ उत्तराखंड, उत्तराखंड का लोक संसाधन, गढ़वाली कविता ब्याली, आज अर भोल, डांडों की माया अर माया का डांडा, मेरो पिया होरी को खेलइया, गढ़वाल म थौल कौथीग और पोस्टर मा गढ़वलि कविता पर आधारित हैं। गंगा दशहरा करीब है और इसलिए अगला अंक गंगा और उसके महत्व पर केंद्रित होगा। यह अंक जल्द ही आपके हाथों में होगा। पत्रिका में देश और विदेश में गढ़वाल और गढ़वाली से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों की संक्षिप्त रिपोर्ट भी पेश की जा रही है। कुल मिलाकर गढ़वाली भाषा की यह संपूर्ण पत्रिका बनकर उभर रही है जिसमें कई ऐसे लेखक जुड़ रहे हैं जो अब तक केवल हिन्दी और अंग्रेजी में ही लेखन कार्य करते थे। असल में धाद ने गढ़वाली लेखन में नयी क्रांति की शुरुआत कर दी है। 'धाद' पत्रिका गढ़वाल के पुराने और नये लेखकों के लिये मंच बन गयी है। लेखक, कवि और शिक्षक मनोहर मनु 'धाद' के प्रवेशांक से लेकर अब तक के प्रत्येक अंक की समीक्षा पूरे मनोयोग से अपने फेसबुक पेज पर करते रहे हैं। 

           धाद के बारे में अन्य संक्षिप्त जानकारी यहां दी जा रही है।    
              मूल्य: 20 रुपए
              वार्षिक सदस्यता : 220 रुपये 
        मुख्य संपर्क :
              गणेश खुगशाल ‘गणी’,
              126 विकास मार्ग,पौड़ी 246001
              मोबाइलः 09412079537
              मेल: dhad.garhwali@gmail.com 
       दिल्ली संपर्क : 
              ए—162/यूजी—4, दिलशाद कालोनी,
              दिल्ली —110 095
               मोबाइल : 09013285624
          किसी भी पत्रिका में विज्ञापनों की भूमिका अहम होती है। श्री गणेश खुगशाल 'गणी' धाद के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं लेकिन 'धाद' पूरे जोशोखरोश से लगती रहे इसके लिये पत्रिका में विज्ञापनों का होना भी जरूरी है। मेरी व्यक्तिगत राय है कि इसके लिये देश और विदेशों में बसे हर उत्तराखंडी से सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है। आपके सहयोग से उत्तराखंड के विकास का दस्तावेज तैयार होगा वहीं लोकभाषा के संरक्षण और सवंर्धन अभियान को भी ताकत मिलेगी। इसलिए मैं यहां पर पत्रिका के विज्ञापन की दरें भी दे रहा हूूं। 

                      'धाद' की विज्ञापन दरें 


           अंतिम आवरण (रंगीन)          : 25,000 रुपये
           दूसरा/तीसरा आवरण (रंगीन) : 20,000 रुपये 
           पूरा पृष्ठ (ब्लैक एंड व्हाइट)    : 10,000 रुपये 
           आधा पृष्ठ (ब्लैक एंड व्हाइट) :  6,000 रुपये 
           चौथाई पृष्ठ (ब्लैक एंड व्हाइट):  3,000 रुपये 
           सेंटर स्प्रेड (ब्लैक एंड व्हाइट) : 18,000 रुपये 
           सेंटर स्प्रेड (आर्ट पेपर रंगीन) : 35,000 रुपये 

         भाषाओं को बचाना हमारा सांस्कृतिक दायित्व है और वर्तमान समय में 'धाद' उत्तराखंडी लोकभाषा का प्रतिनिधित्व करती है। उम्मीद है कि आप 'धाद' से जुड़ेंगे और उसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान देंगे। आपका धर्मेन्द्र पंत।

गुरुवार, 2 जून 2016

कौसानी : प्रकृति की गोद में सुकून के पल

                                                       यात्रा वृतांत : मोना पार्थसारथी 

कौसानी की शान है अनासक्ति आश्रम, जहां महात्मा गांधी ने कुछ दिन बिताये थे। सभी फोटो सौजन्य : मोना पार्थसारथी। 
        सुमित्रानंदन पंत की कविताओं और गांधी आश्रम की वजह से कौसानी अल्मोड़ा के बारे में यूं तो बचपन से सुन रखा था लेकिन वहां जाने का मौका अब जाकर मिला। चार दिन की छुटटी मिली और हमने : मैं, पार्थ और सिद्वांत : पुरानी दिल्ली से रात को रानीखेत एक्सप्रेस पकड ली। सुबह पांच बजे काठगोदाम उतरे और सीधे कौसानी के लिये टैक्सी ली। बीच में कैंची धाम स्थित नीब करौरी बाबा के आश्रम कुछ समय बिताते हुए करीब पांच घंटे में कौसानी पहुंचे जहां वन विभाग के विश्राम घर में पहले ही से बुकिंग थी। यूं तो तीनों दिन वहीं रूकना तय था लेकिन शाम को अनासक्ति आश्रम या गांधी आश्रम जाने के बाद इरादा बदल दिया और अगले दिन आश्रम रहने चले गए। लक्जरी तलाशने वालों को आश्रम में रहना शायद पसंद नहीं आये लेकिन वहां एक दिन के प्रवास ने जो यादों की धरोहर दी, उसे ताउम्र भुलाना मुश्किल होगा। चाहे शाम को होने वाली प्रार्थना हो या आश्रम का सादा भोजन या वहां व्यवस्था संभालने वाले उम्रदराज लेकिन काम के मामले में युवाओं को शर्मिंदा करने वाले गांधीवादी, सब कुछ अनूठा था। मूसलाधार बारिश के बीच सामने हिमालय की वादियों को निहारते हुए 'रघुपति राघव राजा राम' या 'वैष्णव जन तो तेणे कहिये' के सामूहिक गान की अनुभूति का शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता। उसे सिर्फ महसूस ​ही किया जा सकता है।
     आश्रम में भोजन बिना प्याज लहसुन का और एकदम नाममात्र के दाम पर उपलब्ध है। कमरों का किराया (400 से 600 रूपये) भी बहुत कम है लेकिन टीवी, पंखा, गीजर जैसी सुविधायें तलाशेंगे तो आपको निराशा होगी। मैं इतना ही कहूंगी कि हर माता पिता को अपने बच्चों को लेकर एक बार इस आश्रम में जरूर रूकना चाहिये। कौसानी से लगभग 17 किलोमीटर दूर बैजनाथ मंदिर भी प्रकृति की गोद में नदी किनारे बसा बेहद सुरम्य स्थान है। आप कौसानी से टैक्सी करके एक दिन में बैजनाथ, चाय के बागान और शाल फैक्टी देख सकते हैं। चाय बागान के पास लवली रेस्त्रां में आप ठेठ कुमाउंनी खाने मसलन मडुंआ (कोदा) की रोटी, भट की दाल, आलू के गुटके, झोली(कढ़ी) आदि का लुत्फ उठा सकते हैं। यहां से कौसानी की मशहूर चाय खरीदी जा सकती है। बैजनाथ के रास्ते में एक बात जो मुझे बहुत अखरी, वह कभी गाइड बनने या पहाडी गाने सुनाने की मनुहार करती गाडियों के पीछे भागती छोटी छोटी बच्चियां। ड्राइवर ने बताया कि यहां बेरोजगारी और शराबखोरी इतनी है कि बच्चों को भी ऐसे काम करने पड़ते हैं। अगले दिन सुबह सूर्योदय से ही आश्रम में चहल पहल थी चूंकि मौसम साफ होने से सामने हिमालय दर्शन का मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता था। धवल हिमराज पर सूरज की रक्ताभ किरणें मानो चांदी पर सोना उड़ेल रही थी और इसे कैमरों में कैद करने की होड़ लगी थी। स्विटजरलैंड तो मैं कभी गई नहीं लेकिन अगर गांधीजी ने इसे मिनी स्विटजरलैंड कहा तो गलत नहीं कहा था।


कौसानी और बैजनाथ : प्रकृति की अद्भुत देन के साथ खुद में इतिहास भी समेटे हुए हैं। 

      आश्रम में सबसे विदा लेकर हम अगले गंतव्य जागेश्वर को रवाना हुए। अल्मोड़ा से करीब 40 किलोमीटर आगे चीड के जंगलों के बीच अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य की छटा बिखेेरे जागेश्वर के प्राचीन मंदिर में असंख्य शिवलिंग हैं। मंदिर में दर्शन के बाद भी अल्मोड़ा लौटे जहां शिखर होटल में ठहरना था। शहर के बीच माल रोड पर स्थित यह शहर का सबसे सुविधाजनक और बेहतरीन होटल है जिसमें आपको हर तरह के कमरे मिल जायेंगे। अगर आप अल्मोड़ा जाने की सोच रहे हैं तो मैं यही सलाह दूंगी कि इसी होटल में रूकें।
      अल्मोड़ा घना बसा हुआ शहर है और आपको यहां हिल स्टेशन जैसा अहसास नहीं होगा। यहां कौसानी की तुलना में काफी गर्मी भी थी। शहर के दूसरे छोर यानी ब्राइट एंड पर रामकृष्ण कुटीर से सूर्यास्त का अनुपम दृश्य देखा जा सकता है। इसके अलावा आप नंदादेवी के मंदिर के दर्शन कीजिये और भीमसिंह मोहनसिंह रौतेला की मशहूर बाल मिठाई और सिंगोडी का मजा लीजिये। अल्मोड़ा से लौटते समय कैंची धाम जरूर रूकें जहां आश्रम देखने के साथ ही बाहर से ताजे फल खरीद सकते हैं। इसके अलावा यहां मारूति रेस्त्रां में सादे लेकिन बेहद स्वादिष्ट शाकाहारी खाने का आनंद लिया जा सकता है।


      त्तराखंड और हिमाचल के अनेकानेक पर्यटन स्थलों पर घूमने के बाद मैं इतना ही कहूंगी कि अगर आप भीडभाड से परे प्रकृति के बीच आप सुकून के पल बिताना चाहते हैं तो कौसानी आपके लिये उत्तम जगह है। यहां कोई इटिंग ज्वाइंटस या पाइंट टू पाइंट टूरिस्ट आकर्षण नहीं है लेकिन अपार शांति है। सादगी में सौंदर्य है। कौसानी प्रवास के दौरान ड्राइवर मंगल सिंह : मोबाइल नंबर 09410047723 : का खास तौर पर जिक्र करना चाहूंगी जिसने पर्यटक समझकर लूटने की बजाय बेहद मुनासिब दाम लिये लिहाजा अगर आप जाना चाहे तो उसे फोन करने पर वह काठगोदाम स्टेशन आपको लेने आ जायेगा।

© ghaseri.blogspot.in 
badge