मंगलवार, 22 मई 2018

उत्तराखंड के जंगलों में आग : कारण और बचाव


    गर्मियां शुरू होते ही उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की खबरें भी आने लगी हैं। श्रीनगर के आसपास के जंगल पिछले कुछ दिनों से आग से धधक रहे हैं। ठोस सरकारी नीति के अभाव में यह लगभग हर साल का किस्सा बन गया है। उत्तराखंड के जंगलों में 1992, 1997, 2004, 2012 और 2016 में लगी आग को भला कौन भुला सकता है। वर्ष 2016 में लगी आग भीषण थी। तब आग ने इतना विकराल रूप ले लिया है कि पहली बार आग बुझाने के लिए वायु सेना, थल सेना और एनडीआरएफ़ तक को लगाना पड़ा था।
      जंगल में लगी आग से पूरा पारिस्थतिकीय तंत्र गड़बड़ा जाता है लेकिन फिर भी हर साल या तो आग लग जाती है या उसे लगा दिया जाता है। सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि उत्तराखंड के जंगलों में हर साल गर्मियों में आग क्यों लगती है। 
      उत्तराखंड में चीड़ के जंगल बहुतायत में हैं जो कि आग लगने का मुख्य कारण हैं। चीड़ की सूखी पत्तियां यानि पिरूळ न सिर्फ आग तेजी से पकड़ता है बल्कि उसे फैलाने में भी अहम भूमिका निभाता है। मार्च से जून तक चीड़ की ये नुकीली पत्तियां नीचे गिर जाती हैं। भारतीय वन संस्थान के अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्र में फैले चीड़ के जंगल से एक साल में लगभग छह टन पिरूळ ​गिरता है। सड़कों में गिरा पिरूळ और उससे बना बुरादा असल में बारूद के ढेर जैसा होता है। गलती से भी इसमें तीली या जली बीड़ी पड़ जाए तो फिर आग पकड़ने में देर नहीं लगती है। 




        त्तराखंड में कभी बांज, देवदार, काफळ, बुरांश आदि के अधिक पेड़ थे। बांज, बुरांश की पत्तियां पशुओं के चारे के काम भी आती हैं और इनकी जड़ों में पानी रोकने की भी क्षमता होती है जबकि चीड़ के पेड़ की प्रकृति इसके ठीक विपरीत है। देवदार, बांज, बुरांश ​आदि को इमारती लकड़ी के लिये काटा गया और अंग्रेजों ने लीसा के लोभ में चीड़ के पेड़ों को बढ़ावा दिया। अब आलम यह है कि उत्तराखंड में जहां भी नजर दौड़ाओ चीड़ के पेड़ नजर आते हैं जो न जंगल के लिये लाभकारी हैं और ना ही आम आदमी के लिये। चीड़ के पेड़ और सख्त वन्य कानूनों ने स्थानीय निवासियों की वनों से दूरी भी बढ़ा दी। जिन वनों को वे अपना समझते थे वे उनके लिये पराये हो गये। 
       पिरूळ अपने नीचे किसी अन्य वनस्पति को नहीं पनपने देता है इसलिए पशुओं के लिये भी जंगल बेमतलब के हो गये। स्थानीय निवासी भी पिरूळ को पसंद नहीं करते और कई बार वे इसमें आग लगा देते हैं। जंगलों में आग लगने की अधिकतर घटनाएं इंसानों की वजह से होती हैं जैसे आगजनी, कैम्पफ़ायर, बिना बुझी सिगरेट या बीड़ी फेंकना, जलता हुआ कचरा छोड़ना आदि। 
       इस आग से बचा जा सकता है कि लेकिन अब भी उत्तराखंड में इसके लिये कोई मास्टर प्लान नहीं है। सबसे पहले तो चीड़ के जंगलों को बढ़ने से रोकना होगा तथा स्थानीय निवासियों को बांज, बुरांश आदि के पेड़ लगाने के लिये उत्साहित करना होगा। जैसा हमने पहले आपको बताया कि पिरूळ आग लगने और उसे फैलाने का मुख्य कारक है। उत्तराखंड में अगर आग के आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2014 में 384.5 हेक्टेयर व 2015 में 930.55 हेक्टेयर क्षेत्र में आग लगी थी जो कि वर्ष 2016 में 4,423.35 हेक्टेयर तक पहुंच गयी। इस आग से करोड़ों रूपये का नुकसान हुआ। बेहतर यही है कि बाद में नुकसान उठाने के बजाय सरकार इस रूपये का पहले सदुपयोग करे। पिरूळ से खाद बनाने व्यवस्था की जा रही है लेकिन इसे व्यापक स्तर पर चलाया जाना चाहिए। पिरूळ इकट्ठा करके उससे खाद तैयार करने में स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलेगा। आग बुझाने के लिये केवल दमकलकर्मियों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। स्थानीय लोग अपनी तरफ से प्रयास करते हैं लेकिन सरकार को उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इसको रोजगार का रूप दिया जा सकता है। यही नहीं लीसा माफिया के खिलाफ भी सरकार को सख्त कदम उठाने होंगे जो अपनी चोरी छिपाने के लिये जंगलों में आग लगा देते हैं।
धर्मेन्द्र पंत 

बुधवार, 9 मई 2018

हाँ,हाँ वी खाडू छौं मी

       गर्मियां शुरू हो गयी हैं। यह वह समय है ​जबकि दिल्ली, देहरादून या अन्य शहरों में बस चुके उत्तराखंडी कुछ दिनों के लिये अपने गांवों की सुध लेते हैं। कुछ दिनों के लिये ही सही गांव थोड़ा आबाद लगते हैं। इनमें से अधिकतर पूजा पाठ के लिये गांव आते हैं। साल भर में कई सिरयौण यानि मन्नतें की होती हैं। हम पहाड़ी इनको पूरा करने का इसे सही समय मानते हैं क्योंकि स्कूलों की छुट्टियां होती हैं। कुछ लोगों की सिरयौण में भेड़—बकरे की बलि भी शामिल होती है। शिक्षा के प्रसार और जागरूकता बढ़ने के बाद इसमें कमी आयी है लेकिन अब भी बलि प्रथा चलन में है। श्री केशव डुबर्याळ "मैती" की यह कविता बलि प्रथा पर तीखा कटाक्ष है। उम्मीद है कि आप सभी इस कविता का मर्म समझेंगे।


हाँ,हाँ वी खाडू छौं मी

केशव डुबर्याळ "मैती"


जै थै तू अपणा द्यब्ता थैं ढूंढ़णु छै,
सुण ले मनखी मेरी दुनिया उजाड़ी,
तेरु भल्लू हूंद त खूब करी,
पर एक बार ज्यूंदाळ् डाळदी बगति,
अपणा मुख जने भी हेरी। 

द्यब्ता ही खुश कनि तिन त मेरी ही बलि किले,
पर कीला फरें पाल्युं रौं,नि सकदु कुछ कैरी,
हे कच्ब्वाली का कचोर करदरा,
ल्वेबली का लब्लाट करदरा,
सुण ले मनखी,
गिचन नि बोल सकदु,
तेरी आत्मा झकजोर सकदु। 

अगर तू मनखी होलु,
तोड़ ये अन्धविश्वास,
छोड़ मेरी ज्युडी,
हम दगडी भी,
बिश्वास की डोर बांधी दे,
बिश्वास की डोर बांधी दे। 
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