वरिष्ठ पत्रकार फ़ज़ल इमाम मल्लिक ने यह लेख विशेष रूप से 'घसेरी' के लिये लिखा है। इसमें उन अनछुये पहलुओं को उजागर किया गया है जो उत्तराखंड के लिये आज बेहद महत्वपूर्ण हैं लेकिन पार्टियों ने उन पर गौर करना उचित नहीं समझा। उम्मीद है कि आपको यह लेख पसंद आएगा।
पलायन के कारण गांव के गांव वीरान हो गये हैं। मकान खंडहर में बदल गये हैं तो कुछ घरों में वर्षों से लटके ताले खुलने का इंतजार कर रहे हैं। चित्र : धर्मेंद्र पंत |
उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव निपट गए. सत्ता बचाने और वापसी के खेल में कांग्रेस और भाजपा उलझी रहीं। नए वादे भी किए गए और नए नारे भी गढ़े गए। दागियों की बातें हुईं, बागियों को लेकर एक-दूसरे पर वार किए गए। विकास के सुनहरे सपने दिखाने में न तो कांग्रेस पीछे रही और न ही भारतीय जनता पार्टी। भ्रष्टाचार के आरोप दोनों ने एक-दूसरे पर लगाए। एक-दूसरे की कमीज को ज्यादा स्याह-सफेद बताने को लेकर खूब-खूब तर्क दिए गए। लेकिन इस स्याह-सफेद के बीच बुनियादी मुद्दे पूरे चुनाव में गायब रहे। न तो कांग्रेस ने उन मुद्दों को छुआ और न ही भारतीय जनता पार्टी ने।
पर्यावरण, विस्थापन और पलायन जैसे बुनियादी सवालों पर बात करने से दोनों ही दल बचे, जबकि इस पहाड़ी राज्य में इन मुद्दों पर ही बात होनी चाहिए थी। अलग राज्य बनने के बाद भी सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही राज्य के इन मूल सवालों को अनदेखा किया है जबकि उत्तराखंड राज्य के गठन के पीछे इन सवालों का भी बड़ा हाथ रहा है। लेकिन पर्यावरण असंतुलन को लेकर कई तरह के खतरों से जूझ रहे उत्तराखंड की चिंता किसी दल ने नहीं की। हद तो तब हो गई जब चुनाव प्रचार के दौरान उत्तराखंड में भूकम्प आया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभषण पर इसे लेकर जिस तरह की टिपण्णी की वह हैरान करने वाली रही। रोजगार नहीं मिलने की वजह से विस्थापन और पलायन भी उत्तराखंड के गांवों से हो रहे हैं लेकिन इस पर भी किसी दल ने न तो चिंता जताई और न ही बेरोजगारी दूर कर गांवों को स्मार्ट गांव बनाने का जिक्र तक किया।
उत्तराखंड में गांव के गांव खाली हो रहे हैं। लेकिन सियासी दलों के लिए यह न तो मुद्दा है और न ही इससे निबटने के लिए कोई ठोस उपाय। अलग राज्य बनने के बाद गांवों से पलायन रुकेगा और गांवों की तस्वीर बदलेगी, इसकी उम्मीद लोगों को थी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। हद तो यह है कि एक बार जो गांव से निकला फिर उसने गांव का रुख तक नहीं किया। अलग राज्य बनने के बाद विधानसभा का यह पांचवां चुनाव है और गांवों से पलायन सियासी दलों के एजंडे पर दिखाई तक नहीं दे रहा है। वह भी तब जब इन सोलह-सत्रह सालों में पलायन की रफ्तार लगातार बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो राज्य में कुल गांवों की तादाद लगभग सत्रह हजार है और इनमें से लगभग तीन हजार गांवों में सन्नाटा पसरा है। न तो आदमी है और न आदमजाद। इन गांवों में करीब ढाई लाख घरों पर ताला लटका है। यहां तक कि वोटर सूची में लोगों के नाम तो हैं लेकिन इन गांवों में वोट डालने वाला कोई नहीं है।
लेकिन सिर्फ इसी एक वजह से सवाल नहीं उठ रहे हैं। सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब इन गांवों की बसावट को देखते हैं। खास कर सामरिक दृष्टि जब डालते हैं तब गांव का वीरान पड़ा होना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ज्यादातर वीरान गांव चीन और नेपाल की सीमा से सटे हैं। इस वजह से बाहरी और आंतरिक खतरा दरपेश हो सकता है। लेकिन इन खतरों पर न तो उन्हें चिंता है जो देशभक्ति का राग अलापते हैं और न ही उन दलों को जो छदम देशभक्ति की बात करते हुए सियासत करते हैं। लेकिन उत्तराखंड के करीब तीन हजार खाली और वीरान पड़े गांव सवाल तो खड़े कर ही रहे हैं और इन सवालों से हर दल बच रहा है। इससे ही इन सियासी दलों की नीयत का पता चलता है। अगर नीयत साफ होती तो राज्य निर्माण के सोलह साल बाद पलायन जैसे मुद्दे पर सरकार गंभीर होती और इसे रोकने के उपाय करती। लेकिन न तो कांग्रेस और न ही भाजपा सरकार ने इस गंभीर मुद्दे की गंभीरता को समझा। अगर समझा होता तो इन गावों में मूलभूत सुविधाएं पहुंच गई होतीं और रोजगार के साधन मुहैया करा दिए गए होते। अगर ऐसा होता तो गांव खाली और वीरान नहीं पड़े होते। लेकिन कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने संसाधनों का दोहन किया और उद्योग धंधों के नाम पर बाहरी कंपनियों के हाथों नदियों और पहाड़ों को बेच दिया गया। उन कंपनियों ने न तो पर्यावरण का ध्यान रखा और न ही स्थानीय समस्याओं का। इसका नुकसान उत्तराखंड को ही भुगतना पड़ा।
कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही चुनाव में एक-दूसरे पर लूट खसोट का आरोप लगाया। सच है यह कि इस खेल में दोनों ही दलों की सरकारों ने राज्य के हितों का ध्यान न रख कर अपने हितों का ध्यान ज्यादा रखा। नहीं तो सोलह साल कम नहीं होते हैं किसी भी इलाके के विकास के लिए लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके में बसे दूर-दराज के गांवों की हालत आज भी वैसी ही जैसे सोलह साल पहले थी। अलग उत्तराखंड बनाने की मांग करने वालों ने उत्तराखंड की अस्मिता और पहचान के साथ-साथ पहाड़ी क्षेत्र के विकास का सपना देखा था। इनमें ये गांव भी शामिल थे, जहां लखनऊ से विकास की रोशनी नहीं पहुंच पाई थी। लेकिन इन सोलह सालों में सियासी दलों को तो फायदा हुआ पहाड़ के लोगों को नहीं। सच तो यह है कि सियासतदानों ने विषम भूगोल वाले पहाड़ के गांवों की पीड़ा को समझने की कोशिश तक नहीं की। नतीजा यह निकला कि न तो गांवों तक तालीम की रोशनी पहुंची और न ही रोजगार के साधन मुहैया हुए। दूसरी बुनियादी सुविधाएं भी इन गांवों तक नहीं पहुंचीं।
उत्तराखंड की प्रशासनिक व्यवस्था पर नजर डालें तो राज्य में सरकारी अस्पताल तो खुले लेकिन इनमें चिकित्सकों के आधे से अधिक पद खाली हैं। दवा मिलने की बात तो छोड़ ही दें। तालीमी स्तर भी राज्य का भगवान भरोसे ही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बुनियादी शिक्षा बदहाल है। सरकारी प्राथमिक स्कूलों में 40 फीसद से अधिक बच्चे गुणवत्ता के मामले में औसत से कम हैं। 71 फीसद वन भूभाग होने के कारण पहाड़ में तमाम सड़कें अधर में लटकी हुई हैं। रोजगार के अवसरों को लें तो 2008 में पर्वतीय औद्योगिक प्रोत्साहन नीति बनी, मगर उद्योग पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाए। करीब चार हजार के करीब गांवों को बिजली का इंतजार है। जिन क्षेत्रों में पानी, बिजली की सुविधाएं हैं, वहां भी प्रशासन की उदासीनता की वजह से इनका लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पा रहा है। इन वजहों से पलायन की रफ्तार में इजाफा हुआ है। गांव से पलायन कर लोग शहरों में डेरा जमा रहे हैं. शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है। लेकिन इसकी फिक्र किसी को नहीं है। सत्ता चल रही है और अधिकारी चला रहे हैं।
कभी इन खेतों में लहलहाती थी फसलें। गांवों से दूर के खेत अब बंजर पड़ गये हैं। हर गांव का यही हाल है। चित्र : सुशील पंत |
आंकड़ों पर नजर डालें तो पलायन के कारण अल्मोड़ा और पौड़ी जिलों में आबादी घटी है तो दूसरी तरफ देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, ऊधमसिंहनगर में आबादी में इजाफा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय एकीकृत विकास केंद्र (ईसीमोड) के अध्ययन के मुताबिक कांडा (बागेश्वर), देवाल (चमोली), प्रतापनगर (टिहरी) क्षेत्र के गांवों से पलायन दर काफी बढ़ी है और अब यह लगभग 50 फीसद तक पहुंच गई है। इनमें 42 फीसद ने रोजगार, 26 फीसद ने शिक्षा और 30 फीसद ने मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गांव छोड़ने का फैसला किया। लेकिन ये आंकड़े भी सरकारों को विचलित नहीं कर पाती हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों ने इस पर गंभीरता से कभी विचारा ही नहीं। सरकारें चाहे जिसकी भी रहीं हो पलायन को रोकने के लिए किसी ने कारगर कदम नहीं उठाए। न तो रोजगार के अवसर तलाशने की कोशिश की गई न ही कोई ठोस नीति बनाई गई। चुनाव के समय लुभावने और चमकदार नारे जरूर उछाले गए लेकिन सत्ता पाते ही सारे नारे अगले चुनाव तक के लिए संभाल कर रख दिए जाते रहे।
इस चुनाव में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। इतना ही नहीं इस चुनाव में बांध व दूसरी बड़ी परियोजनाओं, खदान, शराब, बेरोजगारी, पर्यटन और इनकी वजह से हो रहा विस्थापन किसी भी दल के लिए मुद्दा नहीं था, जबकि उत्तराखंड के लिए ये जरूरी सवाल हैं। 2013 की त्रासदी से प्रभावित लोग अभी भी ठीक तरीके से न तो बसाए गए हैं और न ही उन्हें उचित मुआवजा मिला है। लेकिन ये मुद्दे गौण रहे। गंगा जहां से निकली है वहां भी गंगा का संरक्षण ठीक से नहीं हो रहा है। टिहरी बांध से जुड़े मसलों पर भी कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। इस बांध के आसपास रहने वाले लोग रोजाना ही नहीं परेशानियों से दोचार होते रहते हैं लेकिन सियासी दलों को यह परेशानियां नजर नहीं आती हैं. गांवों के घरों में दरार, भूधंसान के साथ-साथ पुनर्वास जैसे मसले तो आम बात हैं। लेकिन इन पर सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। बांध बनाने वाली कंपनियां गाद और गंदगी नदियों में फेंक रही हैं जिससे पर्यावरण संतुलन पर भी असर पड़ा है लेकिन इसकी फिक्र किसी को नहीं है। चुनाव निपट गए, लेकिन मसले जस के तस हैं। इन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाला समय पहाड़ के लोगों पर और भारी पड़ सकता है।