गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

उत्तराखंड में पार्टियों के एजेंडे से गायब रहे पलायन, विस्थापन और पर्यावरण

वरिष्ठ पत्रकार  फ़ज़ल इमाम मल्लिक ने यह लेख विशेष रूप से 'घसेरी' के लिये लिखा है। इसमें उन अनछुये पहलुओं को उजागर किया गया है जो उत्तराखंड के लिये आज बेहद महत्वपूर्ण हैं लेकिन पार्टियों ने उन पर गौर करना उचित नहीं समझा। उम्मीद है कि आपको यह लेख पसंद आएगा। 

पलायन के कारण गांव के गांव वीरान हो गये हैं। मकान खंडहर में बदल गये हैं तो कुछ घरों में वर्षों से लटके ताले खुलने का इंतजार कर रहे हैं। चित्र : धर्मेंद्र पंत 
      त्तराखंड विधानसभा के चुनाव निपट गए. सत्ता बचाने और वापसी के खेल में कांग्रेस और भाजपा उलझी रहीं। नए वादे भी किए गए और नए नारे भी गढ़े गए। दागियों की बातें हुईं, बागियों को लेकर एक-दूसरे पर वार किए गए। विकास के सुनहरे सपने दिखाने में न तो कांग्रेस पीछे रही और न ही भारतीय जनता पार्टी। भ्रष्टाचार के आरोप दोनों ने एक-दूसरे पर लगाए। एक-दूसरे की कमीज को ज्यादा स्याह-सफेद बताने को लेकर खूब-खूब तर्क दिए गए। लेकिन इस स्याह-सफेद के बीच बुनियादी मुद्दे पूरे चुनाव में गायब रहे। न तो कांग्रेस ने उन मुद्दों को छुआ और न ही भारतीय जनता पार्टी ने। 
    पर्यावरण, विस्थापन और पलायन जैसे बुनियादी सवालों पर बात करने से दोनों ही दल बचे, जबकि इस पहाड़ी राज्य में इन मुद्दों पर ही बात होनी चाहिए थी। अलग राज्य बनने के बाद भी सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही राज्य के इन मूल सवालों को अनदेखा किया है जबकि उत्तराखंड राज्य के गठन के पीछे इन सवालों का भी बड़ा हाथ रहा है। लेकिन पर्यावरण असंतुलन को लेकर कई तरह के खतरों से जूझ रहे उत्तराखंड की चिंता किसी दल ने नहीं की। हद तो तब हो गई जब चुनाव प्रचार के दौरान उत्तराखंड में भूकम्प आया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभषण पर इसे लेकर जिस तरह की टिपण्णी की वह हैरान करने वाली रही। रोजगार नहीं मिलने की वजह से विस्थापन और पलायन भी उत्तराखंड के गांवों से हो रहे हैं लेकिन इस पर भी किसी दल ने न तो चिंता जताई और न ही बेरोजगारी दूर कर गांवों को स्मार्ट गांव बनाने का जिक्र तक किया। 
     उत्तराखंड में गांव के गांव खाली हो रहे हैं। लेकिन सियासी दलों के लिए यह न तो मुद्दा है और न ही इससे निबटने के लिए कोई ठोस उपाय। अलग राज्य बनने के बाद गांवों से पलायन रुकेगा और गांवों की तस्वीर बदलेगी, इसकी उम्मीद लोगों को थी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। हद तो यह है कि एक बार जो गांव से निकला फिर उसने गांव का रुख तक नहीं किया। अलग राज्य बनने के बाद विधानसभा का यह पांचवां चुनाव है और गांवों से पलायन सियासी दलों के एजंडे पर दिखाई तक नहीं दे रहा है। वह भी तब जब इन सोलह-सत्रह सालों में पलायन की रफ्तार लगातार बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों की बात करें तो राज्य में कुल गांवों की तादाद लगभग सत्रह हजार है और इनमें से लगभग तीन हजार गांवों में सन्नाटा पसरा है। न तो आदमी है और न आदमजाद। इन गांवों में करीब ढाई लाख घरों पर ताला लटका है। यहां तक कि वोटर सूची में लोगों के नाम तो हैं लेकिन इन गांवों में वोट डालने वाला कोई नहीं है। 
    लेकिन सिर्फ इसी एक वजह से सवाल नहीं उठ रहे हैं। सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब इन गांवों की बसावट को देखते हैं। खास कर सामरिक दृष्टि जब डालते हैं तब गांव का वीरान पड़ा होना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। ज्यादातर वीरान गांव चीन और नेपाल की सीमा से सटे हैं। इस वजह से बाहरी और आंतरिक खतरा दरपेश हो सकता है। लेकिन इन खतरों पर न तो उन्हें चिंता है जो देशभक्ति का राग अलापते हैं और न ही उन दलों को जो छदम देशभक्ति की बात करते हुए सियासत करते हैं। लेकिन उत्तराखंड के करीब तीन हजार खाली और वीरान पड़े गांव सवाल तो खड़े कर ही रहे हैं और इन सवालों से हर दल बच रहा है। इससे ही इन सियासी दलों की नीयत का पता चलता है। अगर नीयत साफ होती तो राज्य निर्माण के सोलह साल बाद पलायन जैसे मुद्दे पर सरकार गंभीर होती और इसे रोकने के उपाय करती। लेकिन न तो कांग्रेस और न ही भाजपा सरकार ने इस गंभीर मुद्दे की गंभीरता को समझा। अगर समझा होता तो इन गावों में मूलभूत सुविधाएं पहुंच गई होतीं और रोजगार के साधन मुहैया करा दिए गए होते। अगर ऐसा होता तो गांव खाली और वीरान नहीं पड़े होते। लेकिन कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने संसाधनों का दोहन किया और उद्योग धंधों के नाम पर बाहरी कंपनियों के हाथों नदियों और पहाड़ों को बेच दिया गया। उन कंपनियों ने न तो पर्यावरण का ध्यान रखा और न ही स्थानीय समस्याओं का। इसका नुकसान उत्तराखंड को ही भुगतना पड़ा। 
         कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही चुनाव में एक-दूसरे पर लूट खसोट का आरोप लगाया। सच है यह कि इस खेल में दोनों ही दलों की सरकारों ने राज्य के हितों का ध्यान न रख कर अपने हितों का ध्यान ज्यादा रखा। नहीं तो सोलह साल कम नहीं होते हैं किसी भी इलाके के विकास के लिए लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके में बसे दूर-दराज के गांवों की हालत आज भी वैसी ही जैसे सोलह साल पहले थी। अलग उत्तराखंड बनाने की मांग करने वालों ने उत्तराखंड की अस्मिता और पहचान के साथ-साथ पहाड़ी क्षेत्र के विकास का सपना देखा था। इनमें ये गांव भी शामिल थे, जहां लखनऊ से विकास की रोशनी नहीं पहुंच पाई थी। लेकिन इन सोलह सालों में सियासी दलों को तो फायदा हुआ पहाड़ के लोगों को नहीं। सच तो यह है कि सियासतदानों ने विषम भूगोल वाले पहाड़ के गांवों की पीड़ा को समझने की कोशिश तक नहीं की। नतीजा यह निकला कि न तो गांवों तक तालीम की रोशनी पहुंची और न ही रोजगार के साधन मुहैया हुए। दूसरी बुनियादी सुविधाएं भी इन गांवों तक नहीं पहुंचीं। 
    त्तराखंड की प्रशासनिक व्यवस्था पर नजर डालें तो राज्य में सरकारी अस्पताल तो खुले लेकिन इनमें चिकित्सकों के आधे से अधिक पद खाली हैं। दवा मिलने की बात तो छोड़ ही दें। तालीमी स्तर भी राज्य का भगवान भरोसे ही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बुनियादी शिक्षा बदहाल है। सरकारी प्राथमिक स्कूलों में 40 फीसद से अधिक बच्चे गुणवत्ता के मामले में औसत से कम हैं। 71 फीसद वन भूभाग होने के कारण पहाड़ में तमाम सड़कें अधर में लटकी हुई हैं। रोजगार के अवसरों को लें तो 2008 में पर्वतीय औद्योगिक प्रोत्साहन नीति बनी, मगर उद्योग पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाए। करीब चार हजार के करीब गांवों को बिजली का इंतजार है। जिन क्षेत्रों में पानी, बिजली की सुविधाएं हैं, वहां भी प्रशासन की उदासीनता की वजह से इनका लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पा रहा है। इन वजहों से पलायन की रफ्तार में इजाफा हुआ है। गांव से पलायन कर लोग शहरों में डेरा जमा रहे हैं. शहरों पर आबादी का बोझ बढ़ रहा है। लेकिन इसकी फिक्र किसी को नहीं है। सत्ता चल रही है और अधिकारी चला रहे हैं।

कभी इन खेतों में लहलहाती थी फसलें। गांवों से दूर के खेत अब बंजर पड़ गये हैं। हर गांव का यही हाल है। चित्र : सुशील पंत  

     आंकड़ों पर नजर डालें तो पलायन के कारण अल्मोड़ा और पौड़ी जिलों में आबादी घटी है तो दूसरी तरफ देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल, ऊधमसिंहनगर में आबादी में इजाफा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय एकीकृत विकास केंद्र (ईसीमोड) के अध्ययन के मुताबिक कांडा (बागेश्वर), देवाल (चमोली), प्रतापनगर (टिहरी) क्षेत्र के गांवों से पलायन दर काफी बढ़ी है और अब यह लगभग 50 फीसद तक पहुंच गई है। इनमें 42 फीसद ने रोजगार, 26 फीसद ने शिक्षा और 30 फीसद ने मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गांव छोड़ने का फैसला किया। लेकिन ये आंकड़े भी सरकारों को विचलित नहीं कर पाती हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों ने इस पर गंभीरता से कभी विचारा ही नहीं। सरकारें चाहे जिसकी भी रहीं हो पलायन को रोकने के लिए किसी ने कारगर कदम नहीं उठाए। न तो रोजगार के अवसर तलाशने की कोशिश की गई न ही कोई ठोस नीति बनाई गई। चुनाव के समय लुभावने और चमकदार नारे जरूर उछाले गए लेकिन सत्ता पाते ही सारे नारे अगले चुनाव तक के लिए संभाल कर रख दिए जाते रहे। 
      इस चुनाव में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। इतना ही नहीं इस चुनाव में बांध व दूसरी बड़ी परियोजनाओं, खदान, शराब, बेरोजगारी, पर्यटन और इनकी वजह से हो रहा विस्थापन किसी भी दल के लिए मुद्दा नहीं था, जबकि उत्तराखंड के लिए ये जरूरी सवाल हैं। 2013 की त्रासदी से प्रभावित लोग अभी भी ठीक तरीके से न तो बसाए गए हैं और न ही उन्हें उचित मुआवजा मिला है। लेकिन ये मुद्दे गौण रहे। गंगा जहां से निकली है वहां भी गंगा का संरक्षण ठीक से नहीं हो रहा है। टिहरी बांध से जुड़े मसलों पर भी कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। इस बांध के आसपास रहने वाले लोग रोजाना ही नहीं परेशानियों से दोचार होते रहते हैं लेकिन सियासी दलों को यह परेशानियां नजर नहीं आती हैं. गांवों के घरों में दरार, भूधंसान के साथ-साथ पुनर्वास जैसे मसले तो आम बात हैं। लेकिन इन पर सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। बांध बनाने वाली कंपनियां गाद और गंदगी नदियों में फेंक रही हैं जिससे पर्यावरण संतुलन पर भी असर पड़ा है लेकिन इसकी फिक्र किसी को नहीं है। चुनाव निपट गए, लेकिन मसले जस के तस हैं। इन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाला समय पहाड़ के लोगों पर और भारी पड़ सकता है। 

शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

शैव पीठ एकेश्वर में 'खड़रात्रि' से पड़ी थी कौथीग की नींव

जय एकेश्वर महादेव : स्थानीय लोगों की प्रयासों से मंदिर को नया स्वरूप मिला है। फोटो सौजन्य ... रविकांत 

     बैसाख, यानि भारतीय काल गणना के अनुसार वर्ष का दूसरा महीना। भारतीय काल गणना के सभी 12 महीनों में बैसाख को सबसे पवित्र माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार नारद ने राजा अम्बरीष से कहा कि ब्रह्माजी ने बैसाख मास को सभी महीनों में उत्तम बताया है। कहते हैं कि यह भगवान विष्णु का भी प्रिय मास है। इसका संबंध देव अवतारों और धार्मिक परंपराओं से है। बैसाख में ही विभिन्न देव मंदिरों के पट खुलते हैं और विभिन्न स्थलों पर विशेष महोत्सवों का आयोजन किया जाता है। उत्तराखंड में बैसाख के महीने ऐसे कई महोत्सवों या मेलों का आयोजन किया जाता है जिन्हें स्थानीय भाषा में थौळ या कौथीग कहा जाता है। गढ़वाल मंडल में बैसाख के महीने में कई स्थानों पर अलग अलग तिथियों को इस तरह के कौथीग का आयोजन होता है। ऐसा ही एक मेला है 'इगासर कौथीग' या एकेश्वर का मेला। आज 'घसेरी' आपका परिचय एकेश्वर से कराएगी। आज इगासर का कौथीग है तो इस पावन दिन पर मेरे साथ कौथीग का आनंद लीजिए। 
      इगासर कौथीग हर साल दो गते बैसाख को होता है। इसका अपना धार्मिक महत्व है। एकेश्वर में शैव पीठ है और यहां पर भगवान शिव का मंदिर है। माना जाता है कि शैवपीठ के कारण ही इस जगह का नाम एकेश्वर पड़ा। केदार क्षेत्र के अंतर्गत पांच शैव पीठ आते हैं और इनमें एकेश्वर भी शामिल है। अन्य शैव पीठ ताड़केश्वर महादेव, बिन्देश्वर महादेव, क्यूंकालेश्वर महादेव और किल्किलेश्वर महादेव हैं। एकेश्वर के शिव मंदिर में वर्षों पहले से पति पत्नी संतान की प्राप्ति के लिये 'खड़रात्रि' करते रहे हैं। उत्तराखंड के कई मंदिरों में खड़रात्रि की जाती है। खड़रात्रि में संतान प्राप्ति के लिये महिलाएं अपने पति के साथ रात भर हाथ में दीपक जलाकर खड़ी रहती हैं और इस बीच भगवान शिव की स्तुति करती हैं। एकेश्वर महादेव में हर साल बैसाख दो गते को खड़रात्रि होती है। इस दिन यहां श्रद्धालु पूजा अर्चना के लिये आते हैं। धीरे धीरे इसने मेले का रूप ले लिया है और फिर बैशाख दो गते को एकेश्वर में मेला लगने लगा। एकेश्वर को गढ़वाली भाषा में इगासर कहते हैं और इसलिए इस मेले को 'इगासर कु कौथीग' कहा जाता है। चौंदकोट ही नहीं पौड़ी गढ़वाल में इस मेले से कौथीग की शुरूआत होती है। कौथीग के दिन लोग खेतों में उगाये गये पहले अनाज को भी भगवान शिव का अर्पण करते हैं। शिवरात्रि के दिन भी यहां शिवलिंग में दूध, गंगाजल और बेलपत्री चढ़ाने के लिये भक्तों की भीड़ लगी रहती है।भक्तजन समय समय पर एकेश्वर महादेव में भंडारे का आयोजन भी करते हैं। 

एकेश्वर महादेव मंदिर के पास स्थि​त वैष्णवी दरबार में लेखक परिवार के साथ। 
     एकेश्वर का आज से नहीं बल्कि हजारों वर्षों से धार्मिक महत्व रहा है। कुछ पौराणिक संदर्भों में कहा गया है कि यहां पर पांडवों ने भगवान शिव की तपस्या की थी। जहां तक मंदिर का सवाल है तो कहा जाता है कि उसकी स्थापना संवत 810 के आसपास आदि गुरू शंकराचार्य ने की थी। यहां कई प्राचीन मूर्तियां हैं जिससे लगता है कि इस मंदिर की स्थापना सैकड़ों वर्ष पहले की गयी थी। मंदिर का कई बार पुननिर्माण हुआ। पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय लोगों की मदद से इसे नया और भव्य रूप दिया गया इसलिए अब यह वर्तमान समय के मंदिरों जैसा ही लगता है। एकेश्वर के मुख्य मंदिर के अलावा यहां पर मां वैष्णवी दरबार, वैष्णवी देवी गुफा और भैरव मंदिर भी है। कहा जाता है कि भैरव मंदिर के अंदर से लेकर बद्रीनाथ मंदिर तक सुरंग थी जो कि वर्षों पहले बंद कर दी गयी।

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     एकेश्वर महादेव कई वर्ष पहले मोटर मार्ग से जुड़ गया था। कोटद्वार या पौड़ी के रास्ते यहां पहुंचा जा सकता है। सतपुली से एकेश्वर के लिये बस या टैक्सी नियमित रूप से जाती रहती हैं। पौड़ी के रास्ते सतपुली होते हुए या फिर ज्वाल्पा से जणदादेवी होते हुए पहुंचा जा सकता है। इसके अलावा बौंसाल और ज्वाल्पा के बीच से भी दो नये मोटरमार्ग बन गये हैं जो एकेश्वर तक जाते हैं। एकेश्वर में पहुंचने पर सड़क से ही मंदिर का सीढ़ीनुमा रास्ता है। मंदिर के पास ही बांज और चीड़ का जंगल तथा शीतल जल का झरना है। 
     कौथीग मंदिर के ऊपर स्थित बाजार में लगता है। एक जमाने में यहां मंदिर तक पूरी सड़क पर दुकानें सजी होती थी। मेरा गांव स्योली है जो एकेश्वर से लगभग आठ दस किमी की दूरी पर स्थित है, लेकिन मैं केवल एक बार इगासर कौथीग गया था। उस समय वहां बहुत भीड़ होती थी और लोग बाजार के ऊपर स्थित जंगल में भी बैठे रहते थे। तरह तरह की दुकानें सजी रहती थी। सच कहूं तो उस समय कुछ उपद्रवी तत्वों से डर भी लगता था। घर वाले इगासर कौथीग जाने के लिये इसलिए मना करते थे क्योंकि वहां लगभग हर साल किन्हीं भी दो गुटों या गांवों के बीच झगड़ा हो जाता था। अब मुझे बताया गया है कि ऐसा नहीं है। कौथीग में ज्यादा भीड़ नहीं होती और दुकानें भी कम सजती हैं। एकेश्वर महादेव के दर्शन करने के लिये आसपास के गांवों के लोग जरूर जाते हैं। तो फिर देर किस बात की। आप भी जाइए न इगासर कौथीग। मुझे पूरा विश्वास है कि एकेश्वर महादेव के दर्शन करके आपको अच्छा लगेगा। तो बटोर लाइये एकेश्वर से कुछ यादें और मेरे साथ इस ब्लॉग पर शेयर करिये। मुझे इंतजार रहेगा। बोलिये जय एकेश्वर महादेव। आपका अपना धर्मेन्द्र पंत


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शनिवार, 8 अप्रैल 2017

चुटकी में हुआ था एडमिशन और स्कूल में खाते थे बेंत

गांव का मेरा स्कूल। हमारे समय में इसके आसपास की जमीन बंजर थी लेकिन अब वनीकरण से जंगल उग आया है। कभी यह मिट्टी पत्थरों का बना था जिसमें बरसात में अक्सर पानी टपकता रहता था। अब उसकी जगह पक्की इमारत बना दी गयी है। 

     पिछले दिनों दिल्ली में एडमिशन को लेकर जबर्दस्त मारामारी रही। मैं किसी बड़ी कक्षा नहीं, नर्सरी, केजी कक्षाओं की बात कर रहा हूं। प्रत्येक माता पिता ने अपने बच्चे के लिये कई स्कूलों के फार्म भरे। जो भाग्यशाली थे उनका नंबर आ गया। अनायास ही खयाल आया कि स्कूल में मेरा एडमिशन कैसे हुआ होगा?  वह 1975 का साल था, क्योंकि तब मैं पांच साल का हो गया था। पिताजी सजग थे इसलिए वह स्वयं ही गांव के स्कूल यानि आधारिक विद्यालय स्योली में मेरा एडमिशन करवाने के लिये लेकर गये थे। गांव में प्रधान थे, मितभाषी थे और अपने जमाने के हाईस्कूल पास थे। सभी उनकी काफी इज्जत करते थे। मास्टर जी भी। इसलिए गुरूजी ने उनके लिये कुर्सी लगवायी और तब उन्होंने मेरा पूरा नाम लिखवाया, धर्मेन्द्र मोहन पंत। जन्मतिथि भी ज्यों की त्यों 31 मार्च 1970 क्योंकि उन्हें जन्मतिथि में घटत बढ़त पसंद नहीं थी। इसलिए हम सभी भाई बहनों (चचेरे भाई बहनों सहित) की जन्मतिथि वास्तविक है। मुझे 'कच्चा एक' में रखा गया था पढ़ने लिखने में ठीक ठाक था इसलिए कुछ महीनों बाद 'पक्का एक' में रख दिया गया था। नर्सरी, केजी जैसा भी कुछ होता है यह तो मुझे दिल्ली आने के बाद पता चला था। 
     यह तो रही मेरे एडमिशन की कहानी। मेरी पत्नी के एडमिशन की कहानी इसके ठीक उलट है। गांव के स्कूल में अध्यापिका उन्हीं के गांव की थी, इसलिए सब कुछ उन पर छोड़ दिया गया। घर का नाम शिक्षिका महोदया को याद था लेकिन शायद वह उन्हें अधूरा सा लगा। यही वजह थी कि उन्होंने अंजू के साथ लता जोड़कर नाम कर दिया अंजू लता। अब बात आयी जन्मतिथि की जिसे उन्होंने घर में पूछ लिया था, लेकिन रजिस्टर में लिखते समय उन्हें केवल तारीख याद रही। महीना और वर्ष दोनों भूल गयी। महिलाएं अपनी उम्र कम करके बताती हैं। इसमें कुछ कुछ सच्चाई भी है लेकिन अंजूलता जी एडमिशन के समय लगभग दो साल बड़ी हो गयी थी। गांव की मास्टरनी जी ने 14 दिसंबर 1973 को 14 फरवरी 1972 कर दिया था। जब तक 'महिलाओं की उम्र संबंधी कमजोरी' का असर अंजूलता जी पर दिखता तब तक वह दसवीं पास कर चुकी थी। ​शादी के बाद अपने नाम के साथ उग आयी लता को तो उन्होंने उखाड़ फेंक दिया लेकिन महारानी का जन्मदिन अब भी साल में दो बार आ जाता है। शुक्र है कि उन्हें 14 दिसंबर ही याद रहता है नहीं तो पत्नी के दो . दो जन्मदिन पर अपुन का तो दीवाला निकलना पक्का था। 
        ये दोनों ही सच्ची कहानियां हैं और इनका जिक्र मैंने यहां पर इसलिए किया क्योंकि हमारी तरह गांवों में रहने वाले कई बच्चों का एडमिशन इस तरह से हुआ होगा। कुछ का नाम बदला होगा तो कुछ की जन्मतिथि। तब नाम और जन्मतिथि दोनों के लिये प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं पड़ती थी। कुछ लोग दसवीं का फार्म भरते समय नाम और जन्मतिथि में सुधार कर देते हैं क्योंकि उसे प्रमाणिक माना गया है। हर किसी के स्कूल में प्रवेश लेने की अपनी अलग कहानी होगी। आप चाहो तो इसे यहां साझा यानि ​शेयर कर सकते हो। इसके लिये नीचे एक टिप्पणी वाला कालम बनाया गया है। बहरहाल आज एडमिशन के बहाने मेरी इच्छा अपने स्कूली दिनों को याद करने की है। स्कूलों के संबंध में 70 और 80 के दशक के हम पहाड़ी विद्यार्थियों की यादें लगभग एक जैसी हैं और इसलिए उम्मीद कर रहा हूं कि आपको इसमें कुछ अपनापन लगेगा। 
       मेरा स्कूल था तो मेरे गांव का ही लेकिन वह गांव से लगभग तीन किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर स्थित था। उबड़ खाबड़ रास्ता जिसके बीच में एक गदना (पहाड़ों में बहने वाली छोटी नदी) भी पड़ता था। बरसात के दिनों में उसे पार करना हमारे लिये हमेशा चुनौती होती थी। गदना पार करते ही खड़ी पहाड़ी लगती थी जिसे हम उछलते कूदते पार कर लेते थे। हमें शुरू से ही गुरूजनों को सम्मान देना सिखाया गया था और इसलिए उनका नाम तक जुबान पर नहीं लाते थे। उस कुर्सी पर मैं कभी नहीं बैठा जिस पर गुरूजी बैठते थे। हमारे लिये तो चटाईयां हुआ करती थी जो मिट्टी से बने कमरों में धूल से सनी रहती थी। स्कूल से छुट्टी के समय इन चटाईयों को बाहर मैदान में ले जाकर दो बच्चे दोनों तरफ से पकड़कर जोर जोर से झाड़ते थे तो धूल का बड़ा सा गुबार निकलता था जिससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे जांघिये या पैंट के पीछे वाले हिस्से की क्या स्थिति रहती होगी। आज बच्चे हर दिन नयी ड्रेस पहनकर स्कूल जाते हैं लेकिन हम एक पोशाक को हफ्ते दस दिन तक तो खींच ही लेते थे। मुझे याद है कि स्कूल की पोशाक हुआ करती थी खाकी पैंट या जांघिया और नीली कमीज। मां उसे इतवार के दिन धोती थी। 
        पिछले दो दशकों में पहाड़ी गांव पलायन से जूझ रहे हैं। गांव खाली हो गये और स्कूल भी। लेकिन जब हम पढ़ा करते थे तो गांव भी भरा था और स्कूल भी। हमारा गांव बड़ा है और फिर खरल और दणखंड के बच्चे भी हमारी स्कूल में ही पढ़ने के लिये आते थे। प्रार्थना के समय प्रत्येक कक्षा की अलग पंक्ति होती थी और एक पंक्ति में 12 से 15 बच्चे तो होते ही थे। आज सुना है कि गांवों के स्कूलों में कुल जमा दस बच्चे नहीं होते हैं। स्कूल का एक मानीटर होता था। पांचवीं के बच्चे को स्कूल का मानीटर बना दिया जाता था। गुरूजी के आने तक स्कूल में अनुशासन बनाये रखने का जिम्मा उसी का होता था। पांचवीं में यह जिम्मेदारी मैंने भी निभायी थी। हमारी स्कूल में दो शिक्षक थे और अपनी सुविधा के लिये हमने ही उनकी उम्र के हिसाब से उन्हें नाम दे दिया था, 'बड़ा गुरूजी' और 'छोटा गुरूजी'। बड़े गुरूजी कड़क थे, अनुशासन प्रिय थे और पढ़ाई में ढिलायी उन्हें कतई पसंद नहीं थी। इसलिए हर बच्चा दुआ करता था कि वह छुट्टी पर रहें। छोटे गुरूजी थोड़ा खेलकूद में भी विश्वास रखते थे इसलिए बच्चों को उनके साथ ज्यादा मजा आता था। 
     स्कूल दूर था इसलिए गुरूजी के चाय पानी की व्यवस्था भी बच्चों को ही करनी पड़ती थी। सभी के लिये निर्देश था कि वह अपने साथ एक लकड़ी लेकर जरूर आये। प्रार्थना के समय मानीटर जांच करता कि कौन लकड़ी लेकर आया है और कौन नहीं। जो नहीं लेकर आता उसे वह गुरूजी से सजा दिलवाता। पानी भी दूर से लाना पड़ता था। दो बच्चे एक लट्ठे के बीच में बाल्टी लटकाकर पानी भर लाते थे। इसके लिये बारी लगी हुई थी। दूध के लिये भी बारी लगती थी और हर शाम को बारी के अनुसार किसी एक बच्चे को दूध की बोतल सौंप दी जाती थी। दूध चाय बनाने के लिये। चाय पत्ती और चीनी की व्यवस्था गुरूजन खुद ही करते थे। चाय बनाने का जिम्मा लड़कियों का होता था। तब 12 — 13 साल की लड़की भी पांचवीं में पढ़ती थी और वे चूल्हे चौके में निपुण होती थी। मेरे साथ दो लड़कियां पढ़ती थी। पांचवीं के बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दी और फिर कुछ साल बाद उनकी शादी भी हो गयी। अब वे नानी . दादी बन गयी होंगी। 
      बड़े गुरूजी स्कूल के पास में स्थित दूसरी पहाड़ी के रास्ते से आते थे। सब की नजर उस पहाड़ी पर होती थी और जैसे ही उनका सिर दिखता सारे बच्चे चौंकन्ने हो जाते थे। डर कहो या सम्मान लेकिन सभी बच्चों का व्यवहार एकदम से ऐसे बदलता था कि मानो गुरूजी के पास कोई दिव्य दृष्टि है जिससे वह यहां हमारी हरकतें देख लेंगे। बड़े गुरूजी दूसरे गांव से आते थे और अक्सर छोटे गुरूजी से पहले स्कूल में पहुंच जाते थे। इस बीच खुद को पढाई में तल्लीन दिखाने के लिये सामूहिक कविता पाठ भी शुरू हो जाता। सामूहिक कविता पाठ मतलब एक स्वर में सभी का किसी एक ​कविता को पढ़ना। मिट्टी और पत्थरों से बने मेरे स्कूल में एक बरामदा और दो कमरे थे जिनमें से एक कमरा बरसात में अक्सर टपकता रहता था। पांचवीं के बच्चे बरामदे में बैठते थे। एक कमरे में पहली और दूसरी तो दूसरे में तीसरी और चौथी के बच्चे बैठते थे। अब ऐसे में एक पंक्ति से आवाज उठ रही है, ''काली काली कूं कूं करती ..... '' तो दूसरी पंक्ति से स्वर गूंजता, ''यदि होता मैं किन्नर नरेश में .....''। हर कविता की अपनी लय होती थी और ऐसे में इस ​मधुर, मनमोहक माहौल का अंदाजा आप खुद ही लगा लीजिए। पांचवी कक्षा में परशुराम . लक्ष्मण संवाद था जिसे रामलीला के दिनों में बच्चे बड़े चाव से पढ़ते थे। गणित में पहले पहाड़े याद किये और बाद में चक्रवृद्धि ब्याज से लेकर​ भिन्न तक में अपनी बुद्धि खपायी। गणित पर गुरूजी का खास जोर होता था। पांचवीं तक अंग्रेजी नहीं होती थी। इस भाषा से मेरा पाला पहली बार छठी कक्षा में पड़ा था।


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      गुरूजी के स्कूल परिसर में प्रवेश करते ही सभी बच्चे हाथ जोड़कर खड़े हो जाते और गुरूजी के पास पहुंचते ही सभी के मुंह से निकलता 'गुरूजी प्रणाम।' गुरूजी जब तक बैठने के लिये नहीं कहते तब तक उसी मुद्रा में रहते। इसके बाद हाजिरी लगती थी। अपना नाम सुनते ही बच्चा जोर से एक रटा रटाया शब्द बोलता था, 'उपस्थित महोदय।' अगर आपको बीच में पेशाब लग गयी हो तो 'श्रीमान जी क्या मैं लघुशंका जा सकता हूं' बोलते थे। कई अवसरों पर चार पांच बार बोलने पर ही गुरूजी के कान तक आग्रह पहुंच पाता था और अनुमति मिलते ही हम स्कूल परिसर के बाहर निवृत होकर आ जाते थे। हाफटाइम के समय हम घर से लायी रोटी का सेवन करते। वह भी अपने कमरों में नहीं बल्कि स्कूल परिसर में स्थित खेतों में बैठकर। रोटी के साथ सब्जी या फिर किसी खास चीज का लूण होता था जैसे लया का लूण (सरसों को गरम करके उसे नमक के साथ पीसकर तैयार किया जाता है) आदि। 
         जवाब गलत देने या कोई शरारत करने पर मार पड़ती। गुरूजी के आगे हाथ करने पर सटाक से बेंत पड़ती  थी। हाथ लाल हो जाता लेकिन मजाल क्या कि कोई घर में बता दे। असल में पहाड़ों की अ​र्थव्यवस्था मनीआर्डर पर आधारित रही है। कम से कम से नब्बे के दशक तक तो स्थिति ऐसी ही थी। अधिकतर के पिताजी सेना, दिल्ली, देहरादून या इसी तरह के किसी शहर में काम करते थे और मां को चूल्हा चौका, गाय बछड़ों और खेती से इतनी फुरसत ही कहां मिलती कि वह अपने लाल के लाल हाथों को देख सके। इसके अलावा कोई अगर घर में कहता तो उल्टे मार पड़ती कि जरूर तूने कोई गलत काम किया होगा तभी मार पड़ी। मैं अपना काम समय पर करता था। पढ़ाई में अच्छा था और शरारतें नहीं करता था ​इसलिए मुझे मार कम पड़ी लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिनका 'बेंत खाना' दिनचर्या में शामिल था। लड़कियों को मार नहीं पड़ती थी। 
           गर्मियों में सुबह आठ बजे से स्कूल लगता था तो सर्दियों में दस बजे से। जनवरी के पूरे महीने छुट्टी रहती थी और इसलिए हम बेसब्री से इस महीने का इंतजार करते थे। तब हमारा काम खेलने के अलावा कुछ नहीं होता था। बाकी महीनों में हमेशा स्कूल में उपस्थित रहते थे। स्कूल की छुट्टी कब होनी है इसके लिये कोई समय तय नहीं था। गुरूजी का मन किया तो वह समय से पहले स्कूल छोड़ दें या फिर 15 . 20 मिनट और बिठाकर रख दें। छुट्टी का समय करीब आने पर सभी की निगाह गुरूजी पर टिक जाती कि कब वह बच्चों को अपनी चटाई झाड़कर लाने और फिर मानीटर को घंटी बजाने का आदेश दें। फिर तो हम उतराई . चढ़ाई वाले रास्ते पर दौड़ लगाते। घर में जाते ही बस्ता या पाटि (लिखने के लिये लकड़ी की तख्ती) एक तरफ पटककर भरपेट भोजन करते और फिर गांव के बच्चों के साथ खेल में मशगूल हो जाते। 
      आधारिक विद्यालय स्योली से पांचवीं पास करने के बाद मैं छह से 12 तक राजकीय इंटर कालेज नौगांवखाल का छात्र रहा। राजकीय महाविद्यालय चौबट्टाखाल से स्नातक करने के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से ही राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर किया। इस बीच भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री भी ली जिसके दम पर आज मेरी आजीविका चल रही है। लेकिन सच कहूं तो सबसे अधिक गुदगुदाने वाली यादें प्राइमरी स्कूल से ही जुड़ी हैं। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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