पूरे भारत वर्ष में सूर्य के मकर रेखा पर प्रवेश के दिन मकर संक्रांति धूमधाम के साथ मनायी जाती है। उत्तराखंड में इस दिन कई स्थानों पर उत्तरायणी और घुघुतिया त्योहार मनाया जाता है। गिंदी मेला भी इसी दिन लगता है। उत्तरायणी के दिन यहां कई स्थानों पर नदियों के पास में मेले लगते हैं। स्थानीय भाषा में इन्हें 'मकरैणी कौथीग' कहा जाता है। इस वजह से उत्तराखंड में इसे उतरैणी—मकरैणी त्योहार के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड में तीर्थराज बागेश्वर में लगने वाला उतरैणी मेले का विशेष महत्व है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव के एक गण चंडीस ने शिव और पार्वती के लिये इसकी स्थापना की। इसको दूसरा काशी भी माना जाता है। यहां पर चंद राजाओं के समय से ही माघ मेले का आयोजन होता रहा है।
इसी तरह से उत्तरकाशी का माघ मेला भी प्रसिद्ध है जो सात दिन तक चलता है। हर साल इस मेले का शुभारंभ पाटा संग्राली गांवों से कंडार देवता और अन्य देवी देवताओं की डोलियां उत्तरकाशी पहुंचने पर होता है। मकर संक्रांति के दिन सभी डोलियों को मणिकर्णिका घाट पर विसर्जित किया जाता है और तब यह बड़ा मेला लगता है।
कुमांऊ में मनाया जाता है घुघुतिया
कुमांऊ में मकरसंक्रांति के दिन घुघुतिया त्योहार मनाया जाता है। इसे पुष्यूडिया पूजन भी कहते हैं। बागेश्वर में हालांकि इसका चलन नहीं है। घुघुतिया त्योहार के दिन आटे के घुघुत बनाकर उन्हें तेल में तलकर तैयार किया जाता और फिर मकरसंक्रांति के दिन इन्हें कौवे को खिलाया जाता है। बच्चे गले में घुघुत की माला पहनते हैं और फिर कौवे को आवाज लगाते हैं। इस त्योहार के प्रचलन को लेकर एक कहानी है। कहा जाता है कि यहां के राजा का एक मंत्री था जिसका नाम घुघुतिया था। उसने राजा को मारकर खुद सिंहासन पर बैठने का षडयंत्र रचा। एक कौवे को उसके षडयंत्र का पता चल गया और उसने राजा को इस बारे में जानकारी दे दी। राजा ने अपने इस धूर्त मंत्री घुघुतिया को मृत्युदंड दिया और राज्य के लोगों से मकर संक्रांति के दिन कौवे को पकवान खिलाने का आदेश दिया।
इस पकवान को मंत्री के नाम पर घुघुत नाम दिया गया। एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमांऊ में चंद वंश के राजा कल्याण चंद को भगवान बागनाथ की तपस्या करने के बाद पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने निर्भय चंद रखा। रानी उसे प्यार से घुघुतिया कहती थी। राजा के मंत्री ने हालांकि षडयंत्र करके घुघुतिया को उठा दिया। इस बीच एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला लेकर राजमहल में छोड़ दी। इससे राजकुमार का सुराग मिला। रानी ने कौए को कई तरह के पकवान खाने के लिये दिये। तभी से घुघुतिया त्योहार प्रचलन में आया।
गिंदी मेला : रग्बी का पुराना रूप
गढ़वाल में मकर संक्रांति को खिचड़ी संक्रांति भी कहते हैं और इस दिन खिचड़ी बनाकर खाने का चलन है। मकरसंक्रांति के अवसर पर ही उत्तराखंड में गढ़वाल के कुछ हिस्सों विशेषकर मनियारस्यूं, कटघर, थलनदी, डाडामंडी आदि क्षेत्रों में गिंदी मेला का आयोजन किया जाता है जो वीरता, दृढता, इच्छाशिक्त और प्रतिस्पर्धा से जुड़ा है। विभिन्न गांवों के लोग एक स्थान पर एकत्रित होकर गिंदी मेला का आयोजन करते हैं। गिंदी मतलब गेंद। यह खेल में दो गांवों या पट्टियों के बीच खेला जाता है। गिंदी के खेल को रग्बी का करीबी माना जा सकता है क्योंकि इसमें भी गेंद को पकड़ने के लिये कई व्यक्ति एक साथ उस पर झपटते हैं। आखिर जो भी पहले गेंद को नियत स्थान तक ले जाता है उसे विजेता घोषित कर दिया जाता है। पहले गेंद चमड़े की बनायी जाती थी जिस पर कंगन भी लगे होते थे। इस अवसर पर देवी देवताओं का भी पूजन होता है। ढोल दमाऊ की थाप पर पांडव नृत्य की भी धूम रहती है।
उत्तरकाशी और देहरादून जिलों के जौनसार, रवांई और जौनपुरा क्षेत्रों में माघ के महीने में ही मरोज त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार में सामूहिक दावत होती तथा स्थानीय लोकगीतों और लोकनृत्यों की धूम रहती है। इस अवसर पर मेहमानों को मांसाहारी भोजन परोसा जाता है। इसके तीसरे दिन मकरसंक्रांति मनायी जाती है।
घसेरी के सभी पाठकों को मकरैणी, उत्तरायणी और घुघुतिया त्योहार की हार्दिक शुभकामनाएं। आपका धर्मेंद्र पंत
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