गोठ। फोटो सौजन्य : नीलांबर नीलू पंत |
बात 1984 की है। दसवीं कक्षा में प्रवेश किया था मतलब अगले साल बोर्ड की परीक्षा देनी थी। इससे छह महीने पहले हालांकि मुझे एक और परीक्षा से गुजरना पड़ा था। उम्र 14 साल, छह महीने लेकिन मैंने गोठ या गोट लगाने का फैसला किया था। वीरू (चचेरा भाई वीरेंद्र) का साथ था। गांव के दो लड़के शार्गिद बन गये। पिताजी मुझसे सहमत नहीं थे लेकिन सर्दियां शुरू होने पर गांव में अपने दूर के खेतों तक मोल़ (गोबर) मुझे पहुंचाना पड़ता। दीदी की उसी साल शादी हो गयी थी और उसके साथ रहते हुए मोल़ ढोलने (बोरी में भरकर गोबर खेतों तक पहुंचाना) या अन्य कामों में जितना ऐश करना था वह कर लिया था। भैजी के लिये लड़की की तलाश जारी थी और मां पर धीरे धीरे उम्र हावी हो रही थी। मतलब कम से कम इन सर्दियों में तो मुझे ही खेतों तक गोबर पहुंचाना होगा। दूर के खेतों तक गोबर पहुंचाने से बचने का एकमात्र रास्ता सितंबर . अक्तूबर में गोठ लगाना था और इसलिए मैं भावी मेहनत से बचने के लिये अपने फैसले पर अडिग था।
मैं अपनी इस कहानी को कुछ आगे बढ़ाने से पहले आपको गोठ के बारे में बता दूं। गोठ या गोट मतलब गोशाला। मैंने गोठ को लेकर फेसबुक के घसेरी ग्रुप में एक पोस्ट डाली थी। इस पर श्रीमती क्षिप्रा पांडेय शर्मा ने बताया कि कुमांऊ में मकान के नीचे के हिस्से को गोठ कहते हैं जबकि श्री विवेक ध्यानी ने कम शब्दों में गोठ को अच्छी तरह से परिभाषित कर दिया। उनके शब्दों में, ''गोट। जहां गावं के कुछ लोग अपने पशुओं को एक साथ अस्थायी तौर पर कुछ दिनों के लिए रखते हैं? '' नीलांबर नीलू पंत ने फोटो उपलब्ध करायी और बताया कि उन्होंने भी गोठ लगायी है और इसमें उन्हें बहुत आनंद आता था। हमारे लिये गोठ का मतलब था खेतों में टिन या कांस से बने पल्ला डालना जो आपके सिर के ऊपर छत का काम करे और फिर जहां तक आपका खेत हैं उसमें गाय, बैल, बछड़े, भेड़ बकरियां बांध कर रात भर उनकी रखवाली करना। ये पालतू पशु रात में जितना मूत्र या गोबर करते खेत को उतनी खाद मिलती और गुठेर (गोठ लगाने वाला) के दिल को सुकून। सीधा सा मतलब 'गोबर की पूर्ति के लिये खेतों में पशुओं को बांधना'। पहाड़ों में सितंबर . अक्तूबर में बहुत काम होता है। इस दौरान अमूमन अक्तूबर में गोठ लगायी जाती है। गढ़वाली के मशहूर कवि श्री दीनदयाल सुंद्रियाल 'शैलज' के शब्दों में ''बांस व घास के पल्लों के नीचे, टांट (बांस से बनाया गया सुरक्षा चक्र) के पीछे भेड़ बकरियों की खुशबू वाली महकती रात और टप टप बरसात की बूंदों की आवाज़ के आनंद के साथ साथ अचानक बाघ या किसी जंगली जानवर के आने के अंदेशे से उत्पन्न रोमांच वही महसूस कर सकता है जिसने गोठ मे रात बिताई हो।"
गोठ भी दो तरह की होती थी। एक छोटी गोठ यानि एक या दो पल्ले डालना ताकि उसके अंदर दो चारपाई समा जाएं। इस तरह की गोठ में पशुओं के रूप में केवल गाय बैलों को ही रखा जाता था। दूसरी चार से छह पल्लों की बड़ी गोठ। इसमें भेड़ और बकरियां गोठ में रहती थी। तीन पल्ले जमीन से सीधे खड़े करके तीन पल्लों को उसके ऊपर बड़ी कुशलता से रखकर डंडों के सहारे उसे कुछ हद तक झोपड़ी का रूप दे देना। इसमें आगे और दोनों किनारों का हिस्सा खुला रहता था। दोनों किनारों पर एक . एक चारपाई डाल दी जाती थी और बीच में भेड़ बकरियां बांध दी जाती थी। बाकी पशु बाहर खुले में बांधे जाते थे। डर बाघ या सियार से होता था जो भेड़ बकरियों पर ज्यादा घात लगाये रहते थे। भेड़ बकरियों का गोबर ज्यादा उपजाऊ माना जाता है।
मैंने छोटी तरह की गोठ लगाने की तैयारी की थी। मतलब हमारे पास दो पल्ले थे और भेड़ बकरियां हमारे पास नहीं थी। चार परिवारों के चार लड़के थे। इसका मतलब था कि अगर 28 दिन गोठ लगानी है तो प्रत्येक के खेत में सात दिन गोठ लगेगी। अगर किसी के खेत कम हैं तो वह अपना हिस्सा दूसरे को दे सकता था। गांव बड़ा था और इसलिए गुठेर हम ही नहीं थे। गांव के दूसरे लड़कों और वयस्कों ने भी हमारी तरह समूह बनाकर गोठ लगाने का फैसला किया था। गोठ के लिये सबसे पहला और मुश्किल काम था पशु जुटाना। आप अपने घरों से दुधारू पशुओं या छोटे बछड़ों को नहीं ले जा सकते थे। वैसे गोठ लगाने से पहले एक अदद सांड की तलाश भी होती थी। इससे अपने गांव सहित इधर उधर के गांवों से उन गायों के मिलने की संभावना बढ़ जाती थी जो दुधारू नहीं हों। अधिक पशु होने पर खेत को अधिक खाद मिलती थी लेकिन मेहनत भी उतनी की बढ़ जाती थी।
जिसके खेत में गोठ लगती थी उसके लिये वह सुबह से लेकर अगले दिन सुबह तक की मेहनत का काम था। पहले उसे सुबह दूसरे के खेत से सभी पशुओं को चराने के लिये ले जाना पड़ता था। पल्ला, चारपाई और बिस्तर उसके खेत तक पहुंचाने में तो सुबह बाकी साथी मदद कर देते थे लेकिन कीला (बड़ी और मोटी खूँटी) और ज्यूड़ा (पशुओं को बांधने की रस्सियां) अपने खेत तक खुद पहुंचानी पड़ती थी। दिन भर गाय बैल चराने के बाद शाम को गोठ के पास पहुंचकर कीला गाड़ने पड़ते थे। कीला गाड़ने के लिये मुंगरू (मोटी लकड़ी से बना, जिसके आगे का हिस्सा मोटा होता है) होता था जिसका खास महत्व होता था। इसे रात को गोठ के पास खड़ा करके रखा जाता था। कहा जाता था कि मुंगरू रखने से भूत पिशाच गोठ में हमला नहीं करते थे। कीला गाड़ने के बाद जो कमजोर या छोटा पशु यानि बछड़ा है तो उसे गोठ (जहां पर पल्ले लगे होते थे) के पास बांधा जाता था जबकि बड़े और ताकतवर पशुओं को थोड़ा दूर। इनमें सांड भी शामिल होता था। सांड की प्रकृति और प्रवृति को देखकर उसे खुला भी छोड़ दिया जाता था। अब इंतजार होता था उस घड़ी का जब गांव से बाकी साथी खाना लेकर आते थे। पेट में चूहे कूद रहे होते थे और जब खाना मिल जाता था तो वह किसी अमृत से कम नहीं लगता था। कई बार गोठ में ही खाना बनाया जाता था। खिचड़ी से लेकर खीर तक। रोटी और सब्जी भी। इसके बाद यदि आसपास में दूसरी गोठ भी होती तो फिर कछड़ी (छोटी बैठक) जम जाती। कई बार ककड़ियों की भी चोरी होती और फिर रात में पेट भरा होने के बावजूद भी चाव से ककड़ी खायी जाती। ककड़ी चोरी के भी किस्से हैं।
जिसके खेत में गोठ लगती थी उसके लिये वह सुबह से लेकर अगले दिन सुबह तक की मेहनत का काम था। पहले उसे सुबह दूसरे के खेत से सभी पशुओं को चराने के लिये ले जाना पड़ता था। पल्ला, चारपाई और बिस्तर उसके खेत तक पहुंचाने में तो सुबह बाकी साथी मदद कर देते थे लेकिन कीला (बड़ी और मोटी खूँटी) और ज्यूड़ा (पशुओं को बांधने की रस्सियां) अपने खेत तक खुद पहुंचानी पड़ती थी। दिन भर गाय बैल चराने के बाद शाम को गोठ के पास पहुंचकर कीला गाड़ने पड़ते थे। कीला गाड़ने के लिये मुंगरू (मोटी लकड़ी से बना, जिसके आगे का हिस्सा मोटा होता है) होता था जिसका खास महत्व होता था। इसे रात को गोठ के पास खड़ा करके रखा जाता था। कहा जाता था कि मुंगरू रखने से भूत पिशाच गोठ में हमला नहीं करते थे। कीला गाड़ने के बाद जो कमजोर या छोटा पशु यानि बछड़ा है तो उसे गोठ (जहां पर पल्ले लगे होते थे) के पास बांधा जाता था जबकि बड़े और ताकतवर पशुओं को थोड़ा दूर। इनमें सांड भी शामिल होता था। सांड की प्रकृति और प्रवृति को देखकर उसे खुला भी छोड़ दिया जाता था। अब इंतजार होता था उस घड़ी का जब गांव से बाकी साथी खाना लेकर आते थे। पेट में चूहे कूद रहे होते थे और जब खाना मिल जाता था तो वह किसी अमृत से कम नहीं लगता था। कई बार गोठ में ही खाना बनाया जाता था। खिचड़ी से लेकर खीर तक। रोटी और सब्जी भी। इसके बाद यदि आसपास में दूसरी गोठ भी होती तो फिर कछड़ी (छोटी बैठक) जम जाती। कई बार ककड़ियों की भी चोरी होती और फिर रात में पेट भरा होने के बावजूद भी चाव से ककड़ी खायी जाती। ककड़ी चोरी के भी किस्से हैं।
मैंने जब भी इस तरह से इंतजार किया तो अक्सर गोठ के अंदर ही दुबके रहकर पशुओं पर नजर रखता था। भूतों पर विश्वास नहीं करता था इसलिए भूतों से अधिक डर बाघ का रहता था। अगर आ गया तो फिर मेरी पैंट का गीली होना तय था। मेरे साथ ऐसी कोई घटना नहीं घटी लेकिन छोटे भाई बिजू (बिजेंद्र पंत) एक रोमांचक किस्सा सुनाया। बिजेंद्र के शब्दों में, ''मैंने 1991 में गोठ लगायी थी जिसमें हम चार पार्टनर थे। बड़ा उत्साह था। रात ढलने को आयी तो चार में से दो जने घर रोटी लाने चले गये और दो गोठ में रहे। रात को खाना खाकर सो गये। सब गहरी नींद में थे तभी रात एक बजे के आसपास अचानक पशुओं की हड़बड़ाहट से नींद खुली। देखा तो सभी पशु सहमे हुए थे। पशुओं की गिनती की तो एक बछड़ा कम निकला। जब तक खेत से दूर उसे ढूंढते तब तक बाघ अपना काम कर चुका था। इसके बाद जैसे तैसे सो गये लेकिन रात के तीन बजे के आसपास हमारा पल्ला हिलने लग गया। कानों में किलकारियां गूंज रही थी। काटो तो खून नहीं वाली स्थिति थी। जैसे तैसे रात काटी। सुबह हमें बताया गया कि हमने मुंगरू सही नहीं रखा था गोठ के अंदर और इसलिए भूत वहां प्रवेश कर गया था। कहते हैं कि मुंगरू जरूरी होता है गोठ में रक्षा के लिये। इसके बाद हमें कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ। ''
आखिर में उस दिन का इंतजार रहता था जब 'गोठपुजाई' या 'ग्वठपुजै' होती थी। किसी विशेष दिन गोठ समाप्त होती थी और उस दिन बाकायदा पूजा की जाती थी। मुंगरू को हमेशा देवता की तरह सम्मान दिया जाता था। उस पर पांव नहीं लगाये जाते और आखिरी दिन उसकी पूजा होती। उसे घी दूध से नहलाया जाता था। कई तरह के व्यंजन बनते। श्री दीनदयाल सुंद्रियाल शैलज के अनुसार, ''जब हम बहुत छोटे छोटे थे तो हमारे घर के सयाने गोठ से सुबह घर आते तो हमे गोठ की रोटी का बड़ा इंतज़ार रहता था। बिना किसी शाक सब्जी के बासी रोटी की मिठास का शायद सुबह सुबह की भूख तृप्त होने से संबद्ध होगा पर हमारे लिए तो गोठ की रोटी भगवान के प्रसाद जैसी चीज थी और हम छोटे भाई बहिनो मे इसके लिए लड़ाई भी हो जाती थी लेकिन असली उत्साह और उमंग का अवसर तब आता था जब चौमास समाप्त होने पर गोठ को घर आना होता तो "गोठपुजाई" एक उत्सव की रात होती थी। उस दिन गोठ की रसोई मे ही सभी संबंधित परिवारों के लिए विविध व्यंजन पकते थे जिसमे दाल के भूड़े व खीर तो अवश्य बनती थी। ये दोनों चीजें मुझे आज भी बहुत प्रिय है।''
तो ये थी गोठ की कहानी। आपमें से कई भाईयों ने गोठ जरूर लगायी होगी और आपके साथ भी कुछ रोचक किस्से घटित हुए होंगे। यहां टिप्पणी वाले कालम में जरूर साझा करें। आपके किस्सों का इंतजार रहेगा। आपका धर्मेन्द्र पंत
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