पौड़ी गढ़वाल के थैलीसैंण विकासखण्ड के राठ क्षेत्र का ऐतिहासिक बूंखाल कालिंका मेला एक समय पशु बलि प्रथा के लिये विख्यात था। मेले के दिन यहां पशुओं के खून नदियां बह जाती थी। अशिक्षा और अंधविश्वास के कारण वर्षों से यह प्रथा चली आ रही थी। आखिर में एक शख्स ने इस कुप्रथा को रोकने का बीड़ा उठाया। उनके प्रयासों से प्रशासन ने भी सक्रियता दिखायी। इसी का परिणाम है कि पिछले कुछ वर्षों से बूंखाल मेला बिना पशु बलि के शांति के साथ संपन्न होता है। गढ़वाल में पशु बलि प्रथा के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले इस शख्स का नाम है पीताम्बर सिंह रावत जो डुंगरीखाल गांव के रहने वाले हैं। दो साल पहले मैंने अपने ब्लॉग पर पशु बलि प्रथा के खिलाफ ''देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना'' शीर्षक से एक आलेख लिखा था जिसमें श्री पीताम्बर सिंह रावत के पत्र का भी जिक्र किया था जो उन्होंने जिलाधिकारी को लिखा था। अब श्री रावत ने बलि प्रथा को रोकने के लिये किये गये अपने प्रयासों और इस दौरान की चुनौतियों के बारे में 'घसेरी' को अपनी कहानी विस्तार से बतायी है।
पीताम्बर सिंह रावत की बलि प्रथा के खिलाफ लड़ी गयी जंग की कहानी, उन्हीं की जुबानी
श्री पीताम्बर सिंह रावत, अपने नाती और नातिन के साथ। |
सन 1999 तक मेरी भी बलि प्रथा में काफी रुचि रहती थी और दो बार मैंने भी बूंखाल में बागी (भैंसा) और खाडु (मेंढ़ा) की बलि दी थी। इसी दौरान मैंने अपने भाइयों को बागी को मारते हुए देखा। बागी तड़प रहा था और मेरे दोनों भाई बारी बारी से उसकी गर्दन काट रहे थे। उस समय मैं काफी व्यथित हो गया। मैं अंदर से काफी पीड़ा महसूस कर रहा था। बस मैंने तुरंत ही बूंखाल मै बलि प्रथा रोकने का संकल्प ले लिया। यह काम कतई आसान नहीं था यह मैं अच्छी तरह से जानता था, क्योंकि बूंखाल में चोपड़ा गाँव के चक्करचोटया, गोदा गाँव के गोदियाल पुजारी और मलंड गाँव की भूमि इन तीनों गाँव के लोगों का कहना था कि जो भी बूंखाल में बलि प्रथा रोकने की कोशिश करेगा उसी समय उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। । यहां तक कि प्रशासन भी वहां कुछ नहीं कर पाता था। कालीमठ के गब्बर सिंह राणा को उन्होंने जान से मारने की धमकी थी। लगभग सारे सामाजिक कार्यकर्ता नाकाम रहे। उसके बाद मुंबई की डांडी कांठी संस्था से जुड़े लोगों ने भी प्रयास किये लेकिन वे भी कामयाब नहीं हो पाये।
मैंने भी संकल्प ले रखा था। मैं अकेले ही अपना संकल्प पूरा करने में लग गया। एकबारगी मैंने सोचा कि मैं अकेला हूं और अकेले इतना बड़ा काम करना मुश्किल है। इतना मैं समझ चुका था कि लोगों को समझाने और उनके साथ बहस करने से कोई फायदा नहीं हैं। इसलिए पहले मैंने पहले खुद भगवान की शरण ली। मैं भगवान को ही अपना साथी मानने लग गया। चार साल बीत गए लेकिन इन चार वर्षों में मुझे अन्दर ही अन्दर रास्ता दिखायी दिया। फिर मैंने आठ मार्च 2005 को शिवरात्रि के दिन महाराष्ट्र के चारोटी से पहली पैदल यात्रा शुरू कर दी। यह यात्रा 16 मार्च 2005 मध्यप्रदेश के झाबुआ में सम्पन्न हुई। इस यात्रा में मुझे काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा लेकिन इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। मेरा हौसला दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। सन 2006 में मैंने श्राद्धीय नवरात्रि को आठ दिन की यात्रा की। यह यात्रा मेरी गुजरात के अंबा जी की थी इस यात्रा में मुझे कोई खास परेशानी नहीं हुई। सन 2007 में मैंने राजस्थान की यात्रा की। तीन दिन की इस यात्रा में मेरे साथ 36 घंटे तक पांच कुत्तों ने साथ दिया। इसके एक दिन के बाद हरिद्वार से बूंखाल तक की यात्रा मैंने 51 घन्टे में पूरी की। उसके बाद अपने गांव से माता जी की डोली लेकर बूंखाल गया। तब मेरे भाईयों के साथ—साथ सारे गाँव वालों ने मेरा साथ दिया। दो महीने के बाद मेला था और उस समय गांव में हमारे सगे संबंधियों ने बागी की बलि दी। मेरे भाईयों ने भी इस बलि का समर्थन किया।
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सन 2008 को श्राद्ध के समय मैं बूंखाल गया। मैंने सब्बल, कुदाल और तगारा लिया तथा तीन दिन में बलि कुंड को पत्थरों से बंद कर दिया। मजेदार बात यह है कि उन तीन दिनों में किसी को पता नही चल पाया कि बलि कुंड बंद हो गया चौथे दिन नवरात्र का पहला दिन था उस दिन मैंने खुद ही खुलासा कर दिया कि मैंने बलि कुंड बंद कर दिया है। इससे मेला समिति में खलबली मच गयी। उस समय उन लोगों के साथ मेरी काफी बहस हुई। जब मैंने उनसे कहा कि जब मैने बलि कुंड बंद करने में तीन दिन लगाये तो आप लोगों की चमत्कारी शक्तियां कहां गई थी? उन्होंने मुझे क्यों नहीं रोका? मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे साथ में कोई शक्ति थी जिसने तुम लोगों को अन्धा कर दिया था। जब मैंने यह बात कही तो माहौल कुछ शांत हुआ लेकिन नौवें दिन तक उन पर फिर से अंधविश्वासी शक्तियां हावी हो गयी और उन्होंने बलि कुंड को फिर से खाली कर दिया। मै भी यही चाहता था कि बलि कुंड को वही लोग खोलें। मैंने बचपन से ही वहां के बारे में कई कहानियां सुनी थी। एक कथा के अनुसार कुंड के अन्दर गोरखाओं ने काली मां को गाड़ के रखा है। (एक अन्य कहानी इस तरह से है कि पहले यहां स्थित मूर्ति तमाम तरह की बीमारियों और आपदाओं के बारे में ग्रामीणों को पूर्व में ही आगाह कर देती थी। जब 1791 में गोरखा आक्रमण के समय देवी ने आवाज देकर ग्रामीणों को आगाह किया। इसकी भनक गोरखाओं को लग गयी और उन्होंने देवी की मूर्ति का सिर काटकर उसके धड़ को उल्टा करके दफना दिया तथा देवी माँ का सिर वे अपने साथ ले गये, जिसकी पूजा आज भी पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल में होती है।)
इसके एक साल बाद यानि सन 2009 में श्राद्ध के समय मैं केदारनाथ धाम गया। वहां मैंने बाबा केदारनाथ से आशीर्वाद लिया कि मैं बलि प्रथा रोकने के अपने प्रयासों में सफल रहूं। केदारनाथ से ही मैं सीधे श्रीनगर पहुंचा जहां मैंने एक गैंती ली और पैदल रास्ते चलकर खिर्सू, चौबट्टा होते हुए चोपड़ा गाँव पहुँचा। रात के करीब दस से ग्यारह बजे का समय था। मैं गोदा गांव से होकर गुजरा तो सभी सो चुके थे। मैं वहां से बूंखाल गया और मैंने बलि कुंड के अन्दर जाकर बलि बेदी को निकाला और फिर रात में ही उसे गंगा में विसर्जित कर दिया। बूंखाल मैं मैंने जो भी कार्य किये वो सब अमावस के दिन व रात को किए। इन सब कार्यों को करने के लिए मुझे कितने मुश्किलों का सामना करना पड़ा इसका अन्दाजा आप खुद लगा सकते हो। इसी दौरान मैंने विषम सामाजिक परिस्थितियों में अपनी बेटी की शादी भी की थी।
पीताम्बर सिंह रावत
पता: गांव व पोस्ट डुंगरी खाल,
पट्टी बाली कंडारस्यूं
जिला पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड।
उत्तराखंड के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में योगदान देने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों से लोगों का परिचय कराने का यह 'घसेरी' का छोटा सा प्रयास है। ऐसे लोग जो निस्वार्थ भाव से अपना काम करते हैं और जिसका श्रेय उन्हें कभी नहीं मिल पाता। इसमें घसेरी के सभी पाठकों का सहयोग अपेक्षित है। आपका धर्मेन्द्र पंत
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