गुरुवार, 28 सितंबर 2017

गढ़वाली शादियों में गीत—गाली

पहाड़ी शादियों में मुख्य तौर पर बारात पहुंचने, धूलि अर्घ, गोत्राचार और बेदि के समय मांगल गीत के साथ गाली गीत भी गाये जाते हैं।  
     पिछले दिनों  मैंने फेसबुक पर गाली को लेकर एक पोस्ट लिखी थी। गाली क्यों दी जाती है कई टिप्पणियां मिली थी। इनमें से एक टिप्पणी मेरे मित्र प्रकाश पांथरी की थी। उन्होंने लिखा था, ''यह निर्भर करता है कि गाली को किस तरह से लिया जाए .... शादियों में भी हमने वधु पक्ष की तरफ से वर पक्ष का गालियों से स्वागत करते हुए देखा है। यह परंपरा है हमारे यहां। धर्मी (धर्मेन्द्र) समझ गया न मैं क्या बात कर रहा हूं।'' 
     प्रकाश की इस टिप्पणी ने वास्तव में पुराने दिनों की यादें ताजा कर दी। यह सत्तर और अस्सी के दशक की बात है जब लड़की की शादी में गांव की उसकी सहेलियां वर पक्ष के लोगों को गाली (गढ़वाली में गाळि) देती थी। ऐसी गाली जिसको सुनकर वर पक्ष के लोगों के चेहरों पर गुस्सा नहीं बल्कि मुस्कान तैर जाती। प्यार और छेड़खानी से भरी चुटीली गालियां जो गीत के रूप में दी जाती हैं। स्वर एक लय में बहता है, जिसमें शरारत और हास्य छिपा होता है। गढ़वाली से लेकर हिन्दी में गालियां देने का प्रचलन रहा है, लेकिन अधिकतर गालियां स्थानीय भाषा में ही होती हैं। दूल्हे से लेकर, दूल्हे के पिता, वर पक्ष के पंडित, दूल्हे के साथियों हर किसी के लिये शादी की विभिन्न परंपराओं के अनुसार दी जानी वाली गालियां। क्रोध में दी गयी गालियों में प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाया जाता है लेकिन शादी में दी जाने वाली गालियां उमंग और अनुराग में दी जाती हैं तथा यह आपकी आपसी घनिष्ठता और प्रेम की प्रतीक होती हैं। दूल्हा और दुल्हन पक्ष एक दूसरे से अमूमन अजनबी होते थे और एक समय इस अजनबीपन को दूर करने में अहम भूमिका निभाती थी गालियां। उत्तराखंड ही नहीं पूरे भारतवर्ष में बैशाखी और विजयादशमी के दिन बहुत शादियां होती हैं। मतलब अब शादियों का मौसम आ गया है तो फिर देर किस बात की। आज 'घसेरी' में चर्चा करते हैं गढ़वाल की शादियों में जाने वाली प्यार से भरी गालियों की। 
       उत्तराखंड ही नहीं भारत वर्ष के कई प्रांतों में शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा है। हर जगह महिलाएं ही गाली देती हैं। एक तरह से वह इन गालियों के जरिये अपने मन की भड़ास भी निकालती हैं। शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा तो सदियों पुरानी है। यहां तक कि भगवान राम जब बारात लेकर मिथिला गये तो वहां सीता की सहेलियों और अन्य महिलाओं ने दूल्हे राम से भी चुहलबाजी की थी। कुछ इस तरह से 'दशरथ गोरा, कौशल्या गोरी, फिर आप काले क्यों हो गये .....।' मिथिलांचल में अब भी शादियों में गाली देने परंपरा है। वहां अक्सर निशाने पर समधी यानि दूल्हे का पिता होता है। मसलन 'चटनी चूरी, चटनी पूरी, चटनी है लंगूर की। खाने वाला समधी मेरा, सूरत है लंगूर की।'' 


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      ब मैं फिर से गढ़वाल की शादियों में दी जाने वाली गालियों की बात आगे बढ़ाता हूं। दूल्हे के लिये सालियों की गालियां तो बारात के स्वागत से ही शुरू हो जाती हैं। कहा भी जाता है कि साली की गाली हमेशा मीठी होती है तो फिर बुरा किसे लगेगा। बारात आने पर विवाह की पहली परंपरा धूळि अर्घ यानि धूलि अर्ग्य होता है जिसमें वधू का पिता वर और वर पक्ष के ब्राह्मण का आदर सत्कार करता है। यहां पर दूल्हा, दूल्हे का पिता और उसके पक्ष का पंडित इन गाली गीतों में निशाने पर होते हैं। वैसे इस तरह की गालियां विवाह प्रक्रिया के किसी भी मौके पर जैसे कि धूलि अर्घ, गोत्राचार, बेदि (विवाह मंडप) के समय दी जाती हैं। हम यहां पर सबसे पहले दूल्हे के पिता और बामण को दी जाने वाली गालियों पर गौर करते हैं। 
     अगर दूल्हे के पिता नजर नहीं आ रहे हों या वर पक्ष का पंडित पहुंचने में देरी कर रहा हो तो फिर गालियों से उनका पूजन होने में देर नहीं लगती। 
      हमारा गांऊ कुकर भुक्युं च, ब्यौला कु बुबा कुणेठु लुक्यूंच
      हमारा गांऊ कुकर भुक्युं च, ब्यौला कु बामण उबुर लुक्यूंच
                     या
      हमारा गौं म माचिस कु डब्बा, ब्यौला कु बामण ब्यौला कु बबा। 
अगर दूल्हे के पिता ने अनसुनी कर दी तो फिर गाली गीत गाने वाली महिलाएं कहां चुप बैठने वाली होती हैं। 
      हमारा गौं मा डाळ बैठो गूणी, 
      ब्यौला क बुबा टक्क लगैकि सूणी। 
    और अगर दूल्हे के पिता ने मजाक में भी मुंह खोल दिया तो फिर तब भी बेचारे की खैर नहीं। कुछ इस तरह ....
        हमर गौ मा खिनो कु खांभ, ब्यौला का बुबा थ्वरड़ो सि रांभ। 
     मूंछ को मर्द की शान माना जाता है और अगर दूल्हे के पिता के मूंछ नहीं तो इसके लिये भी उन्हें चिढ़ाया जाता है। एक बानगी देखिये। 
     हमारा गौं मा आयु च घाम, ब्यौला का बुबा का जूंगा नी जाम। 
     जमणो को जामी छयो जाम, ब्यौला की फूफून मुछ्यालून डाम।। 
    वर पक्ष की तरफ से विवाह संपन्न कराने वाले पंडित जी ने थोड़ी चूक या ज्यादा होशियारी दिखायी कि उसे वहीं पर टोक दिया जाता है। कुछ इस तरह से .... 
      छि भै ब्यौला तु बामण नि ले जाणु रे.....। 
    इस बीच वधू पक्ष के गांव के लड़कों का काम होता है कि वे बारातियों का आदर सत्कार करें। दूल्हे के दोस्त भी इन गालियों का जवाब अपनी तरफ से देने की भी कोशिश करते हैं, लेकिन लड़कियों के सामने उनकी क्या बिसात। लड़कों का मुंह खुला कि लड़कियां इस तरह से तैयार कि लड़कों की चाय की चुस्की मुंह में अटक के रह जाए ..... 
       आलू काटे, बैंगन काटे, आलू की तरकारी जी
       हमर भयूं न चाय बणायी कुकुरू न सड़काई जी।
      इस बीच दुल्हन की सहेलियां दू्ल्हे की बहनों का नाम जानने की भी कोशिश करती थी ताकि वे दीदी भुलि कहने के बजाय नाम लेकर दूल्हे का गाली दे सकें। अब तो महिलाएं भी शादियों में जाती हैं लेकिन पहले ऐसा कम देखने को मिलता था। स्वाभाविक है समय के साथ गालियों का स्वरूप भी बदला है। अब इस गाली को ही देखिये.... 
         हमारा गौं म बसि जाली कुकड़ी, ब्यौला की भुलि लगणि छ मकड़ी। 
     ब तो गांवों में भी दिन दिन की शादियां होने लगी हैं। वरमाला का चलन चल पड़ा है इसलिये धूलि अर्घ को ज्यादा समय नहीं दिया जाता। बेदि भी आनन फानन में ही निबटा दी जाती है। पहले रात घिरने पर बारात दुल्हन के घर पहुंचती थी। बारातियों का आदर सत्कार होता था और फिर रात भर महफिल जमती थी। अधिकतर रात में ही या सुबह की बेला में गोत्राचार संपन्न होता था और फिर दिन में दस बजे के बाद किसी भी समय बेदि। यह इस पर निर्भर करता था कि बारात कितने दूर से आयी है। अनुराग और उमंग से भरी इन गालियों का असली समां तो बेदि में बंधता था। 
      बेदि में ही सात फेरे भी होते हैं। इस बीच सहेलियां दुल्हन का पूरा हौसला बनाये रखती हैं। 
         शाबाश दगड्या हार न जैई,
          तै ब्यौला का ल्याचा लगैई । 
       दूल्हे का यहां पर गालियों में काफी पूजन होता है। जब वह फेरे ले रहा होता है तो उसे इस तरह से चिढ़ाया जाता है। 
       फ्यारा ​फिरीलो भुलि का दगड़
        फ्यारा ​फिरीलो दीदी का दगड़ । 
                और 
        हमारि दगड्या त देखि कमाल,
         फुुंडु सरक ब्यौला, लाळु संभाल। 
      दूल्हे और दुल्हन को इस बीच कई तरह की रस्में निभायी जाती हैं। एक दूसरे को जूठन खिलाने, अंगूठा पकड़ने, कंगड़ तोड़ने से लेकर दुल्हन के भाई का सुफु में खील डालने तक। इन सभी अवसरों के लिये भी गालियां हैं। अब कंगड़ तोड़ने वाली रस्म को ही लीजिए। इस रस्म में दूल्हे और दुल्हन को एक दूसरे के कंगड़ तोड़ने पड़ते हैं। दुल्हन नहीं तोड़ पाये तो काेई बात नहीं। उसे कैंची सौंप दी जाती थी लेकिन दूल्हे के लिये तो यह नाक का सवाल बन जाता है। आखिर यह उसकी मर्दानगी का सवाल होता है। इसलिए वधु पक्ष वाले दुल्हन के कंगड़ को काफी मोटा और मजबूत बना देते हैं। पहले तो कुछ शादियों में यह भी देखने को मिला जबकि कंगड़ के बीच में लोहे का तार लगा दिया गया। इसके हालांकि दुष्परिणाम भी देखने को मिले। बहरहाल हम कंगड़ तोड़ने के समय दी जाने वाली गालियों की बात करते हैं। 
      दूल्हा जब कंगड़ तोड़ने की कोशिश करता है तो दुल्हन की सहेलियां उसे उकसाती भी हैं और चिढ़ाती भी हैं। 
         तोड़ ब्यौला कंगड़—मंगड़, तेरि भुलि त्वेकु मंगड़ 
         तोड़ ब्यौला कंगड़—मंगड़, तेरि दीदी त्वेकु मंगड़ ।
      बात यहीं पर नहीं रूकती। दूल्हे को वे चुनौती देती हैं और कहती हैं कि अगर कंगड़ नहीं तोड़ पाये तो फिर उसे खाली हाथ ही घर जाना पड़ेगा। 
        तोड़ ब्यौला ब्यौली कु कंगड़, तेरि दीदी त्वेकु मंगड़
        तोड़ि नि सकिलु तेरि हार, वापिस जैलु खालि घार। 
     और इन सबके बीच दुल्हन की मां की तरफ से दूल्हे और उसके पिता से एक आग्रह भी होता है। दुल्हन की मां के इन उदगार को भी गांव की लड़कियां ही बयां करती हैं। 
      छ्वटी बटै कि बड़ि बणाई सैंती पालि की, ईं नौनी थै रख्यां म्यरा समधि संभालि कि,
      छ्वटी बटै कि बड़ि काई सैंती पालि की, ये फूल थै रख्यां म्यरा जवैं संभालि कि ।। 
    उत्तराखंड में जगह चाहे गढ़वाल हो, कुमांऊ या जौनसार विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले गाली गीतों की परंपरा काफी पुरानी है। कभी कभी कुछ लोगों ने इसका विरोध किया लेकिन यह हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं और अगर यह हास्य, प्रेम, अनुराग से जुड़ी हैं तो इनमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। अगर आपको भी इस तरह के कुछ गीत याद हैं तो जरूर साझा करें। 
आपका धर्मेन्द्र पंत
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