शनिवार, 5 अगस्त 2017

लोकभाषाओं को लेकर मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को खुला खत

माननीय मुख्यमंत्री जी,
     पिछले दिनों के आपके दो ट्वीट पढ़ने को मिले और तभी से मेरा मन था कि आपके साथ इस विषय पर संवाद करूं। मैं पौड़ी गढ़वाल जिले के स्योली गांव का मूल निवासी हूं लेकिन फिलहाल नयी दिल्ली में बसा हुआ हूं। पेशे से पत्रकार हूं और वर्तमान में समाचार एजेंसी पीटीआई भाषा में कार्यरत हूं। यह मेरा संक्षिप्त परिचय है। महोदय, आपने दोनों ट्वीट में स्थानीय बोली या भाषा में लोगों से संवाद करने की बात की है। मुझे आपके ट्वीट से महान नेल्सन मंडेला का कथन याद आ गया। उन्होंने कहा था, ‘‘अगर आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वह समझता है तो वह उसके केवल दिमाग तक जाएगी लेकिन यदि आप उस से उसकी भाषा में बात करते हैं तो वह उसके दिल तक जाएगी।’’ स्वाभाविक है कि जब स्थानीय भाषा में लोगों से बात करेंगे तो वह उनके दिलों तक जाएगी। 
    आपके ट्वीट से यह भी स्पष्ट होता है कि आप स्थानीय लोकभाषाओं पर मंडरा रहे खतरे को लेकर चिंतित हैं। असल में जिस तरह से गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि उत्तराखंड की तमाम भाषाओं को बोलने वाले लोगों की संख्या में कमी आ रही है तो चिंताग्रस्त होना स्वाभाविक है और मुझे खुशी है कि आप इसके प्रति गंभीर हैं। 
     भैजी मुझे लगता है कि इस संदर्भ में सबसे पहले हमें अपनी लोकभाषाओं के बारे में जानना और फिर उन पर मंडरा रहे खतरों के कारणों का पता लगाना जरूरी है। विश्व भर में स्थानीय भाषाओं पर मंडरा रहे खतरे से यूनेस्को से लेकर भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण तक में चिंता जतायी है। भारत में 1961 की जनगणना में 1652 भाषाओं का जिक्र किया गया है लेकिन 2001 की जनगणना में केवल 122 भाषाओं के बारे में ही बताया गया है। आज ही मैंने एक हिन्दी दैनिक में खबर पढ़ी कि देश की 400 भाषाएं अगले 50 वर्षों में खत्म हो जाएंगी और अचानक ही दिमाग में अपने उत्तराखंड की भाषाएं तैरने लगी। 


      रावत जी आपने एक पुरानी कहावत सुनी होगी ‘‘कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बाणी।’’ उत्तराखंड में यह अक्षरशः लागू होती है। यहां भाषाओं की भरमार है लेकिन देश भर की 800 से अधिक भाषाओं पर सर्वे करने वाली सरकारी संस्था ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियन लैंग्वेज’ यानि पीएलएसआईएल ने इसमें उत्तराखंड की 13 भाषाओं को स्थान दिया था। ‘भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण’ में भी इन 13 भाषाओं को ही रखा गया है। इन भाषाओं में गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी, जौनपुरी, रवांल्टी, बंगाणी, जाड़, जोहारी, बुक्साणी, राजी, मार्च्छा, थारू और रंघल्वू शामिल हैं। यूनेस्को ने एक सारणी तैयार की थी जिसमें विश्व की उन सभी भाषाओं को शामिल किया था जो असुरक्षित हैं या जिन पर खतरा मंडरा रहा है। उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाओं गढ़वाली और कुमांउनी को इसमें ‘असुरक्षित’ वर्ग में रखा गया था। जौनसारी और जाड़ जैसी भाषाएं ‘संकटग्रस्त’ जबकि बंगाणी ‘अत्याधिक संकटग्रस्त’ की श्रेणी में आ गयी। अगर वर्तमान स्थिति नहीं बदली तो हो सकता है कि आने वाले 10—12 वर्षों में ही बंगाणी लोकभाषा खत्म हो जाए। भोटान्तिक भाषाएं जैसे जोहारी, मार्च्छा व तोल्छा, जाड़ आदि ‘संकटग्रस्त‘ बन गयी हैं। राजी तो लगभग खत्म होने के कगार पर है। गढ़वाली और कुमांउनी उत्तराखंड की प्रमुख भाषाएं हैं लेकिन इन दोनों पर हिन्दी और अंग्रेजी पूरी तरह से हावी हैं। ऐसे में बाकी भाषाओं की स्थिति अधिक दयनीय बन गयी है। 
     यूनेस्को के अनुसार, ‘‘यदि किसी भाषा को तीन पीढ़ी के लोग बोलते हैं तो वह सुरक्षित है, यदि दो पीढि़यां बोल रही हैं तो वह संकट में है और यदि केवल एक पीढ़ी बोल रही है तो उस भाषा पर गंभीर संकट मंडरा रहा है।’’ इस कसौटी पर अगर हम उत्तराखंड की भाषाओं को रखते हैं तो स्थिति गंभीर है और अपनी अगली पीढ़ी को अगर अब भी हमने अपनी भाषाओं के प्रति जागरूक नहीं किया तो फिर आगे हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएंगे। 
    भैजी सबसे बड़ा सवाल यह है कि उत्तराखंड की लोकभाषाएं अगर ''संकटग्रस्त'' बनीं तो क्यों? आपको याद होगा ​कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन का मुख्य मुद्दा था ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी’ को पहाड़ में रोकना है लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। उत्तराखंड राज्य के गठन से पहले ही पहाड़ के गांव खाली होने शुरू हो गये थे। उत्तराखंड की भाषाएं आज अगर संकट से गुजर रही हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण है पलायन है। सबसे पहले आपको पलायन रोकने और शहरों में बस चुके पहाड़ियों को गांवों की तरफ आकर्षित करने के लिये ठोस कदम उठाने होंगे। पलायन के पीछे रोजगार बड़ा कारण है और सचाई यह है कि अब तक उत्तराखंड में स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के सरकार की तरफ से कोई विशेष प्रयास नहीं किये गये। बेहतर शिक्षा और चिकित्सा का अभाव भी एक कारण है जिसके लिये लोग दिल्ली, देहरादून, मुंबई जैसे शहरों में बस गये तथा नयी पीढ़ी के लिये गढ़वाली, कुमांउनी, जौनसारी आदि अपनी भाषा पीछे छूट गयी। लोगों के दिमाग में यह बात बैठ गयी है कि यदि हम अपने बच्चों को अपनी भाषा सिखाते हैं तो वे पिछड़ जाएंगे। इसके लिये अब आपको खुद अपनी भाषाओं का 'ब्रांड एंबेसडर' बनना होगा। आपको लोगों को अपने घरों में स्थानीय भाषा में बात करने के लिये प्रेरित करना होगा। जैसा कि आपने अपने ट्वीट में कहा है, अगर आप उस पर पूरी तरह से अमल करते हैं तो लोगों को भी इससे प्रेरणा मिलेगी। लोगों के दिमाग में यह बात बिठानी होगी कि अपनी भाषा में बात करना हीन भावना नहीं बल्कि सम्मान की बात है। यह संदेश घर घर तक पहुंचाने में आप अहम भूमिका निभा सकते हैं। 
    मुख्यमंत्री जी उम्मीद है कि आपको यह पत्र उबाऊ नहीं लग रहा होगा। लेकिन भैजी यह गंभीर विषय है क्योंकि जब भाषा जिंदा रहती है तो उसके साथ भूगोल, इतिहास, संस्कृति, सरोकार, कृषि, बागवानी, पशुपालन, परंपराएं, पूरी संस्कृति और सामाजिक सरोकार भी जिंदा रहते हैं। भाषा बदलने के कारण पहाड़ की संस्कृति और परंपराएं भी प्रभावित हो रही हैं। 
    त्तराखंड की भाषाओं को बचाने के लिये कहा जा रहा है कि इसे पाठ्यक्रम में शामिल कर देना चाहिए। मैं भी इस कदम का समर्थक हूं। यूनेस्को की महानिदेशक इरिना बुकोवा का कहना है कि ‘‘अच्छी शिक्षा के लिये मातृभाषा जरूरी अवयव है जो असल में महिलाओं ओर पुरुषों के साथ उनके समाज को भी मजबूत बनाने की नींव है।’’ पिछले साल मैंने अपने ब्लॉग में उत्तराखंड की भाषाओं पर लिखा था तो सवाल उठे थे कि क्या इन लोकभाषाओं को भाषा कहना सही होगा क्योंकि यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हैं और इसकी लिपि भी नहीं है। मैंने तब पीपुल्स लिंगुइस्टिक सर्वे के संयोजक गणेश देवी के एक बयान का सहारा लिया था। उन्होंने कहा था, ‘‘जिसकी लिपि नहीं है उसे बोली कहने का रिवाज है। इस तरह से तो अंग्रेजी की भी लिपि नहीं है। उसे रोमन में लिखा जाता है। किसी भी लिपि का उपयोग दुनिया की किसी भी भाषा के लिये हो सकता है। जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलोजी में नहीं आयी, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग। इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा।’’ संविधान भी हमें इन भाषाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने की छूट देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350ए में प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा में शिक्षा की सुविधा देने की बात की गयी है। 
    भैजी एक बड़ा सवाल यह भी है कि उत्तराखंड की भाषाओं को यदि पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तो उन्हें किस तरह से समायोजित किया जाए क्योंकि 13 भाषाओं के अलग अलग नहीं रखा जा सकता है। मुझे इसका एक सरल उपाय लगता है कि तीन मुख्य भाषाओं गढ़वाली, कुमांउनी और जौनसारी को उनके क्षेत्रों के हिसाब से पाठ्यक्रम में शामिल करके उनके ज्यादा करीबी भाषाओं के कुछ अध्याय उसमें शामिल किये जा सकते हैं। पाठ्यक्रम में वहां की संस्कृति, वहां के लोक गीतों, मुहावरों, लोक कथाओं, लोकोक्तियों, किवदंतियों, पहेलियों आदि को शामिल किया जा सकता है। कहने का मतलब है कि पाठ्यक्रम रोचक होना चाहिए। 
    रावत साहब अगर भाषा पाठ्यक्रम का हिस्सा बनती है तो वह रोजगार भी पैदा करेगी। अगर उत्तराखंड की भाषाओं को आप किसी तरह से रोजगार से जोड़ने में सफल रहते हैं तो नयी पीढ़ी खुद ही इन भाषाओं को सीखने का प्रयास करेगी। अभी उत्तराखंड की भाषाओं का सबसे कमजोर पक्ष यही है कि वे रोजगार की भाषाएं नहीं हैं। उनका आर्थिक पक्ष बेहद कमजोर है। हमें अपनी भाषाओं को नयी तकनीकी से भी जोड़ना होगा। हमें स्थानीय भाषाओं की उन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को सहयोग देना होगा जिनमें से अधिकतर आर्थिक संकट के कारण दम तोड़ रही हैं या किसी तरह खींचतान के जिनका प्रकाशन किया जा रहा है। 
   भैजी आखिर में मैं यही कहूंगा कि प्रत्येक भाषा का एक संपूर्ण इतिहास और भूगोल होता है। जब एक भाषा खत्म होती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान भी लुप्त हो जाता है। इस संपूर्ण ज्ञान को बचाने की जिम्मेदारी अब आपके मजबूत कंधों पर है। हम सब आपके साथ हैं। हमारा सहयोग हमेशा आपके साथ बना रहेगा। शुभकामनाओं सहित। 
                 आपका भुला 
                धर्मेन्द्र पंत 
                एक पलायक पहाड़ी 
           ‘‘दशा और दिशा : उत्तराखंड की लोकभाषाएं’’ के लेखक


------- घसेरी के यूट्यूब चैनल के लिये क्लिक करें  घसेरी (Ghaseri)


------- Follow me on Twitter @DMPant

badge