मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

भारत में हैं 14 प्रयाग, गढ़वाल में हैं पांच

           प्रयाग जब यह शब्द किसी आम व्यक्ति के जेहन में आता है तो बरबस ही ध्यान उत्तर प्रदेश के शहर इलाहाबाद की तरफ चला जाता है। असल में इलाहाबाद का मूल नाम प्रयाग ही है और उसका यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वहां पर गंगा और यमुना का संगम होता है। यह भी कहा जाता है कि एक तीसरी नदी सरस्वती भी वहां पर मिलती है लेकिन वह अदृश्य है। भारत में दो नदियों के संगम पर कई तीर्थस्थल है और इनके नाम से प्रयाग जुड़ा हुआ है। भारत में इस तरह के 14 प्रयाग हैं और इनमें पांच प्रयाग उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में हैं। देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और​ विष्णु प्रयाग। इन पांचों तीर्थस्थलों पर विभिन्न नदियां अलकनंदा नदी से मिलती हैं जिसका उदगम स्थल सतोपंथ और भगीरथ खड़क ग्लेशियर को माना जाता है। पांचों प्रयागों का उत्तराखंड में खास महत्व है और लोग किसी पर्व या आम दिनों में भी इन स्थलों पर स्नान करने के लिये आते हैं।  तो तैयार हैं आप हमारे साथ उत्तराखंड के इन पंचप्रयाग में डुबकी लगाने के लिये ... फिर देर किस बात की चलिए घसेरी के साथ।  

1.... देवप्रयाग : अलकनंदा और भागीरथी का संगम स्थल

     
त्तराखंड के पांचों प्रयागों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है देवप्रयाग। यह वह स्थल है जहां पर शांत, सौम्य अलकनंदा से रौद्र रूप और कोलाहल के साथ बहने वाली भागीरथी का मिलन होता है। यहीं पर से ये दोनों नदियां मिलकर 'गंगा' बन जाती हैं जो आगे अलकनंदा का सौम्य स्वरूप ही ग्रहण करती है। गढ़वाल में भागीरथी के रौद्र रूप को देखकर उसे 'सास' और अलकनंदा के शांत स्वरूप के कारण उसे 'बहू' कहा जाता है। इससे यह सीख देने की भी कोशिश की गयी है कि यदि बहू सर्वगुण संपन्न हो तो वह अपनी 'सास' से भी मां जैसा वात्सल्य पा सकती है जैसा कि अलकनंदा से मिलने के बाद भागीरथी अपना क्रोध त्याग देती है। ​
      यह भी कहा जाता है कि जब भगीरथ के प्रयासों से गंगा धरती पर आने के लिये सहमत हुई तो सबसे पहले वह देवप्रयाग में ही प्रकट हुई थी और तब इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बनने के लिये 33 करोड़ देवी देवता भी यहां पर पहुंचे थे। बद्रीनाथ से आगे माणा गांव के पास अलकनंदा में विलुप्त होने वाली सरस्वती नदी के बारे में कहा जाता है कि वह देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में भगवान रघुनाथ के पांव से फिर अवतरित होती है।
      पांचों प्रयाग भगवान बद्रीनाथ के दर्शन के मार्ग में पड़ते हैं और इनमें पहला देवप्रयाग है। रामायण, नारायण पुरान और स्कंदपुराण आदि में भी देवप्रयाग का वर्णन मिलता है जिसका नाम एक मुनि देववर्मा के नाम पर रखा गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मुनि देवशर्मा ने इसी स्थान पर भगवान विष्णु की तपस्या थी। उनके कठिन तप से प्रसन्न होकर उनसे कहा कि था कि इस स्थल की ख्याति तीनों लोक में फैलेगी और यह देवप्रयाग के नाम से जाना जाएगा।
     पौराणिक मान्यतों के अनुसार भगवान राम जब लंका पर विजय प्राप्त करके लौटे तो उन्होंने रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिये लक्ष्मण और सीता सहित यहां पर तपस्या करने के लिये आये थे। राम के पिता राजा दशरथ ने भी यहां पर तपस्या की थी। अलकनंदा और भागीरथी के संगम स्थल के अलावा देवप्रयाग में तीर्थयात्रियों के लिये कई अन्य आकर्षण भी हैं। इनमें रघुनाथजी का मंदिर प्रमुख है। बड़ी शिला पर स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण दस हजार साल पहले किया गया था। यह मंदिर चार अन्य छोटे मंदिरों अन्नपूर्णा देवी, नृसिंह, हनुमान और गरूड़ महादेव से घिरा है। रघुनाथ मंदिर में भगवान राम की मूर्ति रखी गयी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह लगभग 1250 वर्ष पूर्व यहां स्थापित की गयी थी। यह मंदिर द्रविड़ शैली में तैयार किया गया है। रामनवमी, बसंत पंचमी और बैशाखी आदि पर्वों पर यहां पर विशेष पूजा अर्चना होती है। इसके अलावा डांडा नागराज मंदिर और चंद्रबदनी मंदिर भी यहां पर स्थित हैं। देवप्रयाग में पितरों का श्राद्ध भी किया जाता है। यहां भागीरथी नदी पर वशिष्ठ कुंड और अलकनंदा के किनारे पर ब्रह्मकुंड है। यहां पर एक स्थान बैतालशिला भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां पर स्नान करने से कोढ़ रोग से मुक्ति मिल जाती है।
          कैसे जाएं देवप्रयाग
     देवप्रयाग दिल्ली और बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 58 पर स्थित है। यह दिल्ली से 295 किमी और रिषिकेश से लगभग 73 किमी दूर है। ​ऋषिकेश से देवप्रयाग पहुंचने में ढाई से तीन घंटे का समय लग जाता है। ऋषिकेश से बस या टैक्सी लेकर देवप्रयाग तक पहुंचा जा सकता है। देवप्रयाग में बहुत कम होटल हैं और यहां पार्किंग की भी बहुत अच्छी व्यवस्था नहीं है। इसलिए तीर्थयात्री देवप्रयाग में स्नान करने के बाद श्रीनगर की तरफ आगे बढ़ जाते हैं या फिर वापस ऋषिकेश आ जाते हैं। यहां मुख्य सड़क कस्बे के ऊपर से होकर जाती है जहां से संकरे रास्ते से होकर संगम स्थल पर जाया जा सकता है। यहां पर नदी पार करने के लिये एक छोटा सा पुल भी है।

2.... रुद्रप्रयाग :  जहां भगवान शिव ने बजायी थी वीणा


    द्रीनाथ के चरणों से होकर आने वाली अलकनंदा और केदारनाथ के दर्शनों से अभिभूत मंदाकिनी का संगम स्थल है रुद्रप्रयाग। यहां दोनों नदियों का मिलन बेहद मनमोहक दृश्य पैदा करता है। इस छोटे से शहर को प्राकृतिक और धार्मिक दोनों महत्व के लिये जाना जाता है। रुद्र भगवान शिव का एक नाम है और उनके इस नाम पर ही रुद्रप्रयाग को अपना यह नाम मिला। इसके पीछे भी एक कहानी है।
        कहा जाता है कि नारद को अपने वीणा वादन पर बहुत घमंड हो गया था। इससे देवता चिंतित थे। उन्होंने भगवान कृष्ण से विनती की वे नारद का घमंड चकनाचूर करे। भगवान कृष्ण ने सरल उपाय अपनाया। वे नारद के पास गये और उनसे कहा कि भगवान शिव और पार्वती उनके वीणा वादन से बेहद प्रभावित हैं। नारद फूल कर कुप्पा हो गये और चल पड़े हिमालय की तरफ भगवान शिव को अपना वीणा वादन सुनाने। रास्ते में जब वह एक स्थान पर रूके तो वहां उन्हें कई यु​वतियां मिली जो किसी कारणवश कुरूप हो गयी थी। नारद ने जब उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि नारद जब अपनी वीणा की तान छेड़ते हैं तो उसका उन दुष्प्रभाव पड़ता है जिसके कारण वे कुरूप हो गयी। मतलब साफ था कि नारद को वीणा बजानी नहीं आती। नारद यह सुनकर हताश हो गये। उनका घमंड चूर चूर हो गया और उन्होंने वहीं पर एक चट्टान या शिला पर बैठकर भगवान शिव की तपस्या शुरू कर दी। भगवान शिव ने तब रुद्र रूप में आकर नारद को दर्शन दिये। वह वीणा वादन करते हुए प्रकट हुए और फिर नारद को वीणा वादन की शिक्षा भी दी। कहते हैं कि तभी से इस जगह को रुद्रप्रयाग कहा जाने लगा।
       भगवान शिव के रुद्र रूप को समर्पित एक मंदिर भी यहां अलकनंदा और मंदाकिनी के संगम पर स्थित है जिसे रुद्रनाथ का मंदिर कहा जाता है। संगम पर यहां हर शाम छह बजे को आरती होती है। यहां नारद शिला भी है जिसके बारे में हमने आगे जिक्र किया है कि यहां बैठकर नारद मुनि ने शिव की तपस्या की थी। यहां चामुंडा देवी का मंदिर है जो मां दुर्गा का ही एक अन्य रूप है। रुद्रप्रयाग से लगभग तीन किमी की दूरी पर कोटेश्वर महादेव का मंदिर भी है। कहा जाता है​ कि भगवान शिव ने रुद्रप्रयाग आने से पहले यहां की गुफाओं में साधना की थी।
कैसे जाएं रुद्रप्रयाग
      रुद्रप्रयाग आप ऋषिकेश से बस या टैक्सी लेकर जा सकते हैं। यह ऋषिकेश से लगभग 140 किमी और श्रीनगर (गढ़वाल) से 34 किमी की दूरी पर स्थित है। बद्रीनाथ के लिये राष्ट्रीय राजमार्ग 58 और केदारनाथ के लिये राष्ट्रीय राजमार्ग 109 यहीं से जाते हैं। कहने का मतलब है कि बद्रीनाथ और केदारनाथ दोनों धार्मिक स्थलों पर जाने के लिये आपको रुद्रप्रयाग जाना होगा। समुद्र तल से 610 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रुद्रप्रयाग में सर्दियों में काफी सर्द मौसम रहता है लेकिन गर्मियों में यहां का मौसम सुहावना हो जाता है। यहां रात्रि विश्राम करने के लिये अच्छे और सस्ते दर पर होटलों, लॉज आदि की व्यवस्था है।

3.... कर्णप्रयाग : कर्ण ने जहां सूर्य भगवान से प्राप्त किया था कवच


    लकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर बसा है खूबसूरत शहर कर्णप्रयाग। पिंडर नदी कुमाऊं के बागेश्वर स्थित पिंडारी ​ग्लेशियर से होकर यहां तक पहुंचती है। बद्रीनाथ मार्ग पर पड़ने वाला यह महत्वपूर्ण स्थल है। महाभारत के महान योद्धा और दानवीर कर्ण के नाम पर कर्णप्रयाग का नाम पड़ा है। कर्ण को सूर्य और कुंती का पुत्र माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कर्ण ने उमा देवी की शरण में रहकर यहां सूर्य भगवान की तपस्या की जिन्होंने उन्हें अभेद्य कवच, कुंडल और अक्षय धनुष प्रदान किया था। यहां पर कर्ण का मंदिर भी है। इसलिए इस स्थान पर स्नान के बाद दान करना पुण्यकारी माना जाता है। यह भी कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने इसी स्थान पर कर्ण का अंतिम संस्कार किया था और इसलिए यहां पर पितरों को तर्पण देना भी महत्वपूर्ण माना जाता है।
        एक और कहानी के अनुसार शिव के अपमान के बाद जब पार्वती अग्निकुंड में कूद गयी थी तो उन्होंने हिमालय की पुत्री के रूप में अपना दूसरा जन्म लिया। उनका नाम उमा देवी था और उन्होंने शिव को फिर से पाने के लिये यहां कठिन तपस्या की थी। यहां पर मां उमा का प्राचीन मंदिर भी है। महान कवि कालिदास ने मेघदूत और अभिज्ञान शांकुतलम में भी इस स्थान का जिक्र किया है। स्वामी विवेकानंद जब अपने अनुयायियों के साथ हिमालय की यात्रा पर निकले थे तो उन्होंने 18 दिन यहां रुककर साधना की थी।
     कर्णप्रयाग राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर स्थित है जो बद्रीनाथ और माणा को दिल्ली से जोड़ता है। यह ऋषिकेश से लगभग 170 किमी, श्रीनगर (गढ़वाल) से 65 किमी और रुद्रप्रयाग से 31 किमी दूर है। बद्रीनाथ के लिये जाने वाली सभी बसें और टैक्सियां इसी रास्ते से होकर गुजरती हैं। यहां से बद्रीनाथ 127 किमी दूर है। कर्णप्रयाग से एक मार्ग रानीखेत, अल्मोड़ा के लिये भी जाता है। यहां से अल्मोड़ा 160 किमी दूरी पर स्थित है।

4.... नंदप्रयाग : अलकनंदा और नंदाकिनी का संगम स्थल


पंच प्रयागों में चौथे नंद प्रयाग अलकनंदा और नंदाकिनी नदी का संगम स्थल है। नंदाकिनी नदी का उदगम स्थल नंदादेवी पर्वत का ग्लेशियर है और यह कहा जा सकता है कि इस पर्वत और वहां से निकली नदी के नाम पर इस स्थान का नाम नंदप्रयाग पड़ा होगा लेकिन पौराणिक कथाओं में इसका संबंध भगवान कृष्ण से जोड़ा जाता है। कहा जाता है राजा नंद ने पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिये इसी स्थल पर तपस्या की थी। भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि वह उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। विष्णु को हालांकि जल्द ही अपनी गलती का अहसास हो गया क्योंकि वह ऐसा ही वचन देवकी और उनके पति वासुदेव को दे चुके थे। आखिर उन्होंने इस गलती का समाधान इस तरह से निकाला कि वह जन्म तो देवकी की कोख से लेंगे लेकिन उनका लालन पालन नंद और उनकी पत्नी यशोदा करेगी। यह भी कहा जाता है कि राजा नंद ने यहां पर महायज्ञ भी करवाया था और इसी वजह से इस स्थान का नाम नंदप्रयाग पड़ा। एक और कहानी के अनुसार ऋषि कण्व का आश्रम भी इस स्थान पर था और शकुंतला भी यहीं रहती थी। राजा दुष्यंत से उनका विवाह नंदप्रयाग में हुआ था।
      राजा नंद से जुड़े संदर्भ को जीवंत करने के लिये यहां पर गोपाल जी का मंदिर है। गोपाल भगवान कृष्ण का ही एक नाम है। कहा जाता है कि यह मंदिर उसी स्थल पर बना है जहां पर राजा नंद ने तपस्या की थी। तीर्थयात्री संगम पर स्थान करने के बाद गोपाल जी के मंदिर में दर्शन के लिये आते हैं। इसके अलावा यहां चंडिका देवी का मंदिर है। यह इस क्षेत्र के सात गांवों की देवी मानी जाती है। यहां नवरात्र के अवसर पर बड़ा मेला लगता है।
      कर्णप्रयाग से नंदप्रयाग की दूरी केवल 21 किमी है। यह स्थान चमोली और कर्णप्रयाग के बीच में पड़ता है। बद्रीनाथ जाने के मार्ग पर यदि आप सभी प्रयागों के दर्शन करके जाना चाहते हो तो नंदप्रयाग आपको प्राकृतिक या धार्मिक किसी भी दृष्टि से निराश नहीं करेगा। नंदप्रयाग में स्नान करने के बाद आप इससे 11 किमी दूरी पर स्थित चमोली में जाकर रूक सकते हैं। यहां से जोशीमठ 69 किमी दूर है और इसलिए वहां भी जाकर पड़ाव डाला जा सकता है। जोशीमठ में रूकने के लिये बेहतर होटल और लॉज हैं। नंदप्रयाग और चमोली में भी सस्ते होटल और लॉज की व्यवस्था है। यह दिल्ली से 428 और ऋषिकेश से 190 किमी दूर है। नंदप्रयाग के पास से ही रूपकुंड के लिये ट्रेकिंग का मार्ग भी निकलता है।

5.... विष्णु प्रयाग : लगाइये विष्णु कुण्ड में डुबकी


   ढ़वाल के पंच प्रयाग में बद्रीनाथ के सबसे करीब स्थित है विष्णु प्रयाग जहां अलकनंदा नदी और धौलीगंगा या विष्णुगंगा नदी का मिलन होता है। अलकनंदा के बारे में हम पहले भी बात चुके हैं कि उसका उदगम स्थल सतोपंथ है। धौलीगंगा नदी का उदगम स्थल नीति पास है और यह बड़े वेग से अलकनंदा में मिलती है।

        नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि विष्णु प्रयाग का नाम भगवान विष्णु के नाम पर पड़ा है। कहा जाता है कि नारद मुनि ने इसी स्थल पर भगवान विष्णु की तपस्या की थी। उन्होंने पंचाक्षरी मंत्र का जाप किया और स्वयं विष्णु भगवान उनको दर्शन देने के लिये यहां पधारे थे। विष्णुप्रयाग में भगवान विष्णु का मंदिर भी है जिसके निर्माण का श्रेय इंदौर की महारानी अहिल्याबाई को दिया जाता है। उन्होंने 1889 में यह मंदिर बनवाया था। संगम पर लहर तेज होने के कारण वहां पर स्नान करना मुश्किल होता है। पास में ही विष्णु कुण्ड है जहां पर श्रद्वालु स्नान करते हैं और इसके बाद भगवान विष्णु के दर्शन करने के लिये मंदिर में जाते हैं।
      विष्णुप्रयाग जोशीमठ से आगे बद्रीनाथ मार्ग पर स्थित है। ऋषिकेश से विष्णुप्रयाग की दूरी लगभग 272 किमी है। जोशीमठ से नीचे उतरने के बाद कुछ दूरी पर यह पवित्र स्थल स्थित है। जोशीमठ से यहां की दूरी 10 किमी है जबकि विष्णुप्रयाग से बद्रीनाथ लगभग 35 किमी आगे है। विष्णुप्रयाग से कागभुसुंडी ताल के लिये भी रास्ता जाता है। बद्रीनाथ यात्रा पर जाने वाले तीर्थयात्री विष्णुप्रयाग में कुछ देर के लिये रूकते हैं। यहां पर विष्णु कुण्ड में स्नान करने और भगवान विष्णु के दर्शन करने के बाद वे आगे बद्रीनाथ के लिये निकल पड़ते हैं। यदि विष्णुप्रयाग जाना है तो जोशीमठ या बद्रीनाथ में रूकना सही विकल्प रहेगा।
      मेरे एक मित्र ने आग्रह किया था कि मैं गढ़वाल के पंच प्रयाग पर लिखूं। उम्मीद है कि उनके लिये यह जानकारी उपयोगी होगी। आपका धर्मेन्द्र पंत


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गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

गढ़वाल की सांस्कृतिक धरोहर 'रम्माण'

गणतंत्र दिवस की झांकी से लोगों की रम्माण के प्रति दिलचस्पी बढ़ी है। 
      स बार गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर उत्तराखंड की झांकी देखकर पहाड़ के ही कई लोगों में जिज्ञासा पैदा हो गयी कि आखिर यह कौन सा लोकनृत्य है जिसे पूरे देश के सामने पेश करने की कोशिश की गयी। मुझसे भी इस तरह के सवाल किये गये थे जिनके मैंने संक्षिप्त उत्तर देकर यह मान लिया था कि अपनी जिम्मेदारी पूरी हो गयी। लेकिन यही सवाल थे जिन्होंने मुझे उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के चमोली जिले के कुछ गांवों विशेषकर सलूड़ और डुंग्रा के धार्मिक महोत्सव 'रम्माण' के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल करने के लिये प्रेरित किया। रम्माण भले ही दो चार गांवों तक सीमित हो लेकिन इसने विश्वस्तर पर अपनी पहचान बना ली है। यूनेस्को ने 2009 में रम्माण को अमूर्त कलाओं की श्रेणी में विश्व की सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया था। यह कहा जा सकता है कि रम्माण को गणतंत्र दिवस के जरिये दुनिया के सामने पेश करने के फैसले में भी यूनेस्को से मिली पहचान ने अहम भूमिका निभायी। 
      चमोली जिले के पैनखांडा घाटी में स्थित सलूड़, डुंग्रा, डुंग्री—भरोसी और सेलंग गांवों में हर साल अप्रैल माह के दूसरे पखवाड़े में भूमि क्षेत्रपाल यानि भूमियाल देवता (भूम्याल देवता) की पूजा के लिये रम्माण महोत्सव का आयोजन किया जाता है। रम्माण बैशाखी के बाद नौ से 11वें दिन पर शुरू होता है। इसमें रामायण का गायन होता है और रम्माण उसी का अपभ्रंश है। अंतर इतना है कि रम्माण का गायन गढ़वाली बोली में होता है। विभिन्न तरह के मुखौटा नृत्यों में कई तरह के नृत्य शामिल होते है। कहा जाता है कि इन गांवों में 1911 से रम्माण महोत्सव का हर साल आयोजन होता है। वैसे उत्तराखंड में मुखौटा नृत्यों की शुरुआत आदि शंकराचार्य के समय हो गयी थी। पहले बद्रीनाथ यात्रा के शुरू में जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में रम्माण महोत्सव होता था जिसमें रामायण गायन और मुखौटा नृत्य शामिल थे लेकिन अब यह मुख्य रूप से सलूड़ और डुंग्रा गांवों तक ही सीमित रह गया है। इन दोनों गांवों में यह परपंरा वर्षों से चली आ रही है और ये इसके आयोजक होते है। दोनों गांवों का प्रत्येक परिवार इसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाता है। इसमें सभी जातियों के लोग भाग लेते हैं और उनकी भूमिकाएं भी जाति के हिसाब से बांट दी जाती हैं। 
जय भूमियाल देवता
      रम्माण में जो युवा अपने कला और कौशल का प्रदर्शन करते हैं उनका चयन दोनों गांवों के मुखिया और पंच मिलकर करते हैं। इन युवाओं को बाकायदा इसकी रिहर्सल दिलायी जाती है। किसी ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया जाता है जो भूमियाल देवता के मंदिर में तमाम अनुष्ठान करता है दूसरी तरफ नृसिंह देवता का मुखौटा केवल सलूड़ गांव के भंडारी (राजपूत) ही पहन सकते हैं। किसी एक प्रमुख व्यक्ति को 'बारिस' नियुक्त कर दिया जाता है जो धन इकट्ठा करने से लेकर पूजा तक के आयोजन के लिये जिम्मेदार होता है। उसकी मदद के लिये 10 से 12 लोग ​होते हैं जिन्हें 'धारिस' कहा जाता है। पंच अगले साल के रम्माण महोत्सव के लिये भूमियाल देवता के निवास का भी चयन करते हैं। भूमियाल देवता एक साल के लिये जिस घर में रहता है उस परिवार के मुखिया को हर दिन इसकी पूजा करनी पड़ती है। बैशाखी के दिन भूमियाल देवता को पूरे गाजे बाजों के साथ मंदिर में लाया जाता है। कहा जाता है कि यह मंदिर 200 साल पुराना है। दूसरे दिन देवता को हरियाली चढ़ायी जाती है और फिर हर दिन भूमियाल देवता गांवों का चक्कर लगाता है। 

मुखौटा नृत्य होते हैं रम्माण के आकर्षण 

       मुखौटा नृत्य रम्माण के मुख्य आकर्षण होते हैं। मुखौटे भोजपत्र और लकड़ी के बनाये जाते हैं। कलाकारों का मेकअप ऊन, शहद, आटा, तेल, हल्दी, सिंदूर, घ्यासू यानि कालिख आदि से किया जाता है। इसमें स्थानीय पेड़ पौधों और सब्जियों का उपयोग भी किया जाता है। हिन्दुओं में किसी भी धार्मिक कार्य की शुरुआत गणेश पूजन से होती है और रम्माण में भी मुखौटा नृत्य के शुरू में गणेश कालिका के नृत्य से होती है।   गणेश के साथ ब्रह्मा की उत्पत्ति भी इसमें दिखायी जाती है। सूर्य भगवान के लिये भी नृत्य होता है जबकि स्थानीय लोग नारद के स्थानीय रूप बुढ़ देवा का बड़ा बेसब्री से इंतजार करते हैं। बुढ़ देवा अपने शरीर पर कंटीली घास चिपकाकर रखता है और फिर लोगों के बीच घुसता है। ढोल, दमाऊ और विभिन्न तरह के वाद्ययंत्रों पर कृष्ण और राधा का नृत्य मनमोहक होता है। इनके अलावा कई सामयिक मुखौटा नृत्य भी होते हैं। इनमें म्वार—म्वारिन का नृत्य भी जिसमें दिखाया जाता है कि चरवाहे अपने भैसों के झुंड को लेकर जंगल से गुजरते हैं और म्वार पर बाघ हमला करता है। आम आदमी की दैनिक समस्याओं को दर्शाने के लिये बनिया—बनियाइन का नृत्य होता है। इसके बाद ही रामायण की शुरुआत होती है जिसके कारण इसका नाम रम्माण पड़ा है। इसमें पूरी रामायण की कहानी स्थानीय जागरी कहता है जिस पर नर्तक प्रदर्शन करते हैं। रामायण से जुड़े इन नृत्यों के लिये 18 मुखौटे, 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊ और आठ भंकोरों (स्थानीय वाद्ययंत्र) का उपयोग किया जाता है। रामायण के गायन और उस पर नृत्य की शुरुआत राम जन्म से होती और यह राम लक्ष्मण का जनकपुर जाना, सीता स्वयंवर, राम वनवास, स्वर्ण मृग का वध, सीता हरण, हनुमान का सीता से मिलना, लंका दहन, राम रावण युद्ध और राजतिलक तक चलते हैं। 

नृत्य के कलाकारों को तैयार करना भी आसान काम नहीं है। बाद में ये कलाकार आकर्षण का केंद्र होते हैं। 
      
      रम्माण महोत्सव में कुछ ऐतिहासिक पुट भी डाल दिये गये हैं जैसे कि गोर्खाओं का गढ़वाल पर आक्रमण। इस पर आधारित 'माल नृत्य' होता है।  माल नृत्य के लिये चार कलाकारों का चयन किया जाता है। इनमें दो लाल और दो सफेद रंग की पोशाक पहने होते हैं। इसमें लाल पोशाक पहनने वाले एक कलाकार का सलूड़ गांव के कुंवर जाति का होना जरूरी है जबकि तीन अन्य का चयन गांव के पंच करते हैं। इनमें से लाल पोशाक पहनने वाला दूसरा माल डुंग्रा गांव का होता है जबकि सफेद पोशाक के लिये दोनों गांव से एक एक कलाकार का चयन किया जाता है। इसके साथ ही स्थानीय दंतकथाओं और लोक कथाओं पर आधारित ​नृत्य भी होते हैं। नृसिंह नृत्य और कूरजोगी नृत्य का भी अलग महत्व होता है। इस महोत्सव का समापन गांव में भोज से होता है जिसमें शुरू में प्रसाद बांटा जाता है। पहाड़ों में किसी भी धार्मिक कार्य में बकरे की बलि दी जाती है और रम्माण महोत्सव भी इससे अछूता नहीं है। बकरे की बलि भोज के लिये दी जाती है और बेहतर यही होगा कि इसे रम्माण जैसे पवित्र धार्मिक उत्सव नहीं जोड़ा जाए। 
    रम्माण के प्रति स्थानीय लोगों का उत्साह अब भी बना हुआ है। यूनेस्को से सम्मान मिलने के बाद लोग इस धरोहर को बनाये रखने के लिये प्रेरित हुए हैं लेकिन पलायन की मार का असर इस पर भी पड़ रहा है। सरकार ने पहले रम्माण को नजरअंदाज किया लेकिन अब उम्मीद जगी है कि इस परंपरा को कायम रखने के लिये राज्य सरकार उचित कदम उठायेगी। 
   आपका धर्मेन्द्र पंत 

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