मेरे एक मित्र माधव चतुर्वेदी ने ईद पर दी जाने वाली बकरों की बलि के संदर्भ में बहुत जायज सवाल उठाया है जिसमें इन निरीह जानवरों को उन पर हो रहे अत्याचारों से मुक्ति दिलाने का हल भी छिपा हुआ है। उनका सवाल है ''कुर्बानी क्या प्रतीकात्मक नहीं हो सकती?'' यह बेहद गूढ़ सवाल है जिस पर मैं पहाड़ों में पशु बलि प्रथा के संदर्भ में चर्चा करना चाहूंगा। इस विषय पर पहले भी लंबी बहस होती रही है और इनके कुछ सकारात्मक परिणाम भी मिले हैं। लेकिन अब भी बलि प्रथा पहाड़ों में चल रही है। जिस उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है, उसके लिये बलि प्रथा किसी कलंक से कम नहीं है। जब भी गांव में अठवाण या पूजा होती थी तो रह रहकर एक सवाल उठता था कि जो ईश्वर सृजन करता है वह उसे मिटाना चाहेगा और जवाब यही मिलता था नहीं। सृजक विनाशक कैसे हो सकता है? जब होश संभाला तो बलि प्रथा का विरोध करना शुरू कर दिया। दो साल पहले गांव पारिवारिक पूजा में भी इसी शर्त पर शामिल हुआ कि किसी पशु की बलि नहीं दी जाएगी और श्रीफल से काम संपन्न हुआ।
श्रीफल एक विकल्प हो सकता है। |
ऊपर जिस प्रतीकात्मक कुर्बानी की बात की गयी है वह यही श्रीफल है। मैंने पिछले साल ही देखा की पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध ज्वाल्पा देवी मंदिर में कुछ लोग विरोध के बावजूद बकरों की बलि देते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि ऐसे 'नासमझ' लोगों की संख्या निरंतर घटती जा रही है और इसका उदाहरण है वहां हर दिन चढ़ाये जाने वाले सैकड़ों श्रीफल। दुख की बात यह है मंदिर प्रशासन अब भी पशु बलि को बढ़ावा दे रहा है। वह चाहे तो इस पर पूर्ण रोक लग सकती है। पौड़ी गढ़वाल के बूखांल मेला और कुमांऊ के कुछ मेलों में हर साल बकरों और भैसों की बलि चढ़ाई जाती थी लेकिन अब सामाजिक संगठनों के प्रयासों और सरकार के कड़े रवैये के कारण इन पर कुछ हद तक रोक लगी है।
क्या हम हर तरह की पूजा, चाहे वह अठवाण हो, नृकांर की पूजा या फिर मेले, उन्हें श्रीफल से संपन्न नहीं कर सकते हैं? अगर आप वास्तव में अपनी कुल देवी या देवता के प्रति समर्पण भाव और श्रद्धा रखते हैं तो ऐसा संभव है। अगर आपको 'कचबोली' या मांस खाने का ही शौक है तो उसके लिये कम से कम देवी या देवता को बहाना बनाकर उन्हें अपवित्र नहीं करें। यह कहने में हिचक नहीं है कि पहले लोग अज्ञानी थे। शिक्षा का अभाव था और इसलिए यह परंपरा चल पड़ी लेकिन अब तो हर कोई शिक्षित है फिर क्यों अज्ञानी बनने की कोशिश की जा रही है। हमारा धर्म भी हमें जीव हत्या करने की अनुमति नहीं देता है। मैंने इस विषय पर जितना अध्ययन किया मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि हर धर्म बलि मांगता है लेकिन वह काम, क्रोध और अहंकार की बलि मांगता है किसी जीव की नहीं।
बुखांल देवी मंदिर में बलि प्रथा रोकने के लिये श्री पीताम्बर सिंह रावत का जिलाधिकारी को लिखा पत्र। सराहनीय प्रयास। |
पहाड़ों में बलि प्रथा को जागरियों (तांत्रिकों) ने भी बढ़ावा दिया है। असल में दोष उनका भी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने परपंरागत रूप से अपनी दादा परदादाओं से जागर और कर्मकांड सीखे। समय के साथ बदलना उन्हें खुद के पेशे के लिये घातक लगा और इसलिए आज भी वे बलि प्रथा की पुरजोर वकालत करने से पीछे नहीं हटते। अब इन जागरियों को यह बताने का समय आ गया है कि बलि देने का कोई धार्मिक आधार नहीं है। ऐसे लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में भी यज्ञों में पशु बलि दी जाती थी लेकिन सचाई यह है कि ये लोग अपने हित के लिये वेदों में वर्णित शब्दों का गलत अर्थ लगा लेते हैं। वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन है और इनमें किसी में भी पशु बलि देने की बात नहीं की गयी है।
सामवेद में तो एक जगह लिखा गया है '' न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।'' अर्थात हे देवताओ हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं (जिसमें बलि देनी पड़े)। हम वेद मंत्रों के आदेशानुसार आचरण करते हैं।'' यजुर्वेद में भी मानव से यही आह्वान किया गया है कि वह पशु हो या पक्षी या फिर इंसान किसी की भी बलि नहीं दे। यजुर्वेद में एक जगह कहा गया है ....
''इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।''
अर्थात ''उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।''
इसी तरह से ऋग्वेद में कहा गया है कि ''मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।'' अर्थात हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
अगर आप इस विषय पर आगे शोध करेंगे तो पाएंगे हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में बलि देने के लिये नहीं कहा गया है। यदि आपको लगता है कि देवी या देवता बलि देकर खुश होंगे तो यह महज आपकी गलतफहमी है। इसका परिणाम उलटा हो सकता है।
धर्मेन्द्र पंत
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''इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।
त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।''
अर्थात ''उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।''
इसी तरह से ऋग्वेद में कहा गया है कि ''मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।'' अर्थात हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।
अगर आप इस विषय पर आगे शोध करेंगे तो पाएंगे हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रंथ में बलि देने के लिये नहीं कहा गया है। यदि आपको लगता है कि देवी या देवता बलि देकर खुश होंगे तो यह महज आपकी गलतफहमी है। इसका परिणाम उलटा हो सकता है।
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