गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

पहाड़ी जीवन का सार है 'वूं मा बोलि दे'

त्यारा खुटौं कि 
बिवयूं बिटि छड़कंद ल्वे
पर तू नि छोड़दि 
ढुंगा माटा को काम 
आखिर 
कै माटै बणीं छै तु ब्वे?
        क कवि, पत्रकार, समाजसेवी, उच्चकोटि के वक्ता, मंच संचालक, सलाहकार और इन सबसे बढ़कर गढ़वाल और गढ़वाली से अथाह प्रेम करने वाले शख्स की कलम जब  चलती है तो इसी तरह की कई मर्मस्पर्शी कविताएं प्रस्फुटित होती हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी गणेश खुगशाल 'गणी' पिछले तीन दशकों से हिन्दी और गढ़वाली में निरंतर लिख रहे हैं लेकिन अब पहली बार गढ़वाली में उनकी कविताओं का संग्रह 'वूं मा बोलि दे' के रूप में सामने आया है। दिल को छूने वाली, गांव गुठ्यार की याद दिलाने वाली और कई सवाल खड़े कर देने वाली ये कविताएं पहाड़ी जीवन का सार हैं। 
         कविताओं में डूबने पर हर मोड़ पर आपको अपनी मां, अपना गांव, अपना बचपन, अपने खेत, अपना खलिहान, अपना घर सब याद आ जाएंगे। महान गायक नरेंद्र सिंह नेगी के शब्दों में, ''गणि का ये ​कविता संग्रै मा घर—बण, गौं गुठ्यार, गौं—पचैत, खेती बाड़ि, थौल—तमसा, अजक्यालै राजनीति, कुछ मिट्ठी और कुछ तीती कवितौं को चित्रण, व्यंग्य, गुस्सा, ताना, लाड़, प्यार, भौं—कुछ छ। '' 
     नेगी जी ने ये शब्द 'वूं मा बोलि दे' का सार हैं। आखिर गणेश खुगशाल 'गणी' को नेगी जी से बेहतर भला कौन जानता है। एक कवि सम्मेलन के दौरान जब गणी ने मां पर लिखी अपनी कविता पढ़ी तो नेगी जी खुद को नहीं रोक पाये और उन्हें गले लगा दिया। यह लगभग 22 साल पुरानी बात है और तब से नरेंद्र सिंह नेगी और गणेश खुगशाल 'गणी' का साथ बना हुआ है। नेगी जी के कार्यक्रमों में मंच संचालक गणी भाई की मीठी बोली का कायल भला कौन नहीं होगा।
पिछले दिनों मुझे भी गणी भाई (बायें) से
भेंट 
करने का सौभाग्य मिला। 
      पौड़ी गढ़वाल की असवालस्यूं पट्टी के किनगोड़ी गांव में 22 अप्रैल 1968 को जन्में गणेश खुगशाल 'गणी' ने अपनी बाल्यवस्था और किशोरावस्था गांव में बितायी। बाद में उनकी कर्मस्थली मुख्यरूप से पौड़ी बनी लेकिन वह अब भी गांवों से जुड़े हुए हैं और इसलिये उनकी कविताओं में हर तरफ गढ़वाल के गांव, वहां का समाज, संस्कृति और समस्याएं नजर आती हैं। ''हमारि ब्वे, दादी अर काकि बोड्यूं की, जिकुड़ि भोरीन भुक्यूंन ....'' जैसी कई कविताओं में मां पिताजी आदि का ढेर सारा प्यार भरा है। इन कविताओं में गांवों से पलायन का दर्द दिखता है। शीर्षक कविता 'वूं मा बोलि दे' भी इससे अलग नहीं है। 'कूड़ि' कविता में वह मकान से लेकर घर के हर कोने और उससे जुड़ी हर सामग्री में जीवन भरते हैं। 'पोस्टर' से लेकर 'सिलिंडर' तक और 'भड्डू' से लेकर 'जांदिरि' तक को यह कविता संग्रह जीवंत बना देता है। 
      उत्तराखंड जब भी विपदा में पड़ा तो कवि मन भी विचलित हो उठा और इसलिए केदारनाथ की आपदा पर वह भगवान से पूछ बैठा, ''हे भगवान! तू इथगा रवेलु  ह्वेलु, कैन नि जाणि, बरखा दीणैं मा बि, नि मीलु वख पाणि, तेरी जात्रा यनि ह्वेली, कैल नि जाण ..''। 
    बचपन में मां अक्सर 'कुण्या बूढ़' का डर दिखाकर हमें सुला देती थी। आखिर कौन थी वह 'कुण्या बूढ़, जो अब नहीं डराती? कवि ने '' न कैल देखी, न कैल सूणी, झणि कब अफ्वी—अफ्वी, कै खटला मूड़ मोरिगे कुण्या बूढ़'' में इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश की है। राजनीति पर किये गये कटाक्षों में गणेश खुगशाल 'गणी' के अंदर छिपा पत्रकार सामने आता है। लेकिन वह इसके साथ घंटाघर को बचाये रखने का आग्रह भी सरकार से करते हैं क्योंकि देहरादून में रहने और वहां जाने वाले हर शख्स की यादें इस जगह से जुड़ी हुई हैं। 
    सरकारा।
    तेरी त पता नी क्या गौं छ
    पर मेरी हाथ ज्वड़ै इथु कि 
    तै देरादूणौं तू जो कुछ कैर
    पर बचै राखि घंटाघर । ..
 इस कविता संग्रह का प्र​काशन विनसर पब्लिशिंग कंपनी देहरादून ने किया है और इसका मूल्य 195 रूपये है।

                                                                      धर्मेन्द्र

badge