गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

गढ़वाली में 'ल' और 'ळ' का अंतर

  
        बाल और बाळ, ढोल और ढोळ, मोल और मोळ, घोल और घोळ, पितलु और पितळु। क्या आप एक जैसे दिखने वाले इन शब्दों का अंतर जानते हैं? अगर आप गढ़वाली या कुमाउंनी लोकभाषा की जानकारी रखते हैं तो आपको इनका अंतर स्पष्ट करने में दिक्कत नहीं होगी। 'ल' और 'ळ' के कारण पूरा अर्थ बदल जाता है। मसलन बाल अर्थात बाल जैसे सिर के बाल जबकि बाळ मतलब जलाओ। माना जाता है कि 'ळ' गढ़वाली में विशिष्ट ध्वनि है, लेकिन यह केवल उत्तराखंड की लोकभाषाओं तक ही सीमित नहीं है। असल में 'ळ' का साम्राज्य काफी विस्तृत है लेकिन हिन्दी में इस अक्षर को नकार देेने के कारण यह उपेक्षित हो गया। मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में 'ळ' का धड़ल्ले से उपयोग होता है। वहां हालांकि इसका उच्चारण गढ़वाली की तरह नहीं किया जाता है। अंग्रेजी में इसे 'L', 'LA' और 'ZH' के रूप में लिखा जाता है। इसलिए दक्षिण भारतीय भाषाओं में 'ळ' का उच्चारण हिन्दी के 'झ' जैसा तो मराठी में 'ड़' की तरह लगता है। इसलिए जब हम उनका हिन्दी में उच्चारण करते हैं तो 'ळ' खो जाता है। आईए आज गढ़वाली लोकभाषा को केंद्र में रखकर 'ळ' पर चर्चा करें।     
      'ळ' को हिन्दी में नहीं अपनाया और इसलिए हम मानने लगे कि यह गढ़वाली का ही कोई विशेष अक्षर है लेकिन असल में ऐसा नहीं है। देवनागरी लिपि के व्यंजनों में 'ळ' अक्षर है। आप मराठी वर्णमाला देखिये। उसमें आपको 'ह' के बाद 'ळ' दिखायी देगा। 'कीबोर्ड' में भी यह अक्षर है और इसका कारण यही है कि मराठी में इसका बहुत उपयोग होता है। रेमिंगटन कीबोर्ड में अंग्रेजी की 'G' वाली 'key' को 'Shift' के साथ दबाने से जबकि फोनेटिक में 'N' वाली 'key' को 'Shift' के साथ दबाने से आपका 'ळ' मिल जाएगा। 
        हरियाणवी, राजस्थानी जैसी लोकभाषाओं में 'ळ' अक्षर का उपयोग किया जाता है। संस्कृत की बात करें तो वैदिक संस्कृत में यह अक्षर मिलता है। यही वजह है कि वेदों, उपनिषदों और पुराणों में 'ळ' है लेकिन आम बोलचाल की संस्कृत में यह अक्षर नहीं है। 
       ब 'ळ' के उच्चारण की बात करते हैं। जीभ को ऊपर की तरफ मोड़कर जिह्वाग्र के निचले भाग को मुखगुहा की छत से लगाकर 'ल' बोलने पर उसका मूर्धन्य भेद अर्थात 'ळ' का उच्चारण होता है। अगर आप मराठी सुनेंगे तो यह 'ड़' के अधिक करीब लगेगा लेकिन गढ़वाली में ऐसा नहीं है जहां यह 'ल' का मूर्धन्य भेद ही है। असल में र, ल, ळ, ड, ड़ ये पांचों अक्षर वैकल्पिक वर्ण हैं तथा 'ळ' को 'ल' का पृथक वर्ण माना जाता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं जैसे तमिल, मलयालम आदि में इसका उच्चारण 'ल' और 'ड़' का मिश्रण लगता है। एक उदाहरण कनिमोझी करुणानिधि का है। उनका नाम असल में कनिमोझी नहीं है। हिन्दी समाचार पत्रों और चैनलों में उनका यही नाम लिखा और बोला जाता है। अंग्रेजी में उनका नाम 'Kanimozhi' लिखा जाता है और इसलिए हिन्दी में इसे कनिमोझी कर दिया गया जबकि इसका उच्चारण 'कनिमोळी' होना चाहिए था लेकिन क्या करें हिन्दी में 'ळ' नहीं है और अंग्रेजी चैनलों का इससे कोई लेना देना नहीं है।
        गढ़वाली और कुमांउनी जैसी लोकभाषाओं में 'ळ' का विशेष महत्व है। हिन्दी की तरह गढ़वाली भी देवनागरी लिपि पर निर्भर है लेकिन गढ़वाली वर्णमाला में 'ळ' अतिरिक्त व्यंजन रखना ही होगा जैसा कि हिन्दी में नहीं है। गढ़वाली में कई ऐसे शब्द हैं जिनमें 'ल' और 'ळ' से उनका संपूर्ण अर्थ बदल जाता है। इन शब्दों को बोलने और समझने से आपको 'ल' और 'ळ' के बीच का अंतर भी पता चल जाएगा।
  •       आला — आएंगे                          आळा — मकान की दीवार पर सामना रखने की जगह 
  •       कल — बीता या आने वाला कल   कळ — उपाय, तरतीब  
  •       कालि — देवी मां                         काळि — काले रंग की 
  •       खाल — त्वचा, चमड़ा                  खाळ — पहाड़ों पर समतल स्थल 
  •       गाल — गाल, कपोल                    गाळ — गाली 
  •       घोल — घोंसला                            घोळ — घोलना, घोलो 
  •       चाल — आकाशीय बिजली            चाळ — छानना 
  •       छाल — पेड़ का छिलका                छाळ — धोना 
  •       जाला — जाएंगे                            जाळा — जैसे मकड़े का जाळा 
  •       डालि — टोकरी                             डाळि — छोटा पेड़  
  •       ढोल — एक वाद्ययंत्र                   ढोळ — फेंकना 
  •       तौली — छोटी पतीली                   तौळी — उतावली 
  •       दिवाल — दीवार                          दिवाळ — दीवाली 
  •       नाल — जैसे घोड़े, बंदूक की नाल  नाळ — गर्भ में बच्चे को आहार पहुंचाने वाली नलिका 
  •       पाल — फलों को पकाने की विधि  पाळ — दीवार  
  •       बेल — लता                                 बेळ — समय 
  •       भेल — छत्ता                               भेळ — खड़ी ढलान 
  •       मोल — मूल्य                               मोळ — गोबर 
  •       यकुला — अकेला                          यकुळा — एक बार  
  •       लाल — रंग                                   लाळ — लार 
  •       सिलौण — सिलवाना                     सिळौण  — विसर्जित करना 
  •       हाल — दशा, हालचाल                    हाळ — आंच
            ऐसे कई अन्य शब्द हैं जिनमें 'ल' और 'ळ' में अंतर आ जाता है। ब्लॉग में इस पोस्ट के नीचे टिप्पणी वाले कालम में जरूर ऐसे शब्दों का जिक्र करें। 'घसेरी' को इंतजार रहेगा। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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बुधवार, 10 जनवरी 2018

गढ़वाली में 'तुम' है 'आप' नहीं

     कहते हैं कि जब दो भाषाएं आपसी संपर्क में आती हैं तो उससे दोनों समृद्ध होती हैं लेकिन इसका कई बार नकारात्मक असर भी पड़ता है क्योंकि जो भाषा प्रभावी होती है वह हावी हो जाती है और ऐसे में दूसरी भाषा के शब्द मरने लग जाते हैं। अंग्रेजी के प्रभाव और विशेषकर हिन्दी के कुछ समाचार पत्रों में जिस तरह से धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग किया जा रहा है उससे हिन्दी के कई प्रचलित शब्द भी नेपथ्य में जा रहे हैं। यही हाल स्थानीय भाषाओं का भी है। पिछले दिनों मैंने अपनी फेसबुक वॉल पर एक पोस्ट लिखी थी कि 'आप' गढ़वाली शब्द नहीं और गढ़वाल में सम्मान के लिये 'तुम' का उपयोग होता है। इस पर सार्थक चर्चा हुई और कुछ उपयोगी जानकारी भी मिली। घसेरी में इस बार हम बात 'आप' और 'तुम' को लेकर ही करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि गढ़वाली में बात करते समय कोई भी आप का उपयोग इसलिए करता है क्योंकि उसे लगता है कि वह सामने वाले को पर्याप्त सम्मान दे रहा है। वैसे इसके लिये 'तुम' पर्याप्त है लेकिन जब जुबान पर हिन्दी चढ़ी होती है तो गढ़वाली बोलते समय भी तुम बोलने में हिचकिचाहट होती है। यही कारण है कि आप अब गढ़वाली में घुसपैठ कर चुका है। गढ़वाली में बात करते समय साफ लग जाता है कि 'आप' इसमें घुसपैठिया है। ठेठ गढ़वाली में 'आप' या 'आपका' के लिये अब भी कोई स्थान नहीं है। अपने से बड़ों के लिये सम्मानजनक शब्द के तौर पर आज भी 'तुम' और 'तुमारा, तुमरा, तुमारू, तुमरू' का ही उपयोग होता है। जैसे 'तुम कख जाणा छयां', 'तुमन क्या खाण', 'तुमरा हथ में क्या च' आदि आदि। आप औपचारिक लगता है तुम नहीं। आप के सामने अपना दुख बयां नहीं किया जा सकता है लेकिन तुम के सामने दिल खोलकर बात की जा सकती है। गढ़वाली की युवा कवयित्री नूतन तन्नू पंत ने सही कहा है कि गढ़वाली में आप बोलने पर अपना भी पराया नजर आता है। तुम में अपनापन है आप में नहीं। उन्होंने गढ़वाली में सुंदर शब्दों में 'आप' और 'तुम' के बीच भावनात्मक भेद करने का अच्छा प्रयास किया है। नूतन लिखती हैं, ''जख तक "अाप" अर "तुम" कु सवाल च त आप थैं बड़ु आदर सूचक शब्द समझिदी बजाए तुम का पर हमरि गढ़वळि मा आप ब्वलदे ही अपणु बि पर्या नजर आन्द,ऑखु लगद पर अगर हम "तुम " से कैथे सम्बोधित करदो त ये शब्द मा इतगा अपण्यास च कि कखि दूरु कु बि अपणू सि लगद। ये मा क्वी शक नीच कि हमरि गढ़वळि अपन्वत्व अर अपण्यास कि प्रति मूर्ति च !!''


कहां से पैदा हुए 'आप' और 'तुम' 


   बसे पहले हिन्दी में अपनी अहम जगह बनाने के बाद अब स्थानीय लोकभाषाओं में घुसपैठ करने वाले 'आप' और भारतीयों के अपनत्व से जुड़े रहे 'तुम' शब्दों के मूल के बारे में जानने की कोशिश करते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 'आप' असल में हिन्दी का शब्द नहीं है। वेदों में आप शब्द है लेकिन किसी के सम्मान के लिये नहीं बल्कि पानी या जल के लिये उसका उपयोग किया गया है। वेदों में जल के लिये 'आपः' या 'आपो देवता' कहा गया है। ‘ऋग्वेद’ के पूरे चार सूक्त ‘आपो देवात’ के लिए समर्पित हैं। तो सवाल उठता है कि हिन्दी में 'आप' शब्द कहां से आया? नेशनल बुक ट्रस्ट के हिन्दी विभाग के संपादक श्री पंकज चतुर्वेदी के अनुसार ''आप पर्शियन से आया है उर्दू के रास्ते।'' मतलब उन मूल बोलियों में आप नहीं था जिनसे हिन्दी विक​सित हुई। 
    हिन्दी, अंग्रेजी और गढ़वाली साहित्य पर समान रूप से अधिकार रखने वाले मशहूर लेखक श्री भीष्म कुकरेती का भी कहना है कि आप का गढ़वाली में उपयोग नहीं होता है। श्री कुकरेती के शब्दों में, ''आप माने ओप लगण याने बरगद के नीचे न पनपना। संस्कृत में तुम ही है। आप अरबी है या उर्दू, अधिकतर प्रोफेट को आप से पुकारते हैं की आपने ....। आप मुगलों के कारण नही बल्कि स्वतंत्रता के बाद सभ्यता का प्रतीक बन गया। गुजरात में या महराष्ट्र में तुम ही प्रयोग होता है वे भी अब आप पर आ गये हैं।'' स्वतंत्र पत्रकार और लेखक श्री विनायक कुलाश्री शिवार्पणं ने सही कहा कि भाषा-बोली सतत विकसित होती रहने वाली महानद है। उन्होंने कहा, ''हिन्दी स्वयं उर्दू के आप शब्द से नफासत और सभ्यता को पोषित कर रही है। खड़ी बोली क्षेत्रों में तू और तुम का जो पोस्टमार्टम किया जाता है वह भाषाविदों की परिकल्पनाओं से भी पृथक है। तथापि मनुज समुदाय में संवेदनाओं और मंतव्यों को शाब्दिक रुप में विनिमय करने के लिये किसी भी भाषा का समय-समय पर परिष्कृत और सुसंस्कृत होना आवश्यक हैं।''
     अब 'तुम' की बात करते हैं। भारतीय लोकभाषाओं का अध्ययन करने पर पता चलता है कि यहां हिन्दी की जितनी भी उपबोलियां या भाषाएं हैं उनमें एक समय में आप शब्द का अस्तित्व था ही नहीं। गढ़वाली और कुमाउंनी ही नहीं मराठी, बृज, राजस्थानी, हरियाणवी, गुजराती, मगही, पंजाबी आदि किसी भी भाषा को सुन लीजिए वहां आपको 'आप' नहीं मिलेगा। वहां तू, तुम, तेने से काम चलता है। यहां तक कि संस्कृत भाषा, जो विज्ञान सम्मत है, उसमें भी आप नहीं है। संस्कृत में अधिकतर 'त्वम' का उपयोग होता है जिससे कि हमारी लोकभाषाओं का 'तुम' बना है। संस्कृत के विद्वान श्री सच्चिदानंद सेमवाल के शब्दों में, ''तुम शब्द संस्कृत के त्वम् शब्द का तद्भव है। मध्यम पुरुष के लिए शास्त्रों में प्रायः इसी शब्द का प्रयोग है देवी देवता या भगवान् के लिए भी। लेकिन विशेष सम्मान के लिए भवान् शब्द का प्रयोग भी होता है और उसके साथ प्रथम पुरुष की क्रिया लगती है। जैसे भवान् पठति आदि। आप शब्द संस्कृत में है ही नहीं तुम के लिए।''  शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े श्री महेश कुड़ियाल का मानना है कि गढ़वाली संस्कृत के करीब है। उनके शब्दों में, ''गढ़वाली संस्कृत के निकट है, जहां परमात्मा के लिये भी, त्वमेव, माता च पिता त्वमेव .. त्वमादि देव पुरुष: पुराण, त्वम् ही प्रयुक्त होता है, त्वं ब्रम्हा वरुणेन्द्र रुद्र मरुत: सर्वत्र त्वं ही प्रयुक्त है।  आप का आत्मपरत्व या आप्प दीपो भव आदि पाली से हिन्दी में स्वयं के लिये प्रयुक्त होते होते, दूसरों पर भी प्रयुक्त हो गया .. जो सम्मान सूचक बन गया है .. तुम के साथ क्रिया में निवेदन जैसे तुम चलणां या तुम करणां, तुम करला यह गढ़वाली की विशेषता है।''


औपचारिक संबंधों को थामे रखने के लिए 'आप' 


       ढ़वाली साहित्य में अब भी 'तुम' का ही उपयोग होता है। वैसे गढ़वाली की कुछ पत्रिकाओं में आपसी बातचीत में कभी कभार आप का उपयोग कर दिया जाता है जो खटकता भी है। साहित्य में हालांकि 'तुम' का बोलबाला है। गढ़वाली के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री दीनदयाल सुंद्रियाल 'शैलज' भी मानते हैं कि आप औपचारिक है। श्री सुंद्रियाल के शब्दों में, ''मुझे तो बचपन मे, अपने हमउम्र दोस्तों, प्रियजनों और माँ, दीदी आदि को भी तू कहना ही अच्छा लगता था।'' भाषा कोई भी हो मां के लिये अधिकतर एकवचन यानि तू या तुम का उपयोग किया जाता है। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्री माधव चतुर्वेदी ने इसे अच्छी तरह से समझाया है। उनके शब्दों में, ‘‘चूंकि उत्तर भारत के परिवारों में पति अपनी पत्नी से बातचीत में एकवचन का प्रयोग करता है और पत्नी अपने पति के  लिये बहुवचन बरतती है। इस कारण बच्चे भी अपने पिता के लिये बहुवचन का प्रयोग करते हैं और मां के लिये एकवचन का प्रयोग। यह विशुद्ध तौर पर घर के बड़ों से मिला भाषा का संस्कार है। ’’
        इसी तरह से योगी आशीष ड़ोभाल ने लिखा, ''तू वह महान शब्द है जिसको पचाना हर किसी के बस की बात नही। तू शब्द का प्रयोग मुख्यता बिना संकोच और धारा प्रवाहिता के साथ एक जन्मदाता माँ और दूसरा जगतमाँ या भगवान के लिए किया जाता है और इन्होंने कभी तू को बुरा नही माना बाकि अन्य की तो नाक लग जाती है।'' लेखक, पत्रकार और शिक्षाविद श्री संजय अथर्व ने सही कहा है कि औपचारिक संबंधों को बनाये रखने के लिये आप है, आपसी मित्रता और गहरे संबंधों के लिये। बकौल श्री अथर्व, ''गढ़वाल, राजस्थान, अवध या कि हमारी मगध की मगही सभी में आप का कोई अस्तित्व नही है। तू ही तू छाया है। इसलिये आप 'आप' के लिए चिंतित नहीं हों। औपचारिक संबंधों को थामे रखने के लिए आप है।''
    अब गढ़वाली, कुमांउनी या अपनी लोकभाषा बोलते समय 'आप' का उपयोग करना है या 'तुम' का, यह फैसला आपको खुद करना है। जहां तक मेरा सवाल है तो अपनी गढ़वाली में मुझे 'तुम' ही पसंद है लेकिन हिन्दी में भारी भरकम शब्द 'आप' के साथ ही जीना पड़ेगा। हिन्दी में लिख रहा हूं इसलिए आप का उपयोग कर रहा हूं .......आपका धर्मेन्द्र पंत। 

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गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

​मिलिये बूंखाल में बलि प्रथा बंद करवाने वाले पीताम्बर सिंह रावत से

       पौड़ी गढ़वाल के थैलीसैंण विकासखण्ड के राठ क्षेत्र का ऐतिहासिक बूंखाल कालिंका मेला एक समय पशु बलि प्रथा के लिये विख्यात था। मेले के दिन यहां पशुओं के खून नदियां बह जाती थी। अशिक्षा और अंधविश्वास के कारण वर्षों से यह प्रथा चली आ रही थी। आखिर में एक शख्स ने इस कुप्रथा को रोकने का बीड़ा उठाया। उनके प्रयासों से प्रशासन ने भी सक्रियता दिखायी। इसी का परिणाम है कि पिछले कुछ वर्षों से बूंखाल मेला बिना पशु बलि के शांति के साथ संपन्न होता है। गढ़वाल में पशु बलि प्रथा के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले इस शख्स का नाम है पीताम्बर सिंह रावत जो डुंगरीखाल गांव के रहने वाले हैं। दो साल पहले मैंने अपने ब्लॉग पर पशु बलि प्रथा के खिलाफ ''देवभूमि में बलि प्रथा : बोलो ना बाबा ना'' शीर्षक से एक आलेख लिखा था जिसमें श्री पीताम्बर सिंह रावत के पत्र का भी जिक्र किया था जो उन्होंने जिलाधिकारी को लिखा था। अब श्री रावत ने बलि प्रथा को रोकने के लिये किये गये अपने प्रयासों और इस दौरान की चुनौतियों के बारे में 'घसेरी' को अपनी कहानी विस्तार से बतायी है। 

पीताम्बर सिंह रावत की बलि प्रथा के खिलाफ लड़ी गयी जंग की कहानी, उन्हीं की जुबानी


श्री पीताम्बर सिंह रावत, अपने नाती और नातिन के साथ। 
       न 1999 तक मेरी भी बलि प्रथा में काफी रुचि रहती थी और दो बार मैंने भी बूंखाल में बागी (भैंसा) और खाडु (मेंढ़ा) की बलि दी थी। इसी दौरान मैंने अपने भाइयों को बागी को मारते हुए देखा। बागी तड़प रहा था और मेरे दोनों भाई बारी बारी से उसकी गर्दन काट रहे थे। उस समय मैं काफी व्यथित हो गया। मैं अंदर से काफी पीड़ा महसूस कर रहा था। बस मैंने तुरंत ही बूंखाल मै बलि प्रथा रोकने का संकल्प ले लिया। यह काम कतई आसान नहीं था यह मैं अच्छी तरह से जानता था, क्योंकि बूंखाल में चोपड़ा गाँव के चक्करचोटया, गोदा गाँव के गोदियाल पुजारी और मलंड गाँव की भूमि इन तीनों गाँव के लोगों का कहना था कि जो भी बूंखाल में बलि प्रथा रोकने की कोशिश करेगा उसी समय उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। । यहां तक कि प्रशासन भी वहां कुछ नहीं कर पाता था। कालीमठ के गब्बर सिंह राणा को उन्होंने जान से मारने की धमकी थी। लगभग सारे सामाजिक कार्यकर्ता नाकाम रहे। उसके बाद मुंबई की डांडी कांठी संस्था से जुड़े लोगों ने भी प्रयास किये लेकिन वे भी कामयाब नहीं हो पाये। 
     मैंने भी संकल्प ले रखा था। मैं अकेले ही अपना संकल्प पूरा करने में लग गया। एकबारगी मैंने सोचा कि मैं अकेला हूं और अकेले इतना बड़ा काम करना मुश्किल है। इतना मैं समझ चुका था कि लोगों को समझाने और उनके साथ बहस करने से कोई फायदा नहीं हैं।  इसलिए पहले मैंने पहले खुद भगवान की शरण ली। मैं भगवान को ही अपना साथी मानने लग गया। चार साल बीत गए लेकिन इन चार वर्षों में मुझे अन्दर ही अन्दर रास्ता दिखायी दिया। फिर मैंने आठ मार्च 2005 को शिवरात्रि  के दिन महाराष्ट्र के चारोटी से पहली पैदल यात्रा शुरू  कर दी। यह यात्रा 16 मार्च 2005 मध्यप्रदेश के झाबुआ में सम्पन्न हुई। इस यात्रा में मुझे काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा लेकिन इससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। मेरा हौसला दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। सन 2006 में मैंने श्राद्धीय नवरात्रि को आठ दिन की यात्रा की। यह यात्रा मेरी गुजरात के अंबा जी की थी इस यात्रा में मुझे कोई खास परेशानी नहीं हुई। सन 2007 में मैंने राजस्थान की यात्रा की। तीन दिन की इस यात्रा में मेरे साथ 36 घंटे तक पांच कुत्तों ने साथ दिया। इसके एक दिन के बाद हरिद्वार से बूंखाल तक की यात्रा मैंने 51 घन्टे में पूरी की। उसके बाद अपने गांव से माता जी की डोली लेकर बूंखाल गया। तब मेरे भाईयों के साथ—साथ सारे गाँव वालों ने मेरा साथ दिया। दो महीने के बाद मेला था और उस समय गांव में हमारे सगे संबंधियों ने बागी की बलि दी। मेरे भाईयों ने भी इस बलि का समर्थन किया। 
 बुखांल देवी मंदिर में बलि प्रथा रोकने के लिये
श्री पीताम्बर सिंह रावत का जिलाधिकारी को लिखा पत्र।
     न 2008 को श्राद्ध के समय मैं बूंखाल गया। मैंने सब्बल, कुदाल और तगारा लिया तथा तीन दिन में बलि कुंड को पत्थरों से बंद कर दिया। मजेदार बात यह है कि उन तीन दिनों में किसी को पता नही चल पाया कि बलि कुंड बंद हो गया चौथे दिन नवरात्र का पहला दिन था उस दिन मैंने खुद ही खुलासा कर दिया कि मैंने बलि कुंड बंद कर दिया है। इससे मेला समिति में खलबली मच गयी। उस समय उन लोगों के साथ मेरी काफी बहस हुई। जब मैंने उनसे कहा कि जब मैने बलि कुंड बंद करने में तीन दिन लगाये तो आप लोगों की चमत्कारी शक्तियां कहां गई थी? उन्होंने मुझे क्यों नहीं रोका? मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे साथ में कोई शक्ति थी जिसने तुम लोगों को अन्धा कर दिया था। जब मैंने यह बात कही तो माहौल कुछ शांत हुआ लेकिन नौवें दिन तक उन पर फिर से अंधविश्वासी शक्तियां हावी हो गयी और उन्होंने बलि कुंड को फिर से खाली कर दिया। मै भी यही चाहता था कि बलि कुंड को वही लोग खोलें। मैंने बचपन से ही वहां के बारे में कई कहानियां सुनी थी। एक कथा के अनुसार कुंड के अन्दर गोरखाओं ने काली मां को गाड़ के रखा है। (एक अन्य कहानी इस तरह से है कि पहले यहां स्थि​त मूर्ति तमाम तरह की बीमारियों और आपदाओं के बारे में ग्रामीणों को पूर्व में ही आगाह कर देती थी। जब 1791 में गोरखा आक्रमण के समय देवी ने आवाज देकर ग्रामीणों को आगाह किया। इसकी भनक गोरखाओं को लग गयी और उन्होंने देवी की मूर्ति का सिर काटकर उसके धड़ को उल्टा करके दफना दिया तथा देवी माँ का सिर वे अपने साथ ले गये, जिसकी पूजा आज भी पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल में होती है।)
    इसके एक साल बाद यानि सन 2009 में श्राद्ध के समय मैं केदारनाथ धाम गया। वहां मैंने बाबा केदारनाथ से आशीर्वाद लिया कि मैं बलि प्रथा रोकने के अपने प्रयासों में सफल रहूं। केदारनाथ से ही मैं सीधे श्रीनगर पहुंचा जहां मैंने एक गैंती ली और पैदल रास्ते चलकर खिर्सू, चौबट्टा होते हुए चोपड़ा गाँव पहुँचा। रात के करीब दस से ग्यारह बजे का समय था। मैं गोदा गांव से होकर गुजरा तो सभी सो चुके थे। मैं वहां से बूंखाल गया और मैंने बलि कुंड के अन्दर जाकर बलि बेदी को निकाला और फिर रात में ही उसे गंगा में विसर्जित कर दिया। बूंखाल मैं मैंने जो भी कार्य किये वो सब अमावस के दिन व रात को किए। इन सब कार्यों को करने के लिए मुझे कितने मुश्किलों का सामना करना पड़ा इसका अन्दाजा आप खुद लगा सकते हो। इसी दौरान मैंने विषम सामाजिक परिस्थितियों में अपनी बेटी की शादी भी की थी।

    पीताम्बर सिंह रावत 
    पता: गांव व पोस्ट डुंगरी खाल, 
    पट्टी बाली कंडारस्यूं  
    जिला पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड। 

        उत्तराखंड के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास में योगदान देने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों से लोगों का परिचय कराने का यह 'घसेरी' का छोटा सा प्रयास है। ऐसे लोग जो निस्वार्थ भाव से अपना काम करते हैं और जिसका श्रेय उन्हें कभी नहीं मिल पाता। इसमें घसेरी के सभी पाठकों का सहयोग अपेक्षित है। आपका धर्मेन्द्र पंत 

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सोमवार, 4 दिसंबर 2017

उत्तराखंड के आभूषण : गुलबंद से लेकर तगड़ी तक

उत्तराखंड की महिलाओं के कुछ विशेष आभूषण होते हैं जिनमें मांगटीका, गुलबंद, नथ या नथुली आदि प्रमुख हैं। 


      भारतीय महिलाओं का आकर्षण है आभूषण और यहां हर प्रांत और स्थान के अनुसार आभूषण भी बदल जाते हैं। मैं यहां पर उत्तराखंड की बात करूंगा जहां हर अंग के लिये कुछ खास आभूषण होते हैं। भारत के हर प्रांत की तरह उत्तराखंड में भी सोने और चांदी के ही आभूषण प्रचलित हैं। प्राचीन समय से चले आ रहे कई आभूषण अब कम प्रचलन में हैं तो कुछ जेवर ऐसे भी हैं जो फिर से पहाड़ी महिलाओं में अपनी जगह बना रहे हैं। 
    उत्तराखंड के आभूषणों पर चर्चा करने से पहले एक सवाल मन में उठा कि महिलाएं ही अधिक आभूषण क्यों पहनती हैं? इस बारे में कुमांऊ क्षेत्र के विद्वान डॉ. शेर सिंह पांगती ने अपनी किताब 'वास्तुकला के विविध आयाम' में लिखा है, ''आभूषणों का प्रारंभिक उपयोग मूल्यवान वस्तुओं जैसे सोना-चांदी के विभिन्न प्रकार के रत्नों को पारिवारिक आय की जमा पूंजी के रूप में सुरक्षित रखने के लिए शरीर में धारण करने से हुआ, ताकि इनके खो जाने अथवा चोरी हो जाने की संभावना न रहे। पहले घरों को सुरक्षित रखने के लिए ताले उपलब्ध नहीं थे और न बैंक व लॉकर की व्यवस्था थी। ऐसे में आभूषणों को शरीर पर धारण करके ही सुरक्षित रख पाना संभव था। परिवार की स्त्रियां घर से बाहर कम निकलती थी, इसलिए उनको उसका जिम्मा सौंपा गया। धीरे-धीरे अपनी संपत्ति व वैभव को समाज के समक्ष प्रदर्शन करने की परंपरा के चलते मूल्यवान धातुओं को सुंदर रूप देकर आभूषण के रूप में धारण करने का चलन हुआ।''
      उत्तराखंड में भी अधिकतर आभूषण महिलाओं से ही जुड़े हैं। उत्तराखंड के पुरूषों में एक समय कुंडल पहनने का प्रचलन था जिन्हें मुरकी या बुजनि कहा जाता है। अब भी कई क्षेत्रों में पुरूषों को मुरकी पहने हुए देखा जा सकता है। 'घसेरी' में यहां पर मुख्य रूप से महिलाओं से जुड़े आभूषणों का जिक्र किया गया है। 

सिर पर पहने जाने वाले आभूषण


शीशफूल : शीशफूल को महिलाएं जूड़े में पहनती हैं। 
मांगटीका : मांगटीका अपने नाम के अनुसार मांग में पहना जाता है। इसे अमूमन किसी त्योहार, देवकार्य, शादी या फिर किसी अन्य शुभकार्य के अवसर पर पहना जाता है।  इस तरह का एक अन्य जेवर होता है जिसे वाड़ी कहते हैं। 

नाक में पहने जाने वाले आभूषण 


नथ या नथुली : उत्तराखंड की महिलाओं को विशिष्ट पहचान दिलाती है नाक में पहने जाने वाली कुंदन जड़ी बड़ी नथ। इसके बिना उनका श्रृंगार अधूरा माना जाता है। इसे विशेष तरह की कारीगरी से तैयार किया जाता है। गढ़वाल में टिहरी नथ और छोटी नथ का प्रचलन है। इसे विवाहित महिलाएं पहनती हैं। 
बुलाक : उत्तराखंड विशेषकर गढ़वाल की महिलाएं नाक के बीच एक गहना पहनती हैं जिसे बुलाक कहते हैं। इसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार छोटा या लंबा बनवाया जाता है। कुछ बुलाक इतनी लंबी होती हैं कि वह ठुड्डी से भी नीचे तक पहुंच जाती हैं। इसे बेसर भी कहा जाता है। 
फु​ल्लि : नाक में पहने जाने वाली लौंग। यह असल में नथ का विकल्प है। नथ को हमेशा नहीं पहना जा सकता है इसलिए महिलाएं इसे उतारकर लौंग या फुल्लि पहनती हैं। यह काफी छोटे आकार की होती है और इसलिए इसे किसी भी समय आसानी से पहना जा सकता है।

कानों में पहने जाने वाले आभूषण 


मुर्खली : चांदी की बालियां जिन्हें महिलाएं कानों के ऊपरी हिस्से में पहनती हैं।      
बाली : सोने के बने कुंडल। 
कर्णफूल या झुमकी : झुमकी पहाड़ी महिलाओं का भी पारंपरिक आभूषण है। कर्णफूल भी इसी का एक रूप है। लंबी झूमकी जिसके बीच में नग लगे होते हैं। 

गले में पहने जाने वाले आभूषण 


गुलबंद या गुलोबंद : गुलुबंद, गुलबंद या गुलोबंद एक आकर्षक जेवर है जिसे सोने की डिजाइनदार टिकियों को पतले गद्देदार पट्टे पर सिलकर तैयार किया जाता है। गुलुबंद गढ़वाली, कुमांउनी, भोटिया और जौनसार की विवाहित महिलाओं का प्रमुख आभूषण रहा है। मंगनी यानि मांगड़ या सगाई के समय पहले गुलबंद पहनाने का ही प्रचलन था। (विस्तार से आगे दिया गया है)
हंसुळी या हांसुळी : चांदी का बना जेवर जो काफी वजनी होता है। इसे प्राचीन समय में अधिक पहना जाता है। महिलाओं के अलावा छोटे बच्चों को भी हंसुळी पहनायी जाती है लेकिन उसका वजन कम होता है। महिलाएं जिस हंसुळी को पहनती हैं उसका वजन तीन तोला तक होता है। 
चरेऊ : यह एक तरह से मंगलसूत्र का ही विकल्प है जिसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। सुहागिन महिला अपने गले में काले मनकों की माला पहनती हैं। इन्हीं मालाओं के बीच में सामर्थ्य के अनुसार चांदी या सोना लगाकर मंगलसूत्र तैयार किया जाता है। इसे  चरेनु भी कहा जाता है। 
तिमाण्यां : सोने के तीन मनकों से बना गले का आभूषण। 
 गले के अन्य आभूषणों कंठी, तिलहरी, चंद्रहार, हार, लाकेट आदि शामिल हैं।

हाथ में पहने जाने वाले आभूषण 


पौंची या पौंजी : इन्हें कलाईयों में पहना जाता है। कंगन के आकार के होते हैं जिनमें सोने या चांदी के दाने लगे होते हैं। इन्हें भी गुलबंद की तरह कपड़े की पट्टी पर जड़कर तैयार किया जाता है। 
मुंदड़ी : मु​द्रिका या अंगूठी। मुंदरि या गुंठी भी कहा जाता है। 
धागुली या धागुले : छोटे बच्चों के हाथों में पहनाये जाने वाले चांदी के कड़े। यह सादे और डिजाइनर दोनों तरह के होते हैं। 
इनके अलावा स्यूंण, स्यूंणा या सांगल कंधे पर लगाया जाता है जो कि सेफ्टी पिन की तरह होता है। बाजू पर भी एक आभूषण पहनने का प्रचलन रहा है जिसे गोंखले कहा जाता है। 

कमर पर पहने जाने वाले आभूषण 


तगड़ी : चांदी से बना आभूषण जिसे बेल्ट की तरह कमर पर पहना जाता है। पुराने जमाने में महिलाएं हमेशा इसे पहनकर रखती थी क्योंकि कहा जाता था कि लगातार काम करते रहने के बावजूद इससे कमरदर्द नहीं होता है। इसे करधनी, कमरबंद भी कहा जाता है। करधनी यानि सोने चाँदी आदि का बना हुआ कमर में पहनने का आभूषण जिसमें कई लड़ियाँ या पूरी पट्टी होती है।

पांवों में पहने जाने वाले आभूषण 


झिंगोरी, झांजर, इमर्ति, पौटा, पायल, पाजेब और धागुले : पायल चांदी की बनी होती हैं। उत्तराखंड में क्षेत्र के अनुसार इनका आकार प्रकार और नाम बदल जाते हैं। गढ़वाल में महिलाएं चूड़ीनुमा पायल पहनती हैं जिन्हें धगुला या धागुले कहते हैं। पौटा जैसे गहने अब प्रचलन में नहीं हैं। 
बिछुए : पैरों की उंगलियों में पहना जाता है। ये चांदी के बने होते हैं और इन्हें सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। 

         अब बात करते हैं गुलबंद की जिसके बारे में मैंने पिछले दिनों फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी। इस पर कई ​तरह की टिप्पणियां मिली। पत्रकार श्रीमती प्रज्ञा बड़थ्वाल ध्यानी ने लिखा, ''यह अब भी फैशन में है। मेरे पास नथ, गुलुबंद, पौंची ओर हंसुली है। तिमांण्या बनवाना है। '' श्री नेगीदा लखोरिया ने गुलबंद के बारे में विस्तार से बताने का अच्छा प्रयास किया। उन्होंने लिखा, ''गुलबन्द से पूर्व क्या आभूषण पहनाया जाता रहा होगा? स्वर्ण गुलबन्द से पूर्व मंगणि के समय मांगी गई कन्या के मस्तक पर भावी स्वसुर द्वारा तिलक करके चांदी का हांसुळ पहनाया जाता था। वही आभूषण मुख्य परम्परागत आभूषण था। समयांतर में मखमली पट्टे पर सात या नौ पट्टिकाओं वाला गलूबन्द हांसलि के स्थान पर पहनाया जाने लगा। यह आभूषण केवल एक आभूषण मात्र था चूंकि इसमे लगा स्वर्ण शरीर से स्पर्श नहीं करता था तो इस आभूषण का लाभकारी प्रभाव भी कुछ नहीं था क्योंकि आभूषणों का निरन्तर त्वचा से स्पर्श करते रहना एक्यूप्रेशर तो करता ही है साथ साथ स्पर्श घर्षण से स्वर्ण या रजत की आवश्ययक मात्रा भी शरीर में पहुंचती रहती है।"
       गढ़वाली के वरिष्ठ कवि श्री दीनदयाल सुंद्रियाल ने टिप्पणी की, ''पुराने ज़माने में गरीबी अधिक थी तो हरेक मंगनी करने के लिए हँसुली या गुलुबंद का इंतज़ाम नही कर पाता तो किसी रिश्तेदार या गॉव की बहू बेटी का गहना लेजाकर भी मंगनी हो जाती थी। कहते है पूरे गांव के लड़कों की मंगनी एक हँसुली से भी हो जाती थी। आपसी सद्भाव का एक बड़ा उदाहरण।''
    सच में यह प्यार और सद्भाव ही पहाड़ के लोगों को दूसरों से अलग करता है। उम्मीद है आपको उत्तराखंड के आभूषण पसंद आए होंगे। कैसा लगा जरूर बताना। 
आपका धर्मेन्द्र पंत 

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शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

खिचड़ी के बहाने गिंजड़ी की याद

    खिचड़ी भी राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन सकती है यह लोकतांत्रिक देश भारत में ही संभव है। लेकिन भला हो खिचड़ी का जिसके बहाने मुझे गिंजड़ी की याद आ गयी। गिंजड़ी ही नहीं बाड़ी, पल्यो, छछिन्डु सब जेहन में घूम गये। बचपन में कभी न कभी इनका स्वाद जरूर लिया है। खिचड़ी को पौष्टिकता से भरपूर गिंजड़ी बनाना तो कोई हम पहाड़ियों से सीखे। हमें 'बाड़ी खैंडणा' भी आता है और 'पल्यो सपोड़ना' भी। हमारी नयी पीढ़ी जरूर इनसे अनभिज्ञ है इसलिए आज मैं उनका अपनी 'घसेरी' के जरिये '​गिंजड़ी' और ' बाड़ि या बाड़ी' से परिचय करवा रहा हूं। 
      भारत में खिचड़ी क्षेत्र के हिसाब से अलग अलग तरीके से बनायी जाती है और इसलिए गिंजड़ी भी खि​चड़ी का ही एक रूप है। गढ़वाल में गिंजड़ी को गिंजड़ु, गिंजड़ू, गिंजड़ो आदि नामों से भी जाना जाता है। यह सदियों से पहाड़ के व्यंजनों में शामिल है। बेहद पौष्टिक है और खिचड़ी के भी गुण इसमें समाये होते हैं। गिंजड़ी मैंने बचपन में खायी थी। मां बनाती थी क्योंकि दादी ने अपने बच्चों को गिंजड़ी काफी खिलायी थी और मैंने पिताजी को कई बार मां से कहते सुना कि 'आज गिंजड़ी या फिर बाड़ी खाने का मन कर रहा है।' कई बार हमें न चाहते हुए गिंजड़ी या बाड़ी खानी पड़ी लेकिन ऐसे मौके बहुत कम आये। अब जरूर मन करता है कि काश वे मौके बार बार आते। 


     बहरहाल अब बात इस पर करते हैं कि गिंजड़ी कैसे बनायी जाती है। इसको बनाना भी खिचड़ी की तरह आसान है। बस अंतर यह है कि खिचड़ी के लिये चावल की जरूरत होती है और गिंजड़ी झंगोरा (झंगोरा के बारे में पढ़ने के लिये क्लिक करें — झंगोरा : बनाओ खीर या सपोड़ो छांछ्या) से बनायी जाती है। गिंजड़ी को झंगोरा के साथ काले भट और इसी तरह की अन्य पहाड़ी दालों को मिलाकर बनाया जाता है। खिचड़ी सूखी भी हो सकती है लेकिन गिंजड़ी सूखी हो तो फिर मजा नहीं। मैंने चाचाजी श्री हरिराम पंत से जब गिंजड़ी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि बजरू (बाजरा) की ब​हुत अच्छी गिंजड़ी बनती है। सुना है कि एक बार सरकार ने पहाड़ों में अन्न के नाम पर बाजरा का खूब वितरण किया था और शायद तभी से वहां के लोगों ने इससे गिंजड़ी बनाना सीखा होगा। बाजरा को उरख्यालु (ओखली) में कूट कर उसका बाहर का छिलका बा​हर निकाल दिया जाता है और ​अंदर वाले दानों के साथ दालें मिलाकर गिंजड़ी तैयार कर दी जाती है। वैसे चावल और विभिन्न तरह की दालों को एक साथ मिलाकर बने पकवान को भी गिंजड़ी या गिंजोड़ो कहा जाता है। 

बाड़ी खैंडणू


      ये तो रही बात गिंजड़ी की लेकिन मैंने पहले कहा था कि आपका आज 'बाड़ी' से भी परिचय कराऊंगा तो अब बात की जाए इस विशेष पहाड़ी व्यंजन की। बाड़ी मंडुआ के आटे (चूनो या चूनू) से तैयार किया जाता है और इसे खास तौर पर मसफ्वड़ी (काली दाल पीस बनाया जाने वाला व्यंजन) के साथ खाया जाता है। बाड़ी बनाने के लिये पहले पानी उबाला जाता है। इसके ऊपर शुरू में थोड़ा सा चूनो डाल दिया जाता है जिसे 'छापड़' कहते हैं। जब पानी खौलने लग जाए तो उसमें मंडुआ का आटा डाला जाता है। ​फिर इसे लगातार 'दबळु' (लकड़ी का बना एक विशेष तरह का गोलाकार वस्तु) से घुमाया जाता है। इसी को गढ़वाल में 'बाड़ी खैंडणू' यानि बाड़ी घोटना कहा जाता है। चाचाजी ने बताया कि दादी कहती थी कि बाड़ी तब तक घोटना चाहिए जब तक उसमें गैस के बुलबुले नहीं फूट जाएं। छोटी चाचीजी श्रीमती मनोरमा पंत को बाड़ी खाने का बहुत शौक है और वह दिल्ली में रहकर भी बाड़ी बनाती है और दबळु की जगह पर बेलन का उपयोग करती हैं। कुछ लोग मीठा बाड़ी भी बनाते हैं। अंतर इतना है कि इसे गुड़ के खौलते पानी में मंडुवे का आटा डालकर तैयार किया जाता है। इसे मंडुवे के आटे का हलवा भी कहा जाता है।
     ये तो थी गिंजड़ी और बाड़ी की बात। कैसा लगा आपको इसका स्वाद। बताना जरूर। गिंजड़ी और बा​ड़ी खाने के लिये तो 'घसेरी' आपका मेहमान बनने के लिये भी तैयार है। 'घसेरी' से अपना प्यार बनाये रखिये। आपका धर्मेन्द्र पंत  

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